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स्नेह यात्रा भाग नौ खंड पांच

sneh yatra

“प्रलय तो नहीं आ रही?” मैंने इस तरह पूछा है जैसे मैं इंतजार में आंखें बिछाए बैठा हूँ।

“आ भी जाए तो ताज्जुब नहीं सर! आई मीन ..”

“आत्मीयता का अंधकार बढ़ रहा है, संस्कार गिर रहे हैं और ..”

“दुख होता है सर! ये बेचारे पंछी किस तरह मूक रह कर सब कुछ सह लेते हैं। सच मानिए सर ये भोली चिड़िया गौरैया मुझे पहचानने लगीं हैं। मेरी पदचाप सुन कर इस तरह चिंचुआती हैं मानो गले मिलने की रस्म अभी-अभी पूरी हुई हो।”

“प्यार से ही प्यार उपजता है, मुक्ति! और फिर तुम भी तो ..!”

“सच कहता हूँ सर अगर मेरा बस हो तो खुद पंछी बन कर उड़ जाऊं!”

“और अगर पिंजड़े की पकड़ में आ गए तो?”

“तो ..?” मुक्ति का आरक्त चेहरा एक अजीब सी लज्जा से भर गया है।

हम दोनों पिंजड़ों में कैद पंछियों को निहारते रहे हैं। किस कदर उड़ान भरने में समर्थ होकर भी ये उड़ नहीं सकते। गहरे नीले आकाश के गर्भ में समा जाना उन्हें मना है और उनकी जन्मजात स्वतंत्रता कारावास में बदल गई है।

“मोटी चिड़िया का क्या हुआ?”

“बस सर! चल रहा है!”

“फोटो शोटो तो दिखाओ यार?” मैंने बहुत ही खुल्लमखुल्ला ढंग से मांग सामने रख दी है।

“कोई खास नहीं सर! सीधी सादी लड़की है।”

“पर पसंद तो तुम्हारी ही है?”

“मां की भी पसंद साथ में है सर!”

“क्यों? भाई ये तो ..”

“मैं बहुत महत्वाकांक्षी हूँ सर! मुझे सीधी सादी बीबी चाहिए!”

“लेकिन तुम्हारी सोसाइटी .. समाज ..?”

“मुझे बीबी अपने लिए चाहिए सर! ऊपर का काम .. आई मीन ..” मुक्ति ने एक बहुत ही विषैली मुसकान बखेर दी है।

मैं जानता हूँ मुक्ति का इशारा उन लोगों की तरफ है जो बीबी को नौकरी बनाने के लिए ले आते हैं। औरों पर इंप्रेशन बनाने के लिए बीबी बिगाड़ लेते हैं। अपनी कमजोरियां छिपाने के लिए बीबी को चादर की तरह तान कर पीछे हो जाते हैं।

“तभी फोटो नहीं दिखा रहे हो?”

“इस मामले में तनिक कंजूस हूँ सर!” मुक्ति अब हंस रहा है।

मैं और मुक्ति हंसते रहे हैं। चिड़ियाओं की चहक के साथ मिली हमारी असहाय सी हंसी मुझे कहीं दूर खींच ले गई है। लग रहा है मैं अभी भी प्रसन्न नहीं हुआ हूँ। सोफी का फोटो अभी भी मेरी जेब में जब्त है और प्यार के पैंतरे पर मैं भी चुस्त खड़ा हूँ। मैं भी सोफी को ..! में मन ही मन सोफी को याद कर रहा हूँ और सोफी का फोटो मेरे सीने से और भी सटता लगा है।

मुझे अच्छी तरह याद है कि आ ही गोपाल की बेटी की शादी है पर मुक्ति ने मुझे याद दिलाने की भूल कर भी चेष्टा नहीं की है। यों मैं भी कई बार भगवान से प्रार्थना कर गया हूँ इस मुहूर्त को टाल दे पर वैसा अभी तक कुछ नहीं हुआ है। मैं कई बार मुक्ति को बताने को हुआ हूँ कि आज चलना है, चेक बना लेना! पर पता नहीं क्यों एक झिझक का होकर रुक गया हूँ। मेरी अंतश्चेतना कोई गड़बड़ घोटाला जैसी स्थितियां सूंघ कर कई बार लौटी है और कई बार मैं पलटने को हुआ हूँ। पर अडिग से अहंकार ने मुझे हिलने नहीं दिया है। ठीक उठी हूक की तरह मैं पक्का इरादा करता रहा हूँ जो पुलिस के घेरे के अंदर जा कर कोई कान खुजलाना चाह रहा हो। अचानक एक घटिया किस्म के लिफाफे में बंद गोपाल की बेटी की शादी का कार्ड मान सिंह सामने ला कर पटक देता है। मुझे ये कोई वारंट जैसा लगा है – जिसके छूते ही मैं गिरफ्तार हो जाऊंगा – मुझे ऐसा लग रहा है।

“मुक्ति!”

“सर!”

“चलना है न?”

“यस सर! मैंने चेक बना लिया है।” बहुत ही आश्वस्त स्वर में मुक्तिबोध ने कहा है।

मुक्तिबोध को कोई खतरा नहीं है। शायद मेरे अंदर की कमियां ही मुझे डरा रही हैं – मैं यही सोच कर मन शांत करने में जुटा रहा हूँ। शाम तक मैं गोपाल के घर के दृश्य को पचासों बार दोहरा गया हूँ और हर कोने को सशंक आंखों से निरख परख कर कोई खतरा तलाशता रहा हूँ। अब मुझे विश्वास हो गया है कि वहां कोई खतरा नहीं है। जीत की मौत एक हादसा थी, एक दुश्मनी थी और लिया बदला था जिससे मैं कहीं भी जुड़ा नहीं हूँ।

मुक्ति और मैं सजधज कर जब चलते हैं तो जोड़ी फबने लगती है। पता नहीं क्यों एक दूसरे पर छा छाकर भी हम छा नहीं पाते। हर बार दूध का दूध और पानी का पानी हो जाता है। मेरा मन कई बार बेईमान हुआ है कि श्याम के बाद मुक्ति को अपना मुंह बोला भाई बना लूं। उसके यहां अपने कुछ विश्वास गिरवी रख दूं पर पता नहीं क्यों मुक्ति ये कबूल नहीं करता। वो तो मालिक और नौकर की परिभाषाएं अलग-अलग रखना चाहता है। पता नहीं वो मुझसे क्या चाहता है?

“आइए सरकार! मालिक ..” हमारा स्वागत हुआ है।

उन्हीं लालची आंखों के बने प्रश्न चिन्हों में मैं जा बिंधा हूँ। हर कोई जैसे मेरी जेबें खखोरता लग रहा है, पूछता लग रहा है – अब क्या-क्या दोगे धन्ना सेठ? इन लेने देने के संबंधों ने ही मेरे अंदर एक बेहद उबाऊ तनाव भर दिया है। मेरा संपूर्ण स्नायु मंडल क्लोरोफॉर्म की मीठी सुगंध से अवसन्न होता लगा है। शहनाई का मधुर स्वर भी मुझे आज रिझा नहीं रहा है।

गोपाल ने मुक्ति को बताया है – सरकार! बारौठी पर ही पांच हजार देने हैं। वरना तो बारात .. वापस ..”

“दे दो मुक्ति!” मैंने चुपके से मुक्ति को टहोक कर अनुमति दे दी है।

मुक्ति ने उठकर चेक दान में दे दिया है। बेटे वालों का लालची मन कमल की पंखुरियों की तरह खिल गया है। मैं उस सुख का अनुमान लगाता रहा हूँ।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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