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स्नेह यात्रा भाग नौ खंड नौ

sneh yatra

मैं बहुत हताश और अधीर हुआ जा रहा हूँ। सबसे ज्यादा अफसोस मुझे मानव के विकृत संबंधों और उसकी टुच्ची महत्वाकांक्षाओं के बनावों पर हो रही है। लगता है अब समाज या तो असलियत खो रहा है और या वर्षों से धर्म धारणा से बंधा आडंबर का छप्पर खिसका कर उसका असली रूप उघाड़ रहा है। हर इंसान अब एक अलग इकाई बना लग रहा है जिसके दूसरों के साथ जुड़े संबंध कोई अहमियत नहीं रखते। मुझे संबंध जोड़ कर काम निकाल जाना, फसा जाना, कुछ गुप्त राज जान लेना या कोई पैनी नोक वाला घाती अस्त्र चला कर उसे घनीभूत कर डालना ही मात्र उद्देश्य लगा है। पुरानी परिभाषाएं अब बच्चों के कहानी किस्से बन गए हैं और घर और प्यार, बलिदान, देश भक्ति या दोस्ती आदि सभी गिरगिट की तरह रंग बदल कर कोई द्विपक्षीय अस्त्र बन गए हैं जिनकी मारक क्षमता कई गुनी बढ़ गई है। जो मार मुझे त्यागी ने मारी है – पता नहीं इसे कैसे भुला पाऊंगा? गला फाड़ कर दी गाली खुले कान से सुन कर कोई प्रतिक्रिया दिखाए भी तो उसका एक निश्चित कोण होगा पर इस अनिश्चित सी दुश्मनी – दोस्ती से लड़ूं तो कैसे?

“सर!”

“कहो मुक्ति!”

“सर, अगर अभी कुछ न हुआ तो केस बिगड़ जाएगा!”

“तो क्या करूं?”

“देहली चले जाओ!”

“फिर?”

“ऊपर से दवाब पड़ेगा तभी कुछ ..”

“लेकिन मुक्ति मेरी कोई सुनता ही नहीं! सच्ची आवाज गले से निकल ही नहीं पाती कि हर कोई झूठी तहमत थोप कर मुझे बोलने से वर्ज जाता है!”

“तनिक बोलते रहने से ही काम सुधरेगा सर। आप ..”

“ठीक है! कोशिश कर लेता हूँ!” मैंने मुक्ति की बात मान ली है।

नवीन ने मुझे बुलाया था और आज मैं खुद उसके पास जाऊंगा। मां से मिलने जाऊंगा एक कुटिल मॉडर्न बहाना मुझे याद आ गया है। अंदर का फरेबी मुझे भी बदलने को कह रहा है – और कह रहा है तुझमें भी फरेब का खजाना गढ़ा है – इस्तेमाल क्यों नहीं करता? यों निहत्था भी कोई लड़ता है? खूब वायदे कर और एक भी पूरा मत कर! खूब कुकर्म कर और सबकी जिम्मेदारी किसी विपक्षी पर मढ़ दे! ऐशों आराम में डूब कर भूल भी जा कि तुझे गरीबी से लड़ना है! देश को उन्नत बनाना है – ये सब तो मुगालता है, भ्रम है और तुझे क्या नहीं आता? बार-बार चूका तो देखना ..

“मां!” मैंने पहले की तरह ही आवाज दी है।

“कौन! दलीप! आ बेटे, अंदर आ!” मेरा स्वागत हुआ है। शायद मां पुराने चलन की औरत है और अपनी चौखट पर चढ़ा कुत्ता भी यहां सम्मान पा जाता है।

“कैसी हैं आप?”

“कैसी हूँ – पूछ रहा है? तू कभी आ कर शकल दिखाता है जो ..?”

“ओ मां! कितना काम है .. इत्ता काम है .. बस ढेर सारा ..”

“आ गया लपाटियापन पर! अच्छा बोल क्या खाएगा?”

“खाऊंगा ..? हूँ .. हां-हां जो भी फ्रिज में पड़ा हो! और हां नवीन ..?”

