Site icon Praneta Publications Pvt. Ltd.

स्नेह यात्रा भाग सात खंड छह

sneh yatra

“चलो!” सोफी ने लजाते हुए कहा है।

“अब तो चलना ही पड़ेगा!” कह कर मैंने अनु की ओर देखा है।

“अच्छी लग रही है न?” अनु ने मुझे पूछा है।

“एक दम सुपर्ब!” मैंने स्वागत में अंगूठे और कलमे वाली उंगली का छल्ला बना कर कहा है।

“लगता है तुम्हारी ट्रेनिंग है?” मैंने अनु से पूछा है – निगाहें अब भी सोफी पर गढ़ी हैं।

“इसका खुद का शौक है! इसकी शैली ही हिन्दुस्तानी है!” अनु ने जैसे एक सच्चाई को पूर्ण रूपेण मुझे समझाने का प्रयत्न किया है।

“चलोगे भी या ..?” सोफी तनिक खीज कर कह गई है।

“रूप को तनिक आंखों से पी लूं तो चलूं!” मैंने आह भर कर कहा है।

“वाह! वाह! क्या कविता गढ़ी है, मामा जी!” रणजीत ने ताली बजाई है।

अनु और सोफी हंस गई हैं। मैं रणजीत को किसी अनधिकार चेष्टा करते चोर जैसी निगाहों से देखता रहा हूँ।

“चुप बे बदमाश! अभी से तेरी ..”

“देख लो मम्मी जी! मामा जी कैसी गाली बक रहे हैं!” रणजीत ने मेरी शिकायत की है।

मैं सोफी के पास खड़ा एक महक सूंघ रहा हूँ। लगा है रात रानी का पेड़ खड़ा-खड़ा महक रहा है – रात के घनी भूत अंधेरे में कलियां फूल बनती जा रही हैं। पुराने पत्ते पीले पड़ते जा रहे हैं और नई कोपलें फूट रही हैं। कोई गंधी अभी नहीं पहुंचा। भंवरों के समूह सोए पड़े हैं। तितलियां जैसे रास्ता भूल गई हैं और कोई यायावर राह भटक कर इस विरले वन में आ धसा है। उसकी किसमत ..!

“चलो!” कहकर मैं सोफी के साथ हो लिया हूँ।

अनु जैसे मूक निगाहों से हम दोनों के शुभ की कामना करती रही है – बहन होने के साथ-साथ मां की भूमिका भी निभा रही है और किसी अज्ञात डर से आहत लगी मन्नतें मांग रही है – हे भगवान ये रति अनंग की जोड़ी अमर रहे!

“अनु! मेरा इंतजार मत करना!” मैंने बिना पीछे मुड़े कहा है। “देर आए दुरुस्त आए!” मैंने निश्वास छोड़ते हुए सोफी का हाथ भिंच दिया है।

सोफी ने मेरी आंखों में झांक कर नजरें केंद्रित की हैं। अमेरिका में ये ठेठ हिन्दुस्तानी अदा पाकर मैं मन ही मन लाखों देश की देवी देवताओं को शीश नवा गया हूँ और वही अनु की आंखों में भरी मन्नत मांगता रहा हूँ। आदमी या तो अपार दुख में और या अपार खुशी में यों ही भगवान के हाथ जोड़ता है। मैं शायद ऊपर से जितना नास्तिक हूँ उतना अंदर से नहीं।

“पक्की भारतीय लग रही हो – शुद्ध खोए की बनी बर्फी!” मैंने मजाक किया है।

“चुप! ज्यादा बोलोगे तो ..” सोफी ने मुझे धमकाया है।

“जोगिन बन जाऊंगी ..” मैंने सोफी को चिढ़ाया है।

“प्लीज ..” सोफी ने फिर से आग्रह किया है।

“शुक्रिया भी नहीं बोलोगी?” मैंने अपना हाथ सोफी के गिर्द लपेट दिया है।

“बिलकुल नहीं बोलूंगी – इफ यू डोंट बिहेव!” सोफी ने मुझे यूं ही डांटा है।

“एंड आइ विल नॉट बिहेव!” मैंने जोर से सोफी की कमर थपथपाई है।

आंखों में आंखें मिल कर फिर से मेरा मूक आग्रह दोहरा गई हैं। चुपचाप हम दोनों एक दूसरे से बिन बोले कुछ कहते सुनते रहे हैं। प्रसूत विद्युत ज्योति ने न्यूयॉर्क को एक चकाचौंध से भर दिया है पर मेरा मन अब भी रीता है।

