वेश बदल कर जाना। लुक छिप कर जाना। एक पल पांच हजार का चेक थमा गायब हो जाना। पर एक पल जरूर जाना वरना तू हार जाएगा। मेरे अंदर का वर्षों का पला दंभ मुझे एक जटिल भूमिका निभाने को कहता रहा है। चोरी गुपचुप नजरें बचा कर किया काम है। कोई समाज या गुट का विरोध या अन्य कोई इकला पढ़ कर किया पंगा एक खास खलबली मचा जाता है। कुछ उपादेयता जैसी बातों की पुष्टि हो जाती है और पुरुषार्थ नप जाता है।
“इस बार जरूर जाऊंगा।” मैंने मुक्तिबोध को नितांत ठंडी आवाज में अपना निर्णय सुना दिया है।
मुक्ति का मुंह उतर गया है। एक कमजोरी लिए पीलापन उसपर छाता लगा है। शायद मुझे कन्विंस करने की सामर्थ्य चुक कर मुझे अकेला छोड़ गई है। मुक्ति ने मेरी जिद के सामने हथियार डाल दिए हैं।
“वैल सर!” मुक्ति ने अपने कंधों को उचका कर बात को आया गया कर दिया है।
“मुक्ति! ये वर्ग भेद, जाति भेद, धर्म भेद और यहां तक कि कुलीन और शूद्रों के बीच पड़ी लकीरें ही हमारी सभ्यता और संस्कृति चट कर गई हैं। मैं नहीं चाहता कि ..”
“सर! मैं सहमत हूँ पर समाज सुधार और व्यापार दो कनफ्लि्क्टिंग बातें हैं और जो आप सोच रहे हैं उसके लिए भी अभी हमारा समाज पका नहीं है।”
“पकाएगा कौन?”
“समय और सात्विक लगन से जुटे हम!”
“कब जुटेंगे? जब समय चुक जाएगा तब? मुक्ति! अमेरिका जाकर देखो! यूरोप में जाते ही तो आंखें खुल जाती हैं। शर्म आने लगती है जब लोग पूछते हैं – क्या भारत में भूखे लोग मर जाते हैं? सच मानो मुक्ति शर्म से गर्दन झुक जाती है और कोई भी कह नहीं पाता कि वह वहां का करोड़पति है।” मैं अपने भावावेश में बहता चला जा रहा हूँ।
“मैं तो अब भी इसी पक्ष में हूँ कि मालिक और नौकर के बीच अंतर होना ही चाहिए वरना काम करने का इरादा नौकरी जाने के भय से नहीं जुड़ पाता! उन के साथ घुल मिल जाने से स्वामी भक्ति और एक कल्पनातीत इमेज – सर्व गुण संपन्नता की परिकल्पना टूट कर कोरा इंसान खड़ा कर जाती है। ऑरीजनल रूप में मानव खुद को देख कर भी शर्मा जाता है सर!”
“तुम्हारा मतलब है – मैं महान बनने का ढोंग करूं?”
“ढोंग नहीं सर! आई मीन आप हैं पर थोड़ा सा तरीका ..”
मुक्ति ने मुझे तनिक चापलूसी में बांध सा लिया है। मैं उसे फिर घूरता रहा हूँ। वो अपने पक्ष पर तुला समाज गत सापेक्षता को मुझ पर थोपता मैदान में डटा रहा है।
“पर मैं गोपाल की बेटी की शादी में जरूर जाऊंगा वरना उसकी और मेरी शर्म बिगड़ जाएगी।” मैंने संयत और दृढ स्वर में कह दिया है।
“हेलो दलीप! हां-हां त्यागी बोल रहा हूँ।”
“कहिए नेताजी!”
“भाई, चुनाव के तीन दिन हैं। हां-हां तीन दिन। बस काम हुआ समझो। हां! भेज दो। जल्दी करना मैं साथ हूँ। माफी चाहता हूँ ..”
त्यागी मुझ पर खूब सारी जिम्मेदारी थोपता रहा है।
“अरे नेता जी! वो इंस्पेक्टर राना को – आप तो जानते ही हैं ..”
“अपना ही आदमी है! डॉन्ट वरी!” त्यागी तारों के अंतिम छोर पर हंसता कोई छलिया लगा है मुझे।
त्यागी सब कुछ मांगे जा रहा है और नवीन चुप है। त्यागी की जीत में रत्ती भर शक नहीं क्योंकि त्यागी का हू हल्ला खूब जोरों से मचा है। पता नहीं क्यों टूटते नवीन पर मुझे तरस आने लगा है। मन आया है कि फोन पर उसे भी पूछ लूं कि ..! पर राजनीति के चक्करों से मैं आज भी बचना चाहता हूँ।
कभी-कभी अकेलापन खाने को आने लगता है। मैं चुपचाप जब सोफी की परछाइयों से बतियाते थक जाता हूँ तो सोचता हूँ कोई मूर्त मानव मेरी जी हुजूरी में आ खड़ा होता है। आज कर मान सिंह तक पर हुक्म चलाते डर जाता हूँ और कोशिश करता रहता हूँ कि अपने काम खुद निकाल कर स्वावलंबी बन जाऊं। आज भी मन में किसी से बात करने को हूक भवूके मार रही है और मैं अपनी इस प्रबल इच्छा के सामने हार गया हूँ। उठा हूँ और मुक्ति के बंगले की ओर चल पड़ा हूँ।
“अरे कोई है?” मैंने घंटी बजाते-बजाते जोर से पुकारा है ताकि मेरी आवाज स्वयं परिचय घोषित कर दे।
“आइए सर। अंदर हैं साहब।” मुक्ति के नौकर ने मुझे बताया है।
“गुड ईवनिंग सर! वैलकम होम ..” मुक्ति ने अंदर से कहा है।
“क्या हो रहा है जनाब का?” मैंने अत्यंत हल्के स्वर में पूछा है।
“सर! आई मीन .. हॉबी ..”
“तो चिड़ियाओं से बतिया रहे हो?”
“सर! वैल …”
“क्या खबर – उनकी दुनिया की?”
“इट इज शॉकिंग सर। मैं अभी-अभी मैना के अंडे का मुआइना कर रहा था। अंडा राइप होने से पहले ही चटक गया।”
“मतलब?”
“मतलब सर – ये मैनाओं की नस्ल आई मीन पेरेंटिंग खत्म हो जाएगी!”
“लेकिन क्यों?”
“प्रकृति के गुण धर्मों में कोई दोष आ गया है।”
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड