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स्नेह यात्रा भाग सात खंड दस

sneh yatra

कुमार परिवार हमारे इंतजार में बाट जोहता मिला हैं। अनु का चेहरा तनिक लटका है और बच्चे मुझे किसी सम्मोहन के घटने के अपराध में मूक संज्ञा देते लगे हैं। वो आगोश में आने से झिझक रहे हैं। अपने अधपके शरीरों से उगता सुख मुझे नहीं भोगने दे रहे और उदास चेहरों पर वो लावण्य की ललक मिटती सी लगी है।

“मुझे जाना ही है मेरे बच्चों!” मैंने जैसे क्षमा मांगी है।

मधु और रानू सुबक उठे हैं। मेरे मन में कुछ कुलबुली सी उठती रही है। शायद अमेरिका में आ कर भी मैं समय का मूल्यांकन भावनाओं के सहारे ही करता हूँ – भारतीय हूँ और विछोह इनके लिए कोई अज्ञात डाह होता है।

“मौका मिला तो फिर आऊंगा!” अनु से भेंटते हुए मैंने कहा है।

बहन भाई के यों मिल बैठने पर सोफी की आंखें भी सजल हो आई हैं। अनु का कंठ भारी है तथा कुमार साहब भी चश्मे के लेंस साफ करने की क्रिया में अपना विछोह छिपाते रहे हैं। कुछ अडोसी-पडोसी कनखियों से ये अजीबोगरीब तमाशा देखते रहे हैं जो इनके लिए अचरज ही है।

“आंसू पोंछ लो अनु!” मैंने धीमे से कहा है।

लगा है आंसुओं और आंखों का हृदय के उद्गार से सीधा तालमेल है। हालांकि मैं नहीं चाहता कि मैं रोऊं पर आंखें बरबस गीली होती लगी हैं। एक बीच का अदृश्य संबंध हमें साधे है, आपस में जोड़े है और अब भी बजाए टूटने के आंसू पी कर अमर हो गया है। हवा में हाथ उछाल-उछाल कर हमने – बाय-बाय, बेस्ट ऑफ लक आदि इत्यादि उधार लिए शब्दों का उच्चारण किया है और चल पड़े हैं। सोफी गाड़ी चला रही है।

“तुम कितने भाग्यशाली हो!” सोफी ने चलते चलते मेरे भाग्य को सराहा है।

“ये तो अब तुम पर निर्भर करता है!” मैंने तनिक हंस कर व्यंग किया है।

“तुम ही जीतोगे! तुम में एक कशिश है – एक आकर्षण है और जानते हो वो क्या है?”

“धन!” मैंने जैसे गलत उत्तर दे कर सोफी के मनसूबे जानने का प्रयत्न किया है।

“गलत! तुम में एक सहजता है, एक भावनाओं का खजाना है, उदारता और पराए दुख बांटने की चाह है!” सोफी गाड़ी चलाते-चलाते जैसे भीड़ भक्कड़ में से ये सब छांट-छांट कर पकड़ती रही है।

“तुम कैसे जानो?” मैंने तनिक फूंक ले कर पूछा है।

“अनु कहती है तुमने सब मां से विरासत में पा लिया है।” सोफी ने बताया है।

अचानक मां की मूर्ति मेरे सामने घूमती रही है। बाबा कहते रहे हैं – मेरी मां में वैसा था, ऐसा नहीं था, अगर वो होती तो ये होता – ये नहीं होने देती। और अनु? अनु तो मां को बाबा से कम प्यार करती थी। और मैं? अब तक मां की पहेली समझ नहीं आई है। वो वात्सल्य बखेरता मुख मंडल आज तक नयनाभिराम से ओझल नहीं हो पाया है।

“शायद ठीक कहती है!” कह कर मैंने निश्वास छोड़ा है।

“और एक मेरी भी मां है?” कह कर सोफी कहीं दूर देखने लगी है।

सोफी किसी दर्प रेखा को पार कर, कोई संतोष का घूंट पी और एक अटल इरादा लिए जीती इकाई लगी है – जो एक दम अकेली है!

