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स्नेह यात्रा भाग पांच खंड सात

sneh yatra

“लेकिन हम कैसे विश्वास करें?”

“आप सभी इस कैंप में भाग ले सकते हैं।” मैंने बेबाक ढंग से कहा है। मैं अपनी जीत और मास्टर जी की हार पर हंस रहा हूँ।

सारी भीड़ का तनाव रिस सा गया है। जो आक्रोश उनके मनों में भर दिया गया था अब भूमिगत हुआ लग रहा है। हल्के-फुल्के मन से कुछ छोकरे भीड़ से छिटक कर और अलग हो कर उनकी खिल्ली उड़ाने लगे हैं।

“मास्टर पंगे बाज है!” एक ने घोषणा की है।

“साला हरामी है!” दूसरे ने समर्थन किया है।

कितनी श्रद्धा हम में गुरु जनों के प्रति शेष है – ये दो वाक्य बता गए हैं। खोखली दीवारें अब गिरने को हैं। जर-जर हुई ये संरचना अब ज्यादा न जी पाएगी। ये शिक्षा का ढांचा, ये अक्षरी ज्ञान और ये सर्टिफिकेट देने के ठिकाने अब टूट कर ही रहेंगे। कभी शायद कुछ नया उभरे – नए विचार उगें और नवोदित शिक्षा प्रणाली चिंतनशील युवक पैदा कर पाए जो नौकरी के लालच में बिकें नहीं और जो नौकरी मांगने के बजाए नौकरी देने के दिमाग रक्खें।

मास्टर श्याम लाल कुछ झेंप गया है। जो भाषण तैयार करके लाया था वो चुक गया है और उसकी बूढ़ी तर्क शक्ति जवाब दे गई है। सुनी बातें हमें बहकाने लगती हैं जबकि हमारे इरादे हमें खुद मालूम नहीं होते। श्याम लाल जी को भी शायद उनका ठिकाना खुद मालूम नहीं है।

“आप लोग मेहरबानी करके जाएं। जो आना चाहते हैं आ जाएं।” कहकर मैं लौटा हूँ।

कैंप के कुछ रसिक लोग मुझे इस मुकाबले में दूर से देख परख चुके हैं। विजय गर्व से लौटा मैं कोई भारी भरकम व्यक्तित्व वाला लग रहा हूँ। लगा है मेरे मन में भी खोखला पन जगह बनाने लगा है। मैं अंदर से हलका रहा हूँ और किसी अज्ञात मान सम्मान के आवरण में लिपटता जा रहा हूँ। पर मैं इसे स्वीकार नहीं करूंगा। तोड़ कर भागना चाहता हूँ। मुक्त भ्रमण करना चाहता हूँ ताकि कोई भी छोटा पन मुझे फुसला कर दगा न खेल जाए!

“आज रात को भगवान द्रुम लता का योग साधना पर प्रवचन है!” प्रदीप ने कहा है।

“क्या ..?” मैंने चौंकते हुए पूछा है।

“ये द्रुम लता देश देशांतर के भ्रमण से लौटी हैं। आज के युवा समाज की अगुआ और पुरातन गूढ़ सत्यों की खोजा हैं।” प्रदीप ने प्रशंसा की है।

एक उत्सुकता मन में भर गई है। अचानक सोफी के रकसैक से निकला गीता का गुटका मुझे चिढ़ाने लगा है। आज मानव के भविष्य चिंतन के लिए युवतियां कितनी सबल बन रही हैं – मैं सोचे जा रहा हूँ। सोफी कितनी सबल है, कितनी संयत और कितनी आत्मनिर्भर है – ये सोच कर ही मैं घबराने लगता हूँ। उसके आत्मसमर्पण और घिघिया कर प्यार की भीख मांगने वाली स्थितियां शायद पैदा ही न होंगी और मैं ही हार जाऊंगा!

“कब शुरू होगा?” मैंने संक्षेप में पूछा है।

“रात नौ बजे के बाद!” प्रदीप ने बताया है। वह तनिक हंस गया है।

“और उसके बाद?”

“तांडव नृत्य होगा!” उसने उसी मुसकान को मरोड़ कर कह दिया है।

“ये कौन सा नृत्य हुआ भाई?”

