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स्नेह यात्रा भाग पांच खंड दो

sneh yatra

“क्या है?” मैंने घुस पुस आवाज में पूछा है।

“का-का – प्रणय लीला!” सोफी अबोध बालिका जैसी बैठी रही है।

मेरा भी अर्धांग गरमाने लगा है। मैं भी अब सूखी पत्तियां रौंद डालना चाहता हूँ। सोफी के चेहरे को इस तरह घूरने लगा हूँ मानो अभी दांत गढ़ा कर बैठा रहूँगा। सोफी ने भी मेरा कौतूहल ताड़ लिया है।

“और देखोगे?”

“हां!”

“तो देखो!” कहकर उसने उन कलाकारों का कंबल खींच कर आवरण विहीन कर दिया है। “देखो!” कह कर वह मुझे ललचाई आंखों से देखती रही है।

दो नितंग नंगे शरीर। आदम जात – आपस में लिपटे मदहोश उद्भ्रांत और पत्तियों के बिछौने पर एक हुए पड़े हैं। पहली बार मैं ये अलग से देख रहा हूँ पर इस लीला का पात्र नहीं हूँ। ये सब सुना, जाना, पढ़ा और किया कराया है। पर फिर भी जो भाव उभर रहे हैं वो अजान हैं।

“पुच्च! पुच्च!” चुंबनों की आवाज।

“ढीला और कसता कसाव, तनी-खिंची मांस पेशियां, लुढ़कते शरीर और हमारी उपस्थिति से सरोकार नहीं रखते। मैं यह जान कर विश्वास नहीं कर पा रहा हूँ कि इस तरह भी ..”

“यही सच्चा प्रणय है। यहां कृत्रिम स्वार्थ नहीं टिक पाता है। दुनिया के वैभव में प्यार नहीं पलता।”

“पर .. ये तो वासना ..?”

“नहीं! ये प्यार की दूसरी स्टेज है!” कहकर सोफी ने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर भींचा है। “कैसा लग रहा है?”

“जी कर रहा है!” मैंने खुल कर बेबाक ढंग से पहली बार कहा है। ये शायद नशे का असर है।

“चलो, अब चलें!” उसने कहा है।

“और देखो!” दो शरीरों में से एक बोला है – पुरुष है।

एक हंसी छूटी है। वो दोनों बैठ गए हैं। हम दोनों भी बैठे हैं। हंसी – जोर जोर की हंसी। मैं भूल गया हूँ कि वो दोनों निर्वसन हैं। लगा है कि मैं भी नंगा बैठा हूँ – और आदम और ईव हंस रहे हैं। कोई सच्चा कथन मन में भरता जा रहा है!

“आओ, चलें!” साफी ने मुझे घसीटा है।

हमने अन्य कई ठिकाने भी टटोले हैं। सभी भिन्न भिन्न प्रकार की कुंठाएं पीते, गम भुलाते, रास लीलाओं में मस्त युवक युवती यहां खेल खिलवाड़ों में व्यस्त हैं। एक नई दुनिया लग रही है। शीतल पवन के झोंके धर छूटे हैं। घड़ी पर समय देखा है। चार बजे हैं। कितना मोहक हो उठा है खुला प्रकृति का प्रांगण। कितना सुखद और गुणकारी वक्त है – बखान नहीं हो सकता।

मलय पवन के साथ प्राची में मद्धिम उजास जैसे धरती के गर्भ से फूट रहा है। दसों दिशाएं सजग और अनंत लगने लगी हैं। एक अभय, स्फूर्ति, स्वस्थ चाह, पवित्र भावनाएं और भावों के भंडार जैसे खुल गए हैं। अश्विनी कुमार नदी तट पर जैसे हर रोज की तरह दवा बांट रहे हैं। और जो अपान वायु घुटन पैदा कर रही थी अब किसी शुद्ध करने वाली औषधि की गंध से भरी है।

“सोफी!” मैंने सोफी को बांहों में भर लिया है।

हम दोनों एक दूसरे की सांसें गिनते रहे हैं। मेरा दिल रेस के घोड़े की तरह टपर टपर टापें बजाता सरपट दौड़ रहा है। सोफी ने मुझे रोका नहीं है।

“ओ स्वीट! स्वीट .. सोफी माई डार्लिगं!” शब्द अस्फुट आवाज में मुखरित होते रहे हैं और बीच का अंतर रिताते रहे हैं। हम दोनों भी न जाने क्या क्या संज्ञाएं बखानते रहे हैं।

बदन का ज्वालामुखी फिर उफान लेने लगा है। सोफी जो कभी बर्फ का टुकड़ा था अब बर्फीला विस्तार न रह कर मेरा ज्वालामुखी का एक अंग बन गई है। लावा हमारे अधरों से रिस रहा है और हम दोनों एक दूसरे को चूमते जा रहे हैं। मैं सब कुछ भूल गया हूँ। मैंने सोफी को सूखे पत्तों पर पटक लिया है। कई बार उलट पलट कर पत्ते रौंदे हैं। घास को पीसा है और जमीन से रिसती स्वस्थ गंध का हम दोनों पान करते रहे हैं। सोफी के शरीर से उठती गंध और मादक बन गई है। लगा है मैं विचलित हो उठा हूँ ..

“नॉट नाओ!” वही वाक्य फिर बीच में कोई जुड़ा कच्चा धागा खड़ा कर गया है।

सोफी ने कसाव ढीला किया है और स्वतंत्र होने में उसे मेरा इंतजार है। लेकिन मैं अब भी जुदा नहीं होना चाहता। वह मुक्त होकर खड़ी हो गई है। मैं अब भी जमीन पर पड़ा, सोफी की सुगंध फेफड़ों में भर कर एक संबंध जोड़ लेना चाहता हूँ।

“चलो, उठो!” सोफी ने आदेश दिया है।

“नहीं!” मैं अड़ियल बन कर पड़ा रहा हूँ।

“क्यों?” उसने बिगड़ कर पूछा है। लगा है हमारा प्यार पक्का हो गया है। तभी तो सोफी बिगड़ी है, खुली है और मुझे साथ ले लेना चाहती है।

“मुझे .. और चाहिए!” मैंने सपाट मांग सामने रख दी है।

“और भी मिलेगा! अब चलो भी!” एक मोहक आग्रह है सोफी का जो मुझे गुलाब जामुन के गिर्द चढ़ा मुरब्बा लगा है – एक दम मीठा।

सोफी ने हाथ पकड़ कर उठाया है। मैं एक अद्भुत प्यार और सम्मोहन से भर गया हूँ। कोई परमानंद जैसी अनुभूति स्मरण हो आई है। अगर कमरे के बंद पलों को गिनूं तो नफरत उपजेगी पर ये पल – खुले खुले प्रकृति के बीच जिए ये पल क्या कभी भुला पाऊंगा।

“कब मिलोगी?” मैंने पूछा है।

“अभी – चलो भी!” सोफी ने दीवार से मेरे अचल शरीर को हल्का सा धक्का दिया है।

कैंप में जहां तहां जगार पड़ गई है। चाय कॉफी उबाली जा रही है। सिगरेट जुगनुओं के मानिंद जहां तहां मुंह चमका कर कसी आदि अनाड़ी का ध्यान करा जाती हैं। हम चल पड़े हैं। सोफी नदी की ओर खींच रही है। मैं उसके शरीर से सटा सटा घिसट रहा हूँ।

मेजर कृपाल वर्मा

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