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स्नेह यात्रा भाग पांच खंड ग्यारह

sneh yatra

“मेरे साथ चलो, दिल्ली छोड़ दूंगा!” मैंने पूछा है।

“चलो!” सोफी सहमत हो गई है।

मैं खुश हूँ। लगा है लंबी जुदाई की अवधी थोड़ी छोटी करने में मुझे सफलता मिली है।

मैं और सोफी दो जाने व्यक्तियों की तरह ही यात्रा का आनंद उठाते रहे हैं। सोफी ने ज्यादा कुछ बात नहीं की है। वह किसी खोज में खो गई लगी है और मैं खीजने लगा हूँ।

“क्या किताबों से चिपट गई हो!” मैंने यूं ही कहा है।

“अध्ययन से आदमी का आउट लुक विस्तृत होता है।” सोफी ने मुझे फिर चोभ मारी है। “ये देखो – गुलाग, कितना अच्छा लिखा है।” उसने एक मोटी सी किताब मुझे थमा दी है।

“तुम ने पढ़ ली?”

“हां! इट्स वंडरफुल!”

“तो इसकी कहानी बताओ!”

“नहीं! जो रसास्वादन तुम स्वयं पढ़ कर पाओगे वो सुन कर नहीं!”

रकसैक से निकाल कर वह दूसरी किताब पढ़ने लगी है। मैंने भी बे मन इस किताब को उलट पलट कर देखा है। पढ़ने का तो जी ही नहीं हुआ। मैं तो चाहता हूँ कि एक-आध दिन जो सोफी के साथ हूँ – प्यार में जी जाऊं।

“पढ़ने की कोशिश करो – देखोगे कि ..”

“डिवलपिंग ए टेस्ट?” मैंने वाक्य पूरा कर दिया है।

“हां! यह भी जरूरी है।”

“और क्या-क्या जरूरी है – लिस्ट छोड़ कर जाना .. ताकि ..”

मैं अब लड़ने के मूड में हूँ। मुझे सोफी मनमानी करने से रोक रही है और मुझे किताब पढ़ने को बाध्य कर रही है – जैसे मेरी क्लास टीचर हो। सोफी ने कोई उत्तर नहीं दिया है। वह जान गई है कि अब मैं खुंदक खा कर कुछ भी कर सकता हूँ।

“लंच लाऊं साहब?” वेटर ने पूछा है।

मन तो आया है कि इसे धक्के मार कर बाहर फेंक दूं और भूख हड़ताल पर बैठ जाऊं। पर चुपचाप उसका मुंह ताकता रहा हूँ। सोफी ने ही उसे ऑडर दिया है।

“दो लंच। चिकन, परांठा और पालक कोफ्ता!”

इतना कह कर वह हंसी है। मेरी पसंद की सारी डिशों के नाम जानना और जानकारी पर मुझसे बधाई मांग रही है वो। मैं अब भी मुंह फुलाए अपनी उल्लसित भावनाएं पीता जा रहा हूँ।

“ये क्या? इसे फिर पढ़ लेना!” कह कर सोफी ने किताब मेरे हाथ से ले कर सूटकेस में रख दी है।

“इधर आओ!” मैंने सोफी को पास खींचा है।

सोफी सहज भावों से आकर मेरे ऊपर बैठी है।

“मैं हमेशा तुम्हारे पास रहती हूँ दलीप। लेकिन हवस बुरी होती है। ज्यादा तो खुराक भी खतरनाक होती है।” वह कह रही है।

“मैं प्यासा हूँ!”

