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स्नेह यात्रा भाग नौ खंड ग्यारह

sneh yatra

“दो मिनट मिलेंगे?” मैंने नवीन से मांग की है।

“ओके!” कह कर बे मन नवीन मेरे साथ लॉन में बाहर निकल आया है।

“नवीन! मैं फंस गया हूँ!” मैंने सीधी बात सामने रक्खी है।

“लिमिट पार करोगे तो ..”

“नवीन! तू भी यही सोचता है कि मैंने ..?”

“सोचने वालों में मैं अकेला नहीं हूँ!”

“पर मुझे तो अकेला पड़ कर सोचना चाहिए था नवीन?”

“क्यों?”

“क्योंकि अब तू एक जिम्मेदार समाज का अति सम्मानित और समर्थ व्यक्ति है।” मैंने तनिक चापलूसी का पुट देकर बात घुमाई है।

“उससे क्या होता है। पब्लिक की आवाज हमें सुननी ही पड़ती है फिर चाहे वो गलत ही क्यों न हो!”

“हां! कभी-कभी निराधार बातें भी .. लेकिन क्यों? क्यों नहीं सच्चाई पर टिकते हो नवीन?”

“क्या तुम टिक पा रहे हो?”

“मेरी बात अलग है!”

“बात कोई अलग नहीं होती! फेर बातों के ही पड़ जाते है, दलीप!”

“मतलब?”

“मतलब साफ है प्यारे! पॉलिटिक्स इज द गेम ऑफ चेस। एक बार गोट उठी तो पिटी और एक बार पिटी तो बाजी गई!”

“पर मैं तो पॉलिटिक्स में नहीं पड़ता?”

“कौन कहता है? प्यारे, आज तो बाप और बेटे के बीच भी पॉलिटिक्स पनप रही है। एक दूसरे पर हाथ फिराने को हावी समाज में आज पॉलिटिक्स के अलावा और क्या है?”

“दोस्ती .. संबंध .. प्यार – सभी दूषित हो चुके हैं क्या?”

“त्यागी की दोस्ती परखी नहीं क्या? प्यार .. हाहाहा! अच्छे खासे आदमी थे पर एक विदेशी छोकरी के पीछे ईमान दे बैठे! बे क्या मिला तुझे?”

“सोफी ..!” मेरे गले में नाम अटक कर रह गया है।

“सोफी .. शीतल .. वाणी और रानी – कोई भिन्न नहीं होतीं! और तुम तो गुणी ज्ञानियों की गिनती में आते थे, पता नहीं तुम्हें हो ही क्या गया?”

“हो जाता है, नवीन!” मैंने अपने आप से जूझ कर उत्तर दिया है।

“अगर ये न हो जाता तो यों काले बादल न घिर आते। एक छोकरी के लिए बनी बनाई इमेज धराशायी हो गई। चचच! बड़ा दुख होता है दलीप!” नवीन ने मेरे टीसते घावों में तकुए चुभो दिए हैं।

“लेकिन मैं गिरा नहीं हूँ – तू जानता है!” मैंने आत्मसम्मान की रक्षा करनी चाही है।

“लेकिन मैं ये जानता हूँ कि जब एक गोट पीछे छूट जाती है तो अन्य सारी आगे बढ़ जाती हैं। यही एक नपना है वरना न कोई बढ़ता है और न कोई घटता है।”

“हो सकता है मैं पीछे छूट गया हूँ पर मेरा आगे बढ़ना बंद तो नहीं हुआ, दौड़ खत्म तो नहीं हुई?” एक निरर्थक वाक्य मैंने सामने किया है।