“उसका कोई पता ठिकाना नहीं! जीत जो गया है वह! पहले कहता था एक बार जीत जाऊं बस! और अब ..?”

मां ने खाना गरम किया है, परोसा है और हाव भाव तथा बातचीत में मुझ में अपरिचित मात्र वात्सल्य की उल्लसित भावनाएं भरी हैं जो इस जटिल स्थिति में भी मन को एक सुखदायी सेक देती रही हैं। मेरे अंदर का कोई टूटा इंसान दोबारा किसी शाश्वत इरादे के सहारे उठता लगा है।

“ये हार जीत और राजनीति पता नहीं मेरा घर ही उजाड़ेगी क्या?” हताश मां सजल नेत्रों से अपने दुखड़े सुनाने बैठी है।

“मां! ये सब तो करना ही पड़ता है!” मैंने उलटी गवाही दी है जो आधुनिक चलन की पुष्टि जैसी लगी है।

“तू भी कौन कम है? मैं तुम सब को जानती हूँ। अवा का अवा बिगड़ा लगता है।”

“बिगड़ा लगता है?”

“तो क्या सुधरा कहूँ? रोज के हंगामे, हड़तालें, रात-रात भर के रतजगों में उड़ती बरबादी! सौत चाह हुई कि डायन जो आदमी खाए?”

“पर मां .. ये ..”

“मुझे मत बना! मैं तुम सबके कारनामे जानती हूँ। अब कहूँ कि .. क्यों रे लड़की को मंडप से क्यों भगाया – तो तू हंस देगा!”

मां ने आंसू पोंछे हैं। इन आंसुओं में भरी सच्चाई मुझे आहत छोड़ गई है। मां अब भी नया जमाना पुरानी आंखों से देखती हैं और जो देखती हैं उसपर शायद हम लोगों की तरह हंस नहीं पाती! मानवीय संवेदनाओं से भरा मां का दिल हर किसी के साथ हुए जुल्म देख द्रवित हो उठता है। आंसुओं की धार एक अजीब सहजता लिए बह जाती है। लेकिन आज हमारी पीढ़ी की आंखों में आंसू सूख चुके हैं। रोना तो आउट ऑफ फैशन है। आंखों से ठंडी आग बरसाते रहना और समूची प्रतिक्रिया को चाह कर ठहर जाना ही उभरे व्यक्तित्व की निशानी है।

“मां .. तू भी ..? देख! तू मेरी सगी न सही पर तेरी कसम खा कर कहता हूँ मैंने कुछ भी नहीं किया है!” मेरा हाथ अचानक मां के सर पर जा टिका है।

“सांच को आंच नहीं है रे! फिर तू क्यों डरता है?” कहकर मां ने मुझे आगोश में लेकर वरदान जैसा दिलासा दिया है।

मन आया है खूब रो लूं पर वैसा करना पागलपन लगा है। मां के यहां से जो मिलना था मैं सहज विश्वास का सहारा लेकर आ गया हूँ पर जो नवीन से मांगने आया हूँ वो?

“मैं चला मां!”

“नवीन से नहीं मिलेगा?”

“ढूंढ निकालूंगा हरामखोर को दिल्ली की तहों में से – तू देखती जा!” कह कर मैंने मां के सामने अपने लपाटियेपन का सबूत पेश कर असली बात छुपा ली है!

मैंने हॉर्न मार मार कर जकारिया और भट्ठेवाले को चौंका दिया है। दोनों घबराए सियारों की तरह सामने किसी जंगल में छुपे खूंखार शेर की कहानी सुनाने सोए हुए हैं कि मैंने उनकी झाड़ पोंछ शुरू कर दी है।

“साले नमक हराम बाप को अब याद तक नहीं करते! क्यों?”

“अरे आप! अंदर आ जाओ .. अंदर आ जाओ बाप जी!” घबराते हुए दोनों मुझे घर के अंदर घसीट ले गए हैं।

“नवीन कहां हैं। कोई अता पता?” मैंने घुर्रा कर पूछा है।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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