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स्नेह यात्रा भाग नौ खंड सोलह

sneh yatra

एक पल मैं और शीतल एक दूसरे को आंखों में घूरते रहे हैं। शीतल के और मेरे मन में उठी कामी टीस किसी नफरत और निराशा में परिणत होती लगी है। शीतल के चेहरे पर बिखरा आह्लाद, आरक्त गालों से रिसता लावण्य और आंखों में खजाने बने इरादे सभी छोड़ते लगे हैं और उसका चेहरा जर्द पीला निकल आया है।

“कपड़े पहन लो!” आदतन हुक्म जारी कर मैं बाहर बार पर आकर बैठ गया हूँ।

खजुराहो के चित्र खिलखिला कर हंसने लगे हैं। दूर से आती ड्रम की आवाज पर लगा है ये तांडव नृत्य करते-करते मुझे भी नाचने को बाध्य करेंगे। मेरी आंखों के सामने सब कुछ धुंधुआता लग रहा है। एक कुहासा मुझे इन चित्रों को और शीतल को एक दूसरे से पृथक कर डालना चाहता है। पलकें भारी-भारी कोई मनों का बोझ सा लग रहा है। सारा स्नायु मंडल अचेत सा पड़ कर सो जाना चाहता है। सब कुछ उलटे-पुलटे चक्करों में घूमने लगा है। शायद मैं दारू ज्यादा पी गया हूँ या कि आज नशा ही ज्यादा चढ़ गया है।

“दारू डालो!” शीतल ने मेरे कंधे पर हाथ मार मुझे हुक्म दिया है।

मैं बिना हीलो हुज्जत के दारू डालता-डालता शीतल के आहत अहम को घूरता रहा हूँ। फिर वही चक्कर शुरू हो गए हैं। शीतल घूम गई है और मैं स्टूल से गिरते-गिरते शीतल ने संभाल लिया हूँ।

“थैंक्स! तुमने गिरते को उठा लिया।”

“थैंक्स! तुमने उठते को गिरा दिया।” शीतल ने वाक्य के शब्द उलट कर अर्थ बदला है।

“गलत! एक दम गलत! शीतल, यू नो सच्चे और संतोष की जिंदगी में ही सुख है। ये कष्टदायक सफर है पर धीरे-धीरे आत्मा पर लदे मैल को साबुन की तरह धोते रहते हैं। कष्टों में आत्मा तप कर निखर जाती है। एक बार इस कमीने मोह को जीत कर देखो शीतल। लगेगा शरीर किसी धातुओं का खोल है और आत्मा से लिपट गया है।

“उठना गिरना तो भ्रम है, प्रिंस! हाहाहा! अब मुझे देखो कितनी उठी हूँ? कहां से चली हूँ और कहां पहुंची हूँ। कभी मैं भी उठने को पागल हो गई थी। कंगाली से जूझने की कसम खा ली थी और अब धन, दौलत और ऐशों आराम – सब कुछ पा कर भी लगता है कंगाल हो गई हूँ। और जो शेष था वो तुमने आज पूरा कर दिया!”

“अब भी संभल जाओ शीतल! इट्स नैवर टू लेट!”

“नहीं दलीप! मैं अपने पाले व्यसनों से लड़ नहीं पाती। बिना नशा के जी नहीं पाती, बिना तोड़ फोड़ और खून खच्चर देखे मन शांत ही नहीं होता। हर इंसान से एक बदला सा चुकाती रहती हूँ। एक प्रतिकार के रूप में ही ये सब समाज में करती हूँ। जानते हो क्यों?”

शीतल भावुक है और मन की सच्चाइयां उगल रही है।

“इसलिए प्रिंस कि इसी समाज ने मुझे छला है। इन्हीं घिनौने लोगों ने मुझे देवी स्वरूप से ये वेश्या रूप दे दिया है और आज ..? छी-छी कहां से लौट रही हूँ?”

“लेकिन मैं तो?”