“तुम्हारे पास कितनी .. आई मीन गाड़ियां हैं?” हिचकोले ले ले कर मैं पूछ पाया हूँ।

“क्यों?”

“कल दूसरी थी न!”

“ये किराए की है!” सोफी ने सपाट आवाज में कहा है।

“किराए की? लगता है यहां किराए पर उठाने का प्रचलन बहुत है?”

“हां!” अन्यमनस्क सोफी ने उत्तर दिया है।

सोफी अब भी कहीं दूर देखती रही है। मैं कह देना चाहता हूँ कि एक मां भी किराए पर ले लो पर यही सोच कर चुप हूँ कि सोफी को ये मजाक नागवार गुजरेगा!

“कितना फासला है?”

“तीन हजार मील!”

“कितने महीने लगेंगे?”

“सिर्फ एक सप्ताह!”

“आज की रात?”

“वॉशिंगटन में!”

“ओह! यू मीन कैपिटल?”

“यस!” सोफी ने कार को सरपट सड़क पर दौड़ा दिया है।

सोफी गाड़ी चलाती मोहक लग रही है। बालों की पतली लटें गालों को छू-छू कर खिड़की से टकरा रही हैं। गहरी नीली आंखों में एक दूरी समा गई है। मैं भी महज कैपिटल के नाम से दिल्ली पहुंच गया हूँ। अमेरिका के हाईवे पर दौड़ती मोटर गाड़ी को आगरा दिल्ली वाले हाईवे जैसी कठिनाइयां रोक नहीं पा रही हैं। खुले जानवर, छुट्टे बच्चे और बूढ़े, झुंड में चलते राहगीर, गलत हाथ पर चर्रमर्र करता चलता भैंसों का गाढ़ा या बिदकती ऊँटों की कतारें कहीं मीलों तक नजर नहीं आ रहे। यात्रा भी अजीब कृत्रिम और उबाऊ लगने लगी है। गाड़ी चलाते चलाते जब तक कोई जोर से ब्रेक मार कर किसी को ऊंचे-ऊंचे न पुकारा जाए और कुछ मोटी-मोटी गालियां देने का आनंद न लिया जाए तो क्या खाक यात्रा रही? और दिल्ली शहर में धंसता ट्रैफिक, बाहर भागता ट्रैफिक, सिक्खड़ों के दनदनाते ट्रक, हट जाओ, बाजू आओ का ऊंचा स्वर यहां सभी नदारद लग रहे हैं।

“यहां तो खेतों में भी कोई नहीं?” मैंने सोफी से पूछा है।

“यहां बहुत कम लोग काम करते हैं।”

“लेकिन पैदावार! और ये खड़ी फसल?”

“यहां मानव नहीं मशीन युग है! एक ही आदमी लग कर एकड़ों के हिसाब से फसल उगाता है!”

“सड़क पर भी कोई नहीं चलता?”

“हम जो चल रहे हैं!” सोफी ने मजाक किया है।

मेरे बच्चों जैसे प्रश्नों पर सोफी रिझा गई लगी है।

“वो .. मेरा मतलब गाय भैंस, भेड़ बकरी या जंगली जानवर – कुछ तो होना ही चाहिए था?”

“होना चाहिए था पर नहीं है!”

“क्यों?”

“अत्याधुनिक देश में पशु पक्षियों को भी इतनी छूट नहीं मिलती। हर प्राकृतिक अंश काबू में कर लिया गया है।”

“हूँ!” मैं सोच में पड़ गया हूँ कि अमेरिका का अनुसरण करना गलत है या सही।

“आगे मोड़ पर चाय पीएंगे। अब गाड़ी तुम चलना!” सोफी ने सूचना दी है।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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