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स्नेह यात्रा भाग सात खंड अठारह

sneh yatra

एक भीड़ ने मुझे चारों ओर से घेर लिया है। प्रश्नों की बौछार मुझ पर इस तरह होने लगी है जिस तरह से उमंग के साथ सावन में बरसात की झड़ी टपर-टपर के शब्दों से भद्र आवाजें करती रहती है।

“किन्नी तरक्की हुई है जी, साडी?” बुढऊ का प्रश्न है।

नयन विस्फारित मैं उसे इस पर घूरता रहा हूँ। किस तरह अपना मन अब भी इस इंसान से चिपका है – मैं देखता रहा हूँ।

“सुना है – पंजाब में अब घर-घर बिजली पहुंच गई है?” एक स्मार्ट लड़की का प्रश्न है जो अमेरिकी पोशाक में सजी-वजी हिन्दुस्तानी है जिसका नमूना फिट नहीं लग रहा है। मैं उसे देख कर चिढ़ गया हूँ। क्या वेश भूषा का भी कोई आदमी कायल हो सकता है? फिर मुझे ध्यान आया है कि मैं स्वयं उसी की तरह एक उधार लिए लिबास में धंसा हूँ।

“हां! पंजाब ने बहुत तरक्की की है। हरियाना तो देश का गौरव बन गया है। उत्तर प्रदेश में भी बहुत अदल-बदल हो चुकी है और यहां तक कि राजस्थान में भी अब बहारें आने वाली हैं।” मैंने संक्षेप में मोटे तौर पर सब को एक गोल माल बात पकड़ा दी है और आशा में आंखें पसारे इंतजार करता रहा हूँ कि कहीं कोई खिलाफत न कर बैठे। अगर भारत में यही कह कर मैं चुप हो गया होता तो शायद ईंटें बरसने लगतीं। पर यहां लोगों के चेहरों पर एक अजीब सा संतोष छा गया है।

“हमने पैंठ और कत्तर दी लड़ाई में धन भेजा था!” एक खालसा कहता रहा है। “हम तो जान देने तक के लिए तैयार हैं। खून में उबाल आने लगता है बादशाहो .. जब ..”

“इन्ना ही नई पुत्तर असी सुभाष नू भी मदद भेजी थी जदों आजादी की जंग छिड़ी थी।” एक फूंस बूढ़े व्यक्ति ने अपनी दाड़ी के सफेद बाल हिला हिला कर वाक्य पूरा किया है।

ये सच्चाइयां हैं जिन्हें हम नकार नहीं सकते। जो भारतीय हैं वो भारत को भूल नहीं सकते चाहे जहां जा बसें। पिछले दो युद्धों में प्रवासी भारतीयों ने अमूल्य सहयोग दिया था – ये सभी मानते हैं!

“वीर जी! तुसी इथ्थों बसन आए हो?” कम उम्र की एक लड़की ने पूछा है।

“नहीं दीदी! मैं .. यानी कि मैं एक बिजनिस मैन हूँ!” हकलाते हुए मैंने कहा है जैसे सच्चाई सटक कर भी उगलने को मन हो रहा हो।

“ये देश छोड़ कर भागने की रिवाज खत्म होनी चाहिए!” एक सपाट जुल्फों वाले युवक ने नारा जैसा बुलंद किया है।

मैं उसे आंखों में घूरता रहा हूँ। मूक व्यंजना में बताता रहा हूँ कि नारे बाजी से काम अब न चलेगा। अब जमाना कदम उठाने का है, अगुआ बन कर दलील नहीं प्रमाण पेश करने का है और एक नई पीढ़ी का है जिसे नए आयाम खोजने होंगे!