“तुम ..? हाहाहा! तुम तो ..? लाओ, भरो गिलास! शायद तुम्हें माफ देती! पर अब दिल में एक फूटी हांडी का तुम क्या कर पाते। चोट मारते हो प्रिंस?” शीतल के अंदर की नागिन सजग होती लगी है।

“मैं तुम्हें छोड़ आता हूँ।” मैंने अपने होश संभालते हुए जिम्मेदारी के प्रति वफादारी के सबूत देना चाहा है।

“मैं मौका दूंगी तभी न? तुम भी तो कहां मौका देते हो। तुमने तो कह दिया – यू ब्लडी बिच! चलो, सच्चाई तो उगली। पर तुम भी तो कोरे नहीं हो? अपने आप को भी तो कोई नाम दे लेते?”

“होश में आओ शीतल!” मैं अब तक अपने होश संभाल कर बोला हूँ।

“मैं हूँ नाम और तुम्हें भी नाम की जरूरत है। पुराने नामों से तो पुराने हुए ..”

“पागल हो गई हो शीतल?” मैंने खिसिया कर झुंझलाहट भरी आवाज में कहा है।

“हाहाहा! पागल ..? मैं पागल हो गई हूँ – यू ब्लडी सन .. ऑफ ए ..” शीतल ने कस कर मेरे गाल पर तमाचा जड़ दिया है।

“शीतल ..?” मैं गरजा हूँ। मेरे पैर अभी भी अस्थिर हैं।

“लप्पड़ का जवाब लप्पड़! मेरी लाज शरम तो कब की लुट गई! लेकिन अब मैं हर झूठी इज्जत में लिपटे मुंह पर थूकूंगी – थू!”

शीतल एक भद्दा और भोंड़ा अभिनय करने लगी है। मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करूं। शायद शीतल अब अपनी महत्वाकांक्षाओं की लाश पर आखिरी बार रो रही है। पता नहीं क्यों मेरे मन में उसके लिए एक सहृदयता उदय हुई है। यह जान कर भी कि शीतल मेरी सब निराशाओं का मूल है मैं उससे घृणा नहीं कर पा रहा हूँ। वो तो उठने को चली थी पर विधि का विधान शायद उलट नहीं पाई! शीतल मुझे मात्र एक चलती फिरती लाश लग रही है जो टूटे इरादों और मिटी महत्वाकांक्षाओं का भार उठा नहीं पा रही है।

“ये क्या ..? कपड़े ..?”

“कहा ना! मैं पागल हूँ!” उत्तर में शीतल अपने कपड़ों को कत्तर-कत्तर किए दे रही है।

“शीतल!” मैंने उसे रोकने की गरज से हाथ आगे बढ़ाया है और उसकी दोनों कलाइयां पकड़ ली हैं।

“हरामखोर ..! नीच ..! यू स्वाइन .. तेरी ये हिम्मत ..? बचाओ ..! बचाओ ..? हाय राम .. मेरी इज्जत ..”

जोर जोर की चीखो पुकार से रात का शांत वातावरण अवगुंजित होता लगा है। मेरे प्राण सूख गए हैं। हतप्रभ सा मैं शीतल को देखता ही रहा हूँ कि दरवाजे पर चोटें पड़ने लगी हैं। लोगों का हुजूम अंदर भर गया है। मुझे मारने लगा है – लात घूंसे पड़ने लगे हैं। थप्पड़, गालियां, बालों की खिंचाई और फर्श पर पड़े-पड़े पूरे शरीर की रुंदाई और माथे से टपकता खून! और फिर जीने की सीढ़ियों पर लुढक-लुढक जाता शरीर मुझे कष्ट पहुंचा रहा है। किसी भी चेहरे को पहचान पाना संभव नहीं हो पाया है और मैं एक निरासक्त तिनके सा सागर की उत्तुंग तरंगों पर जा चढ़ा हूँ। कोई आरोह तो कोई अवरोह – कोई थपेड़ा तो कोई उथल-पुथल! सभी को सहता झेलता मैं किसी गफलत में पड़ा-पड़ा उठने का प्रयत्न करने लगा हूँ।

“मर गया साला कुत्ता!” एक मोटी आवाज ने घोषणा की है।

लोग मुझे छोड़ कर चले गए हैं। शीतल तो न जाने कब की जा चुकी है। मैं धूल धूसरित शरीर में दुबका कोई कापुरुष हूँ जो अब भी उठ नहीं पा रहा हूँ। मुक्ति ने आ कर मुझे सहारा दे कर उठाया है और बिस्तर पर डाल दिया है।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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