शहर से कोई पचासों किलोमीटर दूर सोफी का कॉटेज है। एक दम अकेला – लता गाछों में घिल्लमिल्ल, फूलों के हंसते खिलकते बिरवों से संपन्न एक दम स्वच्छ और साफ सुथरा ये कॉटेज मुझे ऋषि वाल्मीकि के तपोवन में बनी शकुंतला की कुटीर लगा है।

“अकेली रहती हो?” मैंने पूछा है।

“हां!” सोफी ने संक्षेप में कहा है।

“मन लग जाता है?” मैंने फिर सोफी को कुरेदा है।

“हां! और अगले सवाल से पहले बता दूं कि मेरे मन लगाने के साधन क्या-क्या हैं!”

सोफी ने मुझे एक-एक कर गिनाया है – ये मेरे पौधे हैं – साथी ही समझो! देखो! गेंदा, गुलाब, दहेलिया .. मैं इन सब से जुड़ी हूँ। ये देखो कैट्टस! मेरे पास कुल मिला कर कैट्टस की पचास किस्में हैं। घर पर आ कर इन की देखरेख में मन रमा लेती हूँ।

“ओह!” मैं जैसे हार मानने वाला नहीं – पूछा है – घर में टेलीविजन है, रेडियो है और ..”

“और ..?”

“लाइब्रेरी – मेरी अपनी रुचि की किताबों का संग्रह!”

“इन सब में घुलमिल कर क्या हमारा खयाल ..?”

“आता है! और जब ज्यादा तंग करते हो तभी इन में मन रमाने की कोशिश करती हूँ!” कह कर सोफी ने मुझे आंखों में सीधा घूरा है।

“तो हम तंग करते हैं?” मैंने सोफी के समीप खिसक कर दोहराया है।

“हां!” सोफी ने धीमे और मस्त स्वर में इस तरह कहा है जैसे वो मेरा अगला इरादा ताड़ गई हो और मेरा किया वार सह लेने को इच्छुक हो।

“तंग करने की तहमत लगा ही दी है तो ..” मैंने सोफी को आलिंगन में भर लिया है।

इस वसंती शाम की सफलता जैसे मूर्त हो कर मेरी आंखों में सिमट गई है। कोई देव कन्या मेरे स्वागत में अपना सर्वस्व समर्पित कर चुकी है और कोई दिया पूर्ण संदेश अपना लगने लगा है – बीच का परायापन चुक गया है। उद्यान के गेंदा और गुलाब महकते रहे हैं – शायद इसी पल के लिए उग कर बड़े हुए हों और हम पर हंसते रहे हों! तितलियां भी उड़ चली हैं। भौंरे मन्ना रहे हैं और हम दोनों चुपचाप आलिंगन बद्ध प्यार के पल अनभोर में जीते रहे हैं। एक के बाद दूसरा वार – और बीच में सिमटी खामोशी शहर के कोहराम में जीने के बाद अच्छी लग रही है। इतने इंतजार के बाद, एक सबल चाह के बाद और बेधक तनहाई झेल कर जो मैं जी पा रहा हूँ – अपूर्व लग रहा है – नया लग रहा है – जो अब तक कभी नहीं जिआ। इस तरह मन और प्राण से शरीर और कर्म से मैं कभी किसी का नहीं हुआ था। आज क्या हो गया हूँ इसे शायद बाद में समझ पाऊंगा!

“लाइब्रेरी नहीं देखोगे?” सोफी ने छूटने की बे मन कोशिश करते हुए पूछा है।

“पहले तुम्हें तो देख लूं – आंखें ताजा कर लूं और ये विरह की रूह को फूल से सींच ताजा कर लूं .. तो ..”

“कवि बन जाओगे?” सोफी ने मेरी नाक हलके से पिचका कर कहा है।

“यही समझो ..!” कह कर हम दोनों हंस गए हैं।

लगा है बातों का सिलसिला शुरू करके सोफी ने बहते प्यार के प्रवाह में रोक लगा दी है। जो सागर उमड़ता जा रहा था अब अचानक बैठता जा रहा है। शायद सोफी नहीं चाहती कि हम अनभोर में वहां तक बह जाएं जहां कोई सीमा पार हो जाए और लौट ही न पाएं!

मुझे किताबें पढ़ने का यूं शौक नहीं पर कोई सेक्सी उपन्यास या कोई जासूसी उपन्यास जैसा कुछ या कोई अनुवाद पढ़ लेना कभी-कभी संभव होता है। सोफी की लाइब्रेरी में ग्रंथों जैसी किताबें देख मैं डर गया हूँ।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

Exit mobile version