“लेकिन आप सब ..?” मैंने अपने मन में बैठी एक शीत लहर को आजाद कर दिया है।

मेरा प्रश्न एक कोहरा बन कर सब पर छा गया है। धन के लोभ में भागते इन सबके गले एक अनाम ग्लानि से भर गए हैं। चेहरे लाल-लाल एक झेंप से पुते हुए हैं। एक अपराधियों जैसा सहम सब को जकड़े है और उन सब की नजरें धरती कुरेद रही हैं।

“यों विदेश भ्रमण या शिक्षा के लिए बाहर निकलना मैं भी बुरा नहीं मानता। यहां आ कर हम लोग कितना सीखते हैं?” मैंने बात साधी है।

लगा है सभी लोग एक धर्म संकट से उबर कर एक स्वच्छंद सांस ले पाए हैं। कटे सूखे पेड़ों पर कोयलें निहार कर राह खिल गई है और आशातीत भविष्य की परछाइयां एक आशा जैसी भावना बखेर कर चुपचाप चली गई हैं।

“अब तुसी परसाद छक के जाना!” मुझे निमंत्रण मिला है।

“यों मैं कौन बिना खाए टलने वाला हूँ।” कड़ा परसाद का स्वाद मेरी जबान पर उभरते ही मैं बोल पड़ा हूँ।

“सरसों दा साग ते मक्के दी रोटी?” सोफी ने पीछे से इस तरह कहा है कि सब की नजरें उसकी ओर उठ गई हैं।

“हां हां पुत्तर! रज के खाना!” हंसते हुए फूंस बूढ़े व्यक्ति ने कहा है।

“आप ..?” मैंने उसका परिचय जानना चाहा है।

“ये भाई गुरनाम सिंह हैं। ये यहां ..” संता सिंह ने मेरा परिचय कराने से पहले अपना नाम बताया है और पेशा भी।

“मैं जदों आया सी तो सारा जंगल सी। अब तुसी वेख लो ..?”

“आप लोगों की ही मेहनत है।” मैंने सभ्य ढंग से इनाम जैसा बांटा है।

“ओ जमाना सी जदों लाला हरदयाल और लाला लाजपत राए आजादी के वास्ते जूझ रहे सी। मैं उनादे गुट दा मैंबर सी। गोरों के जुल्म .. जलियां वाला बाग .. गोलियों की बौछार .. अब भी याद है पुत्तर! पर सब ठीक रहे – सच्चा पादशाह ..”

सजल नेत्रों में सच्चाई भरे भाई गुरनाम सिंह ने अपनी कथा व्यथा सुना कर मुझे जितना आहत किया है उतना खुश भी। सोच रहा हूँ जब वो दिन नहीं रहे तो ये भी नहीं रहेंगे! अब तो भारत उठेगा, चलेगा और हमारी खोज सफल होगी! एक अंकुर फूट रहा है, हर दिन बड़ा हो रहा है और मैं इस अंकुर को अगर आत्माभिमान का नाम दे दूं तो उचित रहेगा!

भाई गुरनाम ने मुझे नहीं छोड़ा है। देसी खान-पीन का बंदोबस्त है। चटाइयों पर बैठने का उपक्रम भी है तो कुर्सी मेज भी लगे हैं। मैं चटाइयों पर जा बैठा हूँ। यों इक्का-दुक्का आग्रह मुझ तक पहुंचा है। उधर बैठिए – पर मैं अनसुनी कर गया हूँ।

रॉबर्ट परिवार, सोफी, मैं और भाई गुरनाम खाने पर डट गए हैं। अमेरिका में भी ये स्वादिष्ट भेजन पा कर मेरी आत्मा जगी सी लग रही है। कितना अपनापन बरस रहा है। उबली सब्जियां खाते-खाते मन ऊब गया था लेकिन आज ..?

“होर की चाहिए दा?” परोसने वाले ने पूछा है।

“लस्सी ते भरा कुतुब मीनार नुमा गिलास!” मैंने हंसते हुए मांग की है।

सभी भोंचक्के बने मुझे घूरते रहे हैं।

“मिलेगा पुत्तर ओ भी मिलेगा!” ग्यानी संता सिंह ने पुकारा है।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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