“वो भी हो जाएगा!” विषैली हंसी हंस कर नवीन ने मुझे धमकाया है।

मैं जानता हूँ नवीन जान बूझ कर मुझसे बदले चुका रहा है। जो ईर्ष्या, जलन और होड़ उसे अब तक तृषित करती रही थी उसी को आज वो मेरे अपमान के दूषित जल से धो डालना चाहता है। नवीन की आज कमान चढ़ी है और वह तीर पर तीर मार कर मेरी जमी जमाई परतें उखाड़ता जा रहा है। यहां तक कि आज उसने मेरे प्यार तक को नहीं बख्शा है।

“वास्तव में मैं तुमसे मदद मांगने आया था।” मैंने मद्धिम आवाज में जैसे अपनी आत्मा की बात काट कर नवीन के सामने निर्मम तड़पने को छोड़ दी हो।

“तुम तो जानते हो कि मैं बाबू जी से ही ये सब कराता रहा था। अब मेरी और उनकी खटक गई है।” नवीन ने निर्लिप्त भाव में एक बहाना खड़ा कर दिया है जिसे शायद वो बाहर आने से पहले ही सोच चुका था।

“बाबू जी से मिल कर देख लें क्या?”

“व्यर्थ है! वो सठिया गए हैं। पता नहीं क्यों .. वैल ..!”

“इतनी बड़ी तुम्हारी हैसियत और ..” मैंने नवीन को तनिक उकसाया है।

“अरे यार, क्या धरा है इस हैसियत में। कोई छदाम के दो सेर नहीं पूछता।” नवीन ने सारी कहानी को अंतिम रूप दे दिया है।

“अच्छा तो माफी चाहूँगा! मैं चला!” मैंने उतावली की है।

“क्यों ..? शीतल से ..?”

“इंजॉय योरसेल्फ! बाए नवीन!” कह कर मैं चलता बना हूँ।

बाहर गहरा अंधेरा नहीं है और मैं काले तिमिर में खो जाने को तरस गया हूँ। पल भर के लिए असफल और मात खाए दलीप को अगर ये अंधेरा आकर छुपा लेता तो मन चंगा भला हो कर सहारा पा जाता। कार की सीट पर मैं निढाल पड़ गया हूँ। मरी सी अंतिम चाह सामने आई है – नवीन के बाबू जी से कह कर देख लो – पर मेरे ही हाथों पिट कर चुप हो गई है। बाबू जी का पीला – भाव लीलता निरीह सा चेहरा मुझे किसी भयावह स्वप्न की आवृत्ति जैसा लगने लगा है। देहली में आम तौर पर ऐसे चेहरे ढलते रहते हैं – इंसान यांत्रिक बने रहते हैं और सौहार्द तथा प्यार मर-मर कर दीवारों से चिपके रहते हैं। यों देहली में कितना रक्तपात नहीं हुआ! हर पत्थर पर अब भी खून की ललौंही उगी है पर आज कल का सा कोहरा कभी नहीं छाया! मां – भाव विहीन, कला विहीन और चरित्रहीन कृषकों के हाथ इस तरह कभी नहीं बिकी। आढ़ से खंजर चलाने वाले आज सभी देहली में आ चुके हैं और सभी कलाविद तथा मुंशी निर्वाचित से कहीं दिग्भ्रांत भटक रहे हैं। भिखारी से भी कोई भीख पाने की आशा रख सकता है क्या?

मन में असाध्य वेदना संचार मुझे प्रलयकारी संवादों से जोड़ देना चाहता है। मस्तिष्क में नवीन, शीतल और श्याम को मिटाने की योजनाएं उभरने लगी हैं तथा त्यागी को जीप से बांध कर कंकड़ों वाली सड़क पर घसीट लाने का मन हुआ है। मन में आया है कि सारे बुनियादी और अनाचारियों से एक साथ लड़ जाऊं। सुबह सूरज की पहली किरण से भी पहले कुतुब मीनार पर चढ़ कर बांग लगाऊं – जागो, महा नगरी के सोते लोगों देखो तुम्हारे बीच कौन आ दुबका है? देखो इसे ये साला व्यभिचारी है ..!

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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