“धीरे-धीरे पिओ ना!” कह कर उसने मुझे ठंडा कर दिया है।

आगरा उतरे हैं तो मेरी गाड़ी तैयार मिली है। चमचमाती प्ले फाइव को देख कर सोफी को आश्चर्य होना चाहिए था, मेरे प्रति उदार और प्रशंसा के भाव भरने चाहिए थे और लालची निगाहें पसर जानी चाहिए थीं या वैसी ही कोई प्रतिक्रिया उस पर नहीं हुई है। वह कार में किसी बे लगाव विरक्त की तरह जा बैठी है। मैं ड्राइवर से तरह-तरह के सवाल पूछ कर सोफी को प्रभावित करना चाहता हूँ पर सोफी किसी आग्नेय चट्टान का टुकड़ा जैसी एक रस, एक भाव और निश्चल बैठी कहीं दूर देखती रही है।

“चलें?” मैंने पूछा है।

“चलो!” उसने इस तरह कहा है जिस तरह वह मुझे जानती ही नहीं है।

“अगर चाहो तो क्लाक सीराज में एक रात ..?”

“नहीं!” कहकर एक बार फिर सोफी बिछा जाल लांघ गई है।

बे मन से मैं गाड़ी चलाता रहा हूँ। समझ नहीं आ रहा है कि सोफी को कैसे जीतूं। हर बार सोफी कट जाती है। हर बार वापस आ कर मुझे सिखा जाती है और मेरी हर चाह को नकार देती है। आखिर क्यों?

“शहर की चिल्लपों छोड़ कर मैं जंगल में आ गया हूँ।” मैंने सोफी को बताया है।

“क्या ..? तुम ..” असमंजस में पड़ी सोफी मुझे घूरती रही है।

“हां सोफी! मैं अकेला क्या करता उस विशालकाय मकान में?”

“बाबा की स्टडी और पूजा के पोर्शन में एक अच्छी लाइब्रेरी और रीडिंग रूम बन सकता है।” सोफी ने सुझाव दिया है।

मैं सोफी को अपलक देखता रहा हूँ। क्या सोफी को मेरी किसी भी संपदा से कोई दिलचस्पी नहीं? क्या वो कोरी संन्यासिन है और मुझे भी? महज कंगाली के खौफनाक खयाल से मैं डर गया हूँ। मुझे दरिद्र किसी कुष्ठ रोग की तरह घृणित लगता है। जो लोग इसे ओढ़े पड़े हैं, अकारण ये अभिशाप झेल रहे हैं और दूसरों पर दोषारोपण करके बेशर्मी में मुंह ढांप लेते हैं – बुरे लगते हैं! तभी तो मैं कभी भी किसी भिखारी को दो कौड़ी भी नहीं देता!

“और बाकी के हिस्से में होटल कैसा रहेगा?”

“नहीं, हॉस्पीटल अच्छा रहेगा!” सोफी के पास मानो उत्तर तैयार था।

अब हम दोनों ने एक दूसरे को देखा है। मैंने पलट कर कार की सूई को देखा है। एक दम पैर गैस पर दवाब बढ़ा रहा है और कार खुले हाईवे पर सरपट दौड़ रही है। मैं सोफी को साथ ले कर एअर पोर्ट ले जाना चाहता हूँ। मैं जमीन की रेत को छूना नहीं चाहता क्योंकि उससे प्यार के पवित्र भाव दूषित हो जाएंगे और मोह और लोभ मुझे फांस लेंगे!

“ये सब करके जाओ ना? कहना आसान लगता है पर ..”

एक ऐसा फंदा फेंका है मैंने जिसमें सोफी की गर्दन का फँसना सहज लगा है। त्याग, बलिदान और निस्वार्थ प्रेम ही तो नाम है जो उसने गिनाए थे – मैं दोहरा पाया हूँ।

“ना-ना! मैं न करूंगी!” सोफी बहुत ही अलग-अलग लगी है।

“ठीक है, तो जाओ!” कह कर मैंने रूठ जाने का नाटक दोहराया है।

चुपचाप हम मिल के अहाते से गुजरे हैं। सलाम, राम-राम, नमस्ते, जय हिन्द साब – आदि कितने ही संबोधन एक साथ बरस पड़े हैं। एक चमक, एक उल्लास और एक ललक मैं हर मुसकुराते चेहरे पर पढ़ गया हूँ।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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