मैं और सोफी हाथों में हाथ डाले एक उपराम भाव से कैंप में निकले हैं। जगह जगह पर जलती आग, कच्चे और पीले प्रकाश के अहाते में बैठे कुछ नग जैसे गिना जाती है। रात की स्तब्धता तहस नहस हो गई है क्योंकि एक मधुर सी संगीत लहरी वातावरण में भरने लगी है।
“चलो! बैंड देखें!” सोफी ने आग्रह किया है।
मैं बिना किसी हिचक के चल पड़ा हूँ। आज मैं वही करने पर उतर आया हूँ जो सोफी कहेगी। यह नहीं कि मैं उसका रूप लावण्य न सह कर गुलाम बन गया हूँ पर मैं ये मान कर अनुसरण करना चाह रहा हूँ कि सोफी इस जिंदगी के ज्यादा राज जानती है और उसका साथ निभाने के लिए मुझे भी यह सब जान लेना आवश्यक है।
“ये है इंटरनेशनल टै:पै:!” सोफी कह कर हंस गई है।
“नाम तो सुंदर है।” मैंने भी हंसी में शामिल होते हुए कहा है।
बैंड वास्तव में ही इंटरनेशनल लग रहा है क्योंकि इसके चयन में हर मेंबर एक मुख्य प्रतिनिधि की भूमिका में अपने देश के किसी जनसाधारण के वाद्य यंत्र को बजाने का जिम्मा उठाए है। और जब ये सब ध्वनियां मिलकर बजती हैं तो मन से – जन गण मन अधिनायक की ध्वनियां बजने लगती हैं जिससे चिंता संतप्त मेरा माथा किसी शीतलता का स्पर्श कर जाता है और मेरे संकीर्ण विचारों का ज्वार उतर जाता है।
एक अद्भुत मेल है। अनोखी रचना और गजब का ताल मेल अलग अलग वाद्य यंत्र, अलग अलग धुनें और ढंग पर सब मिल कर गा बैठे हैं – जैसे नफरत और स्वार्थ की दुनिया से कह रहे हों, अलग बस गए हों और कोई अमर संदेश पुरवाया पवन में भर रहे हों – मानव जाति एक है, मानव धर्म एक है, जीने के लक्ष्य छोटी ऊबट बटियाओं से उठ कर एक ही महा मार्ग में आ मिलते हैं! फिर भटकन क्यों?
“लगता है विश्व के अंतर यहां आ कर मिट जाते हैं!” मैंने कहा है।
“यही उद्देश्य है इन लोगों का। और ठीक भी है। ये जो ड्राजू है ना – नीग्रो, जब गिटार बजाता है तो मन चुरा लेता है।”
“सच ..?” मैंने इस तरह पूछा है जिस तरह कोई चोर पकड़ने को घात में आ बैठे।
“तुम भी सुनोगे तो यही मानोगे – जालिम क्या बजाता है – गिटार!”
“तुम्हें कैसे मालूम?”
“यहां क्या है – मुझे सब मालूम है!” सोफी ने मेरे दिल पर हाथ रख कर कहा है। “और उस तरफ देखो – हमारे ही देश में ये बेचारे नीग्रो ..?”
सोफी चुप हो गई है। लगा है कमजोर और निर्बल जाति के साथ होते अत्याचार उसे भी खलते हैं।
“और कुछ नहीं दिखाओगी?” मैंने आग्रह किया है ताकि गंभीर होकर सोफी कैंप में मजे लूटने का ध्येय खराब न कर दे।
“चलो देखते हैं।” उसने ध्यान तोड़ते हुए मुझे आगे खींचा हैं।
एक चार पांच का गुट घुप्प अंधेरे में बैठा नशा कर रहा है। जब भी चिलम में कस कर दम लगाता है कोई तो चिलम में एक दो तीन इंच लंबी लौ फूट जाती है। जैसे इस लौ के सहारे वो चिंता को फूंक कर राख कर रहे हैं और चिलम से मस्ती चूंस रहे हैं।
“दम लगाओगे?” सोफी ने पूछा है।
“तुम लगाओगी?” मैंने प्रति उत्तर के तौर पर ही वार बचाया है।
उसने फिर मुझे घूरा है। लगा है ये मेरे पक्ष का बचाव मुझे एक दम आधा कर गया है। इसका मतलब साफ सोफी परख गई है कि मैं अभी तक कोई भी स्वतंत्र विचार धारा अपने अंदर बना नहीं पाया हूँ। अजान बच्चे की तरह देख, सुन और उत्प्रेरित होकर ही दुनिया में दो चार कामों को सर अंजाम देता रहता हूँ। एक समूचे मानव जीवन को इस तरह ढोना सोफी को बुरा लगा है।
“मैं क्या करती हूँ – यही जानने आए हो?” उसने चिढ़ कर कहा है।
“नहीं नहीं सोफी! चलो, लगाते हैं दम। देखते हैं ..” मैंने घिघिया कर ही कहा है। सोफी को इस तरह नाराज करने के अंजाम मैं दोहरा गया हूँ।
“हेएए! हमारा नम्बर!” कहते हुए सोफी धम्म से बैठ गई है।
“लो! खींचो!” कह कर उसने चिलम को मुझे पकड़ाया है। और अपने अंदर खींचे धूंए को खाती रही है। सोफी के मुंह से रिसता धुआं अंधेरे में भी झाईं सी मार रहा है।
मैंने अनाड़ी की तरह चिलम को ऊपर से छू लिया है और हाथ झटके से अलग हो गया है।
“जल गए?” सोफी ने हंस कर पूछा है। “अनाड़ी हो ना?” उसने कह कर चिलम को पकड़ने का सलीका बता दिया है।
चिलम के गिर्द लिपटी तार तार गंदे कुचेले कपड़े से एक मादक गंध रिस रही है। मैं कड़ा मन कर के चुस्की लगा गया हूँ। एक हथौड़ा जैसा सर में जा लगा है। धुआं बाहर आया है तो खांसी उठी है। धुल्ल धुल्ल और खुल्ल खुल्ल! वहीं बैठा जमघट मुझ पर हंस गया है। बेचारा अनाड़ी है – उनका मत है।
“चलो!” सोफी चल पड़ी है। वह टिकना नहीं चाहती। कोई चाह उसे भी खींचती लग रही है।
हम दोनों चले जा रहे हैं कि सहसा मैं थक गया हूँ।
“अरे ये क्या ..?” मेरी जबान लड़खड़ा रही है और मैं जानता हूँ कि ये चिलम की मस्ती सिमट कर अब मुझे मस्त बना रही है।
“देखोगे?”
“हां हां!”
“तो आओ!” कह कर सोफी और मैं दो काले जमीन पर बिछे उपकरणों को देख रहे हैं।
कुछ हरकतें पल छिन ठहर कर हो जाती हैं। कुछ तेज तेज सांसें चल कर शांत हो जाती हैं। एक जोर का उफान दो ऊपर वाली वस्तुएं पलट जाता है तो कभी कभी कोई ज्वार सा आ कर ठहर जाता है। कटर कटर छूई मूई सा कुछ टूट जाता है – किए जुर्म की जैसे सजा पाकर समाप्त हो जाता है!
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड