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स्नेह यात्रा भाग नौ खंड चौदह

sneh yatra

बाहर पतोहरी चटकी है। उसके घिघियाते गले की चीत्कार में किसी खतरे का संदेश है। कोई अनधिकार मेरे कमरे की ओर बढ़ने की चुपचाप चेष्टा में संलग्न पतोहरी ने देख लिया है और निर्लिप्त भाव से मुझे आगाह कर देना प्राकृतिक कर्ज की अदायगी लगा है।

बाहर अंधेरा घिर आया है। मैं आज जिस सपुंज प्रकाश में बैठा हूँ, उठना नहीं चाहता। अंदर गर्मी भरती शराब आज मुझे पीने को है और मैं भी तैयार हूँ कि जल्दी से जल्दी बेहोश हो जाऊं। पता नहीं क्यों घबराया तमाम स्नायु मंडल शराब को खुराक मान कर चूसता जा रहा है। और मेरा अचेतन मन हारना नहीं चाहता।

अब गीदड़ों की गुहारें दूर के जंगल से उठ कर आसमान को भर देती हैं। उल्लू की घुग्ग-घुग्ग की पड़ती दुत्कारें चोर अनसुनी कर आगे बढ़ जाएंगे – तो तारों का मद्धिम आलोक कोई भी बुराई उजागर नहीं कर पाएगा। मूक गवाह बनी प्रकृति सब घटनाएं आंचल में समेट सुबह गवाही देने से मुकर जाएगी। तब सोते इंसान जागेंगे, गवाहियां खोजेंगे और सोते पड़े लोगों को चश्मदीद गवाह का जामा पहना देंगे। मोहर और उनपर अंकित हस्ताक्षर लक्ष्मण रेखा जैसी जटिल बात बन कर टूट नहीं पाएंगे चाहे जितने बेगुनाहों का अशुभ क्यों न हो जाए।

“टक-टक-टक!” दरवाजा सिहर उठा है।

मैंने एक बार दरवाजे को देखा है तो दूसरे पल भरे गिलास को। इससे पहले कि दरवाजे पर आए खतरे को झेलूं मैंने अंतिम गिलास को अंदर रिता लेना नितांत आवश्यक समझा है।

मैं जानता हूँ – इंस्पेक्टर राना ही होगा। साथ में दो एक मरियल और मटमैला सिपाही – एक बेंत या 303 की पुरानी जंग लगी रायफल बेगार के तौर पर खींचता खड़ा होगा। राना जेब से हथकड़ी निकाल मुझे दिखा देगा और साथ ही मुझ पर लगे अभियोग सुना कर एक बार फिर मुझे कातिल साबित करने की धमकी से धमकाता लालची आंखें अंदर की तिजोरी पर टिका देगा। मैं हथकड़ियों से नहीं पुलिस की हेकड़ी से ज्यादा डरता हूँ। मन आया है कि बालकनी से छलांग नीचे लगा धड़ाम से कूद गहराते अंधेरे में गायब हो जाऊं।

“टक-टक-टक!” वही तीन बार टक-टक की आवाज आकर मेरी भयावह विचारधारा से टकरा गई है।

“कौन ..?” मैंने घुर्रा कर पूछा है। लगा है शराब पैसे वसूल कर गई है।

“टक-टक-टक!” वही खटखटाने की क्रिया दोहरा कर बाहर वाले ने बोलना उचित नहीं समझा है।

मैं तनिक अचकचा गया हूँ और शायद शराब में सराबोर दिमाग की चेतन शक्ति हीन होती लगी है। समझ नहीं पा रहा हूँ कि ये मुसीबत कौन है? और इसका सामना कैसे करूं? अगर इंस्पेक्टर राना है और मुझे गिरफ्तार करने आया है तो भी मैं बिना गवाह खरीदे उसके साथ जाने को तैयार नहीं हूँ।

“राना को भी खरीद लो ना?” एक साथ सारी शराब की बोतल हंस पड़ी हैं।

कभी-कभी शराबी दिमाग भी लाखों टके की बात सोच जाता है। मैं अब बेधड़क दरवाजा खोलने चल पड़ा हूँ।

“आओ इंस्पेक्टर!” मैंने तपाक से दरवाजा खोल दिया है।

सामने खड़ी शीतल को देख कर मैंने मदहोश आंखों को मसल कर ठीक से फोकस करने का प्रयत्न किया है।

“क्यों ..! इंस्पेक्टर का इंतजार था?” शीतल ने अंदर आते हुए पूछा है।

“हां, था, अपराधी हूँ न! अपराधी हूँ ..” जुबान लड़खड़ाने लगी है।

“वो तो हो!” शीतल ने मुसकुरा कर बात की पुष्टि की है।

तो क्या शीतल भी मुझे जलील करने आई है? क्या ये भी वही बताने आई है कि मैं कातिल हूँ और लड़की उठाने वाला गिरा एक इंसान हूँ और ..!

“मेरा जुर्म, जुर्म का सबूत?” मैंने शराबी होने का परिचय दिया है।

“जुर्म है – किसी का दिल तोड़ना और उसका सबूत मैं हूँ।” शीतल के चेहरे पर वही विषैली मुसकान खेलती रही है।

जरूर साली कोई चाल चलने आई है – मैं सोच कर संभल जाना चाहता हूँ। शीतल का यूं बेधड़क चले आना कोई खास बात तो नहीं है पर इन परिस्थितियों में आना और दिल जोड़ने तोड़ने का अभियोग लगाना महज कोई रटा रटाया नाटक का डायलॉग लग रहा है।

“दिल – वो भी तुम्हारा दिल? हाहाहा! होहोहो! दिल ..?”

“क्यों? हमारा दिल नहीं?”

“नहीं! बताऊं क्या है तुम्हारा दिल?”

“बताओ!”

“फूटी हांडी .. छेदों वाली मांझी! हाहाहा ..”

मन की पूरी घृणा भी सहजता से उड़ेल पाना आज सहज लगा है। जैसे मौत से पहले कोई आखिरी ख्वाइश पूरी करने में एक लमहे को चुन ले और अपने प्रतिद्वंद्वी को खूब गरिआए। उसे खूब जलील करे और मन पर लदा पश्चाताप का बोझ किसी एक पल की मौत मरने की कामना करें – ठीक उसी प्रकार मैं इस लमहे को हाथ से नहीं जाने देना चाहता। मुझे अब वी के के लगाए प्रतिबंध मंजूर नहीं हैं और न कानून का डर है।

“चियर्स!” शीतल ने खुद ही गिलास भर घूंट मारा है।

“चियर्स फॉर दि लास्ट लाइफ!” मैंने साथ देने से इंकार नहीं किया है।

“दि लास्ट लाइफ – याद है न तुम्हें दलीप?” शीतल की आंखों से घबराई सी कोई याचना उभरती लगी है।

“आई थैंक यू .. माई लव .. ओह डार्लिंग ..” शीतल चाह कर भावुक स्थितियों से मुझे जोड़ देना चाहती है।

शीतल का सानिध्य मुझ में असहज रीता पन भरता लगा है। जलते निरीह से बल्ब के मद्धिम प्रकाश ने शीतल का रूप निखरता लग रहा है। नितंबों से कोई रसधार बहती लगी है और होंठों पर फड़कती मुसकान सीधी तितली की तरह मुझे तड़पा रही है। मैं अंदर एक भरता तूफान देखने लगा हूँ। ये अंधा तूफान आगे बढ़ कर शीतल को आगोश में लेने का वायदा करता लगा है। आज वर्षों से सोता कामी पुरुष अंदर जगा है।

“दि लास्ट टाइम आई बैग यू ..” मन में बार-बार स्पंदित होकर मैं मदहोश लग रहा हूँ। शीतल सामने सिमिटने को खड़ी है .. कुछ देने को खड़ी है .. आग जैसी है .. गरम-गरम जो मन में भरी सर्द हवाओं को पी जाएगी!

“द लास्ट टाइम!” कामी पुरुष की मांग है – झूठा वायदा है – शराबी का वायदा है!

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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