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स्नेह यात्रा भाग सात खंड चौदह

sneh yatra

आगे लगे रेडियो से अनवरत संगीत मुखरित होता खाने की कमी पूरी करता लगा है। किसी अजान लय पर मैं थिरकता जाता हूँ, सोफी को मरोड़ देता हूँ और अजीब से हाव भावों से अपनी प्रसन्नता जाहिर करता रहा हूँ। बाहर का सुनसान वातावरण हमें अंदर भरे है जैसे शरीर में कोई हृदय – टिप टिप टिप करता चलायमान हो, क्रिया रत हो और जीवन को एक निरंतरता दे रहा हो।

“अब ..?” मैंने पूछा है।

“रिलैक्स!” सोफी ने बड़े ही मोहक ढंग से कहा है।

“लेकिन कहां?” मैंने फिर पूछा है।

“जस्ट वेट!” कहकर सोफी ने कुछ उलट पलट कर बैठक को बेडरूम बना दिया है। बड़ी टेबुल और सोफा जुड़ कर बिस्तर बन गए हैं।

“वैल डन!” कह कर मैं लंबा लेट गया हूँ।

सोफी ने कुछ मैगजीन निकाल कर पढ़ना चाहा है। मैंने सोफी को अपमानित हुई निगाहों से घूरा है।

“तुम भी कुछ पढ़ लो!” सोफी ने मुझे दूसरी मैगजीन दी है।

“नहीं! हम तो ढाई अक्षर प्रेम का पढ़ेंगे ..!” मैंने कहा है।

“वॉट डू यू मीन?” उसने पूछा है।

“प्रेम का ढाई अक्षर मेरी जान ..”

“ओह यू ..” सोफी के आरक्त गालों को मैं परखता रहा हूँ।

निरंतर प्यार करते-करते भी हममें कोई उबाऊ खिंचाव पैदा नहीं होता। मैं पहले बानी के साथ अन्याय कर जाता था पर वैसा यहां नहीं होता।

“आओ, तुम्हें भी पढ़ाऊं!” कह कर मैंने सोफी को पास खींच लिया है।

सोफी ने उलम कर एक नीला बल्ब जला दिया है। मुखरित होती नीली विद्युत ज्योति हमें शांत सी सुख भरी भावना लगी है।

“चर्र चूं!” अब बिस्तर बोल पड़ा है।

“टूटेगा ..!” मैंने शंका की है।

“अब नहीं!” कह कर सोफी मुझ से आ लिपटी है।

“आज शादी है ना?” मैंने घुमा फिरा कर पूछा है।

“नहीं! आज नहीं ..!”

“तो ..?”

“फिर कभी!” सोफी मुझे मना गई है।

यूं मचलना मुझे अच्छा लगने लगा है। एक कदम के फासले पर खड़े प्यार के पल लंबे कर के ठहर कर जीना अच्छा लगने लगा है!

“देखो! क्या लिखा है?” सोफी ने मुझे कुछ जानने को बाध्य किया है।

“क्या है?”

“पंच तत्वों में मिथुन को भी शास्त्रोचित माना गया है। ये भी शरीर की एक भूख है। इस क्षुधा को भी शांत करने के लिए प्यार और संभोग की जरूरत है।”

“है तो ..!” मैं भी मान गया हूँ।

इसी बात पर राजी हम दोनों एक दूसरे की बांहों में धंस गए हैं। एक दूसरे के अंदर समा गए हैं। कसाव संबल और अजीब लगे हैं। मन प्राण किसी अमरता को पीते रहे हैं और हम चुपचाप निढाल से हुए देखते रहे हैं। शायद आकाश में तारा मंडल खिला है, चांदनी भी छिटकी होगी – पर कौन जाने! मैं अपनी छिटकी चांदनी और टिमकते तारों की कतारें समेट कर सोया रहा हूँ।

सुबह के छह बजे नींद खुली है। अब भी शीतल समीर दुनिया भर की ताजगी में सराबोर सा शरीर को स्फूर्ति देने में जुटा है। एक अनाम सी उमंग मन में भरे मैं जगा हूँ। सोफी अचेत सोई पड़ी है। चाह कर भी मैंने उसके सुख स्वप्नों में विघ्न डालना उचित नहीं समझा है। मैं उठ कर बाहर ठंडी रेत पर उतर गया हूँ।

शहर जैसा भीड़ भड्डक्का यहां कुछ भी नहीं है। कोई गाड़ियों की गुर्राती आवाजें, सिगड़ी और चिमनियों से रिसता धुआं या नालियों से उठती सड़ांध या खांसते खखारते और रोते बिलखते जन मन जैसा कोई उत्पात मचा है। एक मंद-मंद मुखरित होता कलरव कानों को भला लग रहा है। मैं चप्पलें उतार कर ओस से तर रेत पर टहलने लगा हूँ। कोई स्वर्गीय आनंद मुझमें भरता लग रहा है।

अगर अकेले शांत पलों में मानव प्रकृति से जुड़ कर देखे तो ही इस स्वर्गीय आनंद की परिकल्पना संपूर्ण होती है। शायद मन विकारों से कट जाता है, बुद्धि कुछ शुद्ध विचारों की खोज में विचरने लगती है और ताजगी के इस परिधान में बासी और दूषित भाव नहीं उग पाते। तभी तो मैं जन कल्याण, जग कल्याण और त्याग तथा बलिदान जैसी बातों को घुमाता फिराता रहता हूँ। अब भी एक ताज उमंग उठ रही है – चल कर हिन्दुस्तान को अमेरिका बना दूंगा – अमेरिका से भी आगे बढ़ने की होड़ में जुट जाऊंगा और जब तक ये न कर लूंगा दम नहीं लूंगा।

“यू सेलफिश! अकेले-अकेले ही आनंद भोग रहे हो?” सोफी ने मुझे अपने आप से काट कर अलग कर दिया है।

“ओ हेले स्वीट! गुड मॉर्निंग!”

“गुड-गुड मॉर्निंग माई लव!” सोफी ने बेहद प्यार जताया है।

“कम एंड सी – वॉट ए फन?” मैंने नाटकीय ढंग से सोफी को निमंत्रण दिया है।

“तुम्हें तो योगी होना चाहिए था।” सोफी ने रेत पर कूदते हुए कहा है।

“होना तो चाहिए था।” मैंने इस तरह समर्थन किया है जिस तरह अपने भोगी होने में तनिक भी अविश्वास न हो।

“सच दलीप! तुम से मैं बहुत कुछ सीख जाती हूँ!”

“गलत! मैं तुम से सीखता हूँ।”

“गलत! मैं ..”

“गलत! मैं ..” मैंने इस बार चीख कर कहा है।

“ओ यू रास्कल ..” सोफी ने भी मुझे गरिया दिया है।

“यू .. यू .. यू ..” मैंने भी सोफी का साथ दिया है।

“हाहाहा! होहोहो! उफ!”

हम दोनों मिल कर हंसते रहे हैं। हवा की ताजगी पीते रहे हैं और एक दूसरे की प्रशंसा कर के आपस में जुड़ते रहे हैं। कितनी साधारण बात है – प्रशंसा करना पर कुछ लोग ये भी नहीं सीख पाते!

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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