“मैं भी नहीं जानता। पर भगवान द्रुम लता जानती है।” वह फिर से हंसा है।

मुझे ये माहौल बहुत ही सजीव और रोचक लगा है। हर कदम नया और हर बात एक खोज लगती है।

अंधेरे में कैंप चितकबरे धब्बों से अपनी शान बघार रहा है। दिन का तापमान गिर कर और एक शीतल पवन झुकरा कर आगे बढ़ जाते हैं। कोई नदी के शीतल जल में तैर रहा है तो कोई पास वाली चपटी पहाड़ी पर जा कर फिर लेट गया है ताकि प्रकृति से प्रस्फुटित होते स्वस्थ तत्वों का सेवन कर सके। मुझे लगा है कि मैं भी इस खुली जिंदगी के मोह में फंस गया हूँ। बिजली कट जाने का डर, पानी बंद हो जाने का भय या कि किचन में गैस बीत जाने पर आई आफत यहॉं नहीं रहती है। यहां इन टुच्ची-पुच्ची चिंताओं और जरूरतों का जीवन गुलाम नहीं बन पाता। नदी का शाश्वत बहाव, पवन के झकोरे, धरती पर बिखरा ईंधन और सुखद धरती का बिछौना मुझे नई खोजें लगती हैं। ये एक भूला अतीत लगता है जिससे भाग कर मानव अब बंद कमरों में जा छुपा है।

घड़ी पर समय देखा है। नौ बजने में और पांच मिनट हैं। मैंने कुछ भी नहीं खाया है। यों कई बार अपने पास पड़े ब्रेड, अंडे, जेम, टमाटर और केले सब के सब याद हो आए हैं। पर जैसे पेट में गांठ लग गई हो और मेरा अकेले खाने का मन ही न हुआ हो। मैं चुपचाप द्रुम लता को सुनने चल पड़ा हूँ।

लोग धीरे-धीरे सिमट रहे हैं। कोई घोषणा नहीं हुई है। कोई मर्दम सुमारी या हाजिरी नहीं लगी और न कोई आने पर प्रतिबंध लगा। अनिवार्यता नहीं है। लोग स्वयं एकत्रित हो रहे हैं। द्रुम लता के आने का समय भी हुआ जा रहा है। मुझे भगवान शब्द जो द्रुम लता के साथ जोड़ दिया गया है बेहद खल रहा है। अपना मत अब भी अंदर समेटे हूँ वरना मास्टर श्याम लाल की तरह मैं भी हार जाऊंगा।

अचानक भीने प्रकाश में एक परछाईं उभर आई है। मैं नैन विस्फरित देखता रह गया हूँ। एक निर्वसन स्त्री का शरीर है। केश राशि कंधों पर झुक कर ठहर गई है। गले में मोटे रुद्राक्ष की माला है तथा हाथ में एक छोटा और अति सुंदर त्रिशूल है। देख कर न शिव जी की कल्पना की जा सकती है और न पार्वती की। पल भर मेरा मन अचकचाया है और फिर सारा कौतूहल पी कर आंखें उस मोहक छवि पर गढ़ा दी हैं।

“आज का विषय योग साधना है!” एक शांत और दृढ़ स्वर में भगवान द्रुम लता ने कहा है।

आवाज में अटूट विश्वास है और शर्म-हया जैसी कोई बात कहीं फटक तक नहीं गई है। सभी भगवान द्रुम लता को घूरे जा रहे हैं। एक चुप्पी भर गई है। कोई व्यक्ति हिला तक नहीं है। भगवान द्रुम लता ने बिना किसी बनावटी उपकरण के ध्यान आकर्षित कर लिया है जो सराहनीय लगा है। एक पल के बाद ही मैं भूल गया हूँ कि वो नंगी है और हेय लग रही है। इस देह का ज्ञान किसे नहीं है? फिर इसी देह को देख कर हम आंख मूंद ले, छी-छी कह कर पीछे मुड़ जाएं या कि सच्चाई को नकार दें, ये न्यायोचित नहीं है।

“योग साधना मन और चित्त की साधना है – जहां सभी शरीर में बसी विपत्तियां स्वतंत्र चिंतन करती हैं।” लड़के जैसी भारी आवाज बचा कौतूहल पी गई है।

“शरीर तो एक वाहन है, रथ है और खुराक पचाने का यंत्र – शोध यंत्र है! मैं और आप मानव हैं – आत्माएं हैं – प्यासी रूहें हैं! ये किसी ईश्वर की खोज में भटक रही हैं।”

कहीं दूर से गीदड़ों के चीखते स्वर द्रुम लता का समर्थन कर रहे हैं लेकिन भीड़ में से कोई नहीं बोला है!

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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