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स्नेह यात्रा भाग पांच खंड दस

sneh yatra

बचे छह दिन में सोफी के साथ जिया हूँ। खाद्य समस्या, बेकारी की समस्या, फैलता प्रदूषण और घटते चारित्रिक स्तर आदि विषयों पर लंबी-लंबी वार्ताओं में सोफी ने और मैंने मिलकर योगदान दिया है। हमारे विचारों में एक विकट सामंजस्य है और इरादों में बला की दृढ़ता। सोफी मुझे अन्य औरतों से भिन्न लगी है – जिन्हें मैं जानता हूँ, उनसे नफरत करता हूँ और जिनकी मुझे खोज है – शायद अभी और एक-आध पीढ़ी खपा कर ही पैदा होंगी!

स्नेह यात्रा के कैंप का आगामी सम्मेलन पांच साल बाद होना चाहिए पर मैं इस विचार से सहमत नहीं हुआ हूँ।

“ये हर साल क्यों नहीं हो सकता?”

“लोगों को बाहर से आने में परेशानी होती है।”

“पैसे की?” मैंने गरज कर पूछा है जैसे इस कमजोरी का गला मेरे हाथों में दबा हो।

“पैसे के अलावा हम लोगों को बाहर समाज में धंस कर महसूस करना पड़ता है। कंगाली और गरीबी के पल जीने भी पड़ते हैं और समाज के अंतरंग में झांकने के लिए उन का दिल भी खोजना पड़ता है।”

प्रस्ताव प्रदीप का है। प्रदीप मुसकुरा रहा है। इस अधेड़ सी उम्र में वह कितना जमीन में अंदर तक सरक गया है – मुझे आश्चर्य होता है। ठीक कोई देव पुत्र जैसे आश्रम में शिक्षा पा रहा हो। हर तरह की गरिमा पी रहा हो और सूर्य जैसा तेजस्वी बन कर चमकने का अटल विश्वास उसमें भर गया हो!

“इसके लिए हम अपने सदस्यों की संख्या बढ़ा सकते हैं।”

“लेकिन इसके सदस्यों का कोई लेखा-जोखा नहीं रक्खा जाता। जो चाहे आए और जो न चाहे न आए। हां हर देश में हमारा एक प्रतिनिधि जरूर है जो इस संस्था का एक अभिन्न अंग है।”

“बस तो इस जमे पैर पर हम खड़े हो सकते हैं।” मैंने मांग की है।

एक चुप्पी छा गई है। अविश्वास का वातावरण फैल गया है और मैं ताड़ गया हूँ कि मेरे अंदर वही जिद्दी दलीप जाग उठा है जो अब किसी की बात न सुनेगा और अपना प्रस्ताव मनवा कर ही रहेगा।

“लेकिन ..?”

“इसकी जिम्मेदारी मैं लेता हूँ। विश्व शांति और विश्व कल्याण का ये काम तेजी से पनपना चाहिए। अपने ही जीवन काल में यदि हम इसको फलते-फूलते न देख सकें तो क्या फायदा?”

वही महान बनने का लालच मुझे अंदर से खुरच-खुरच कर रीता करता रहा है। मैं कहीं अनंत में भाग कर शांति और सुख पा जाना चाहता हूँ ताकि खड़ा-खड़ा हर दुखियारे को सुख बांट दूँ और हर आंदोलित मन में शांति भर दूँ। कितना अच्छा लगेगा जब विश्व एक सूत्र में बंध जाएगा! बीच की खाई पट जाएंगी, वैमनस्य चुक जाएगा, युद्ध की संभावना किसी शून्य उपक्रम में भटक रही होगी और सभी धर्म, जाति और भाषा समान रूप से पनपेंगे। बड़ी मछली छोटी को क्षमा कर देगी और छोटी मछली उसका आभार मान लेगी।

“आप जो कहें उसमें हमें आपत्ति कहां? ये काम तो उठाना ही पड़ेगा फिर विलंब क्यों? पीचो ने समर्थन दिया है।

इसके बाद सारी जिम्मेदारियां ओट कर मैंने अपनी झोली में काम समेट लिया है। अब मन से सारे व्यसन रित से गए हैं और मैं रात दिन काम में जुट जाना चाहता हूँ।

“कैंप तो खत्म हुआ अब कहां?” मैंने सोफी से पूछा है।

“वापस जाऊंगी!” सोफी ने सहज भाव से कहा है।

मैं उसे अपलक देखता रहा हूँ। उसका जाना आज खलेगा जबकि खो जाना नहीं खला था। मन में आया है कि एक बार अंदर के जिद्दी दलीप से सोफी को रोक लेने को कहूँ पर सहम गया हूँ। शायद अभी वो स्थिति नहीं आई जब मैं सोफी पर अधिकार जता पाऊंगा!

“क्या जरूरी है?” मैंने कारण जानना चाहा है।

“हां!” सोफी अब घास के तिनके से जमीन कुरेद रही है। पलकें नीचे ढाल कर निगाहें चुराने से मुकाबला करती रही है ताकि हंस न जाए।

“मैं .. यानी मैं अकेला?” मैंने अधीर आवाज में कह दिया है।

“जो अकेला नहीं रह सकता – वह कमजोर होता है।” उसी गंभीर मुद्रा में वह बोली है।

“मैं कमजोर हूँ। बहुत कमजोर हूँ सोफी। अब क्या धरा है?” निश्वास निकल गई है मेरी।

“अकेले में खेलो तो ..?”

“साथ-साथ क्यों नहीं?” मैंने अपना मंतव्य साफ किया है।

“भटक जाओगे दलीप। वासना वहां ले जाएगी ..” बहुत ही आहत हो कर उसने कहा है।

लगा है सोफी भी मुझसे बिछड़ना नहीं चाहती पर उसकी कोई चाह, कोई आदर्श या कोई इरादा उसे खींच ले जाना चाहता है।

“इस बहाव में कोई आनंद नहीं है?”

“भ्रम है, धोखा है! चंद दिनों के बाद ही तुम्हारा मन मुझसे भर जाएगा और मैं तुम से तंग आ जाऊंगी। उसके बाद हम प्रेमी के स्थान पर दो झगड़ालू और अधकचरे इंसान की संज्ञाएं ओढ़ लेंगे।”

“इसका विकल्प क्या है?”

“जो प्यार उगा है उसे पलने दें!”

“कब तक?”

“जब तक हमें प्यार के सभी नाम जबानी याद न हो जाएं!”

“कौन से नाम?”

“प्यार, श्रद्धा, बलिदान और त्याग – सम्मोहन और हमारे कर्तव्य!”

“और ये तनहाई?”

“यही तो पकाती है प्यार को – शनै-शनै किसी अबे की आग की तरह दिनों, महीनों और सालों तक निरंतर कच्चे मनों को तपा कर सुर्ख कर देती है।”

“इसकी कोई अवधी!”

“अनाम है। कहते हैं जितने कट्टर मन हों उतना ही तनहाई का समय लंबा होना चाहिए!”

“कितना लंबा?” मैंने डर कर पूछा है क्योंकि अपने मन की कट्टरता सहसा मुझे याद हो आई है।

“डिपेंड्स!” कह कर सोफी ने अपनी नजरें मेरे साथ मिला दी हैं।

लगा है अब उसके पास कुछ कहने सुनने को शेष नहीं है।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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