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स्नेह यात्रा भाग नौ खंड आठ

sneh yatra

“तो काम कैसे चलता है?”

“काम चलता है जूते से। सच मानिए जूते से पैसा डरता है। अब आप को ही ले लें – शराफत, ईमानदारी या यों लोगों के हित की सोचने से आप को क्या मिलता है?”

“संतोष, मिस्टर राना!”

“और अगर आपका खुद का नौकर आप के खिलाफ बोले तो?”

“मतलब ..?”

“मतलब कि .. बुरा मत मानिए आप के खिलाफ मान सिंह की गवाही है। वह चश्मदीद गवाह है जीत के कातिल .. यू नो ..!”

“ओह नो!” एक लंबी आह मेरे आर-पार हो गई है।

“अब सारा घर और मुहल्ला चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा है कि लोंडिया आप ने भगाई है! हम किसकी सुनें और किसकी ना सुनें। साला कल को ही कोई नेता आकर गले में फांसी डाल देगा और पूछेगा क्यों एक्शन नहीं लिया?”

“लेकिन मिस्टर राना ..” मैंने अपना पक्ष साबित करने की हिम्मत की है।

“आप की अकेली आवाज है। और उधर ..”

“तो ..?” मैंने हथियार डाल दिए हैं।

“स्टेटमेंट दे दीजिए। होगा सो देखा जाएगा!” कह कर राना ने अपना काम करना चाहा है।

मैंने पता नहीं क्यों इनकार नहीं किया है। सीधे शब्दों में कहा है कि मैं सुलोचना के गायब हो जाने के बारे में कुछ भी नहीं जानता।

“आप यहीं थे?”

“हां!”

“आप ने लड़की को ढूंढ निकालने का कोई प्रयत्न किया?”

“नहीं!”

“पुलिस को इत्तला दी?”

“नहीं!”

“क्यों?”

“वैल .. मैं .. हिकारत से भर गया था .. और ..”

“गोपाल किस गुट का है?”

“मैं नहीं जानता!”

“सुलोचना कहां है?”

“मुझे क्या पता!”

“लड़कियों का शौक तो .. पुराना है ना?”

“जी .. वो .. वो मैं बहुत पीछे छोड़ आया हूँ।”

“और अब बहुत आगे बढ़़ गए हैं – आप? हाहाहा आइडिया हमें भी पसंद आया। खैर ..” कह कर राना लिखने लगा है।

मेरे पुराने शौक आज भी पेल रहे हैं मुझे। एक बार बदनाम हुआ इंसान नेक नाम नहीं हो पाता – खुद को मिटा कर भी लोगों का विश्वास नहीं खरीद पाता। पर क्यों? फिर मैं लड़कियों को भगाता तो नहीं था?

अनाचार अत्याचार – कालम के तहत एक लंबा चौड़ा लेख छाप कर प्रेस ने फोटो के साथ मेरी बदनामी की है। कल की सी बात है जब प्रेस ने मुझे गेंद की तरह आसमान में उछाल-उछाल कर एक होनहार और युवा समाज का अगुआ जैसी परिभाषाओं से सम्मानित किया था। आज उसी प्रेस ने मुझे अनाचार और अत्याचार से ला जोड़ा है। प्रेस मुझे कोई दुबली औरत या दोमुंही नारियों सा लग रहा है जो डस कर भी मुकर जाती हैं। आज यहां जो भी घट चुका है सबका जिम्मेदार दलीप ही है।

“मुक्ति!”

“यस सर!”

“मुझे ट्रंक पर त्यागी चाहिए!”

“सर!” कह कर मुक्ति कट गया है।

घंटी बजने तक के इंतजार में मैं सोचे जा रहा हूँ कि त्यागी से किस तरह मदद मांगूं। एक बार तो उसे बता चुका हूँ पर अब खुले शब्दों में ही कुछ करने को कहूंगा। वैसे त्यागी की भ्रम में डालने वाली मुसकान, ठंडा स्वभाव और सफ़ेदपोश लिबास किसी भी जिम्मे को नहीं ओटते।

“हैलो! त्यागी जी ..!”

“बोल रहा हूँ।”

“कैसा चल रहा है?”

“अब नहीं चल रहा!”

“क्या ..? नहीं – क्यों नही? हार ..? आपकी हार .. इंपॉसिबल! भाई ये तो गजब हो गया!”

वही क्रिया विहीन मस्तिष्क और बैठा-बैठा मन लिए मैं धर्म संकट में पड़ गया हूँ। अब त्यागी की हार पर रोऊं या अपने दुखों और परेशानियों पर – समझ नहीं आ रहा है। किस मुंह से उसे बताऊं कि अब वो मेरी मदद करे?

“और कुछ?” त्यागी ने पूछा है।

“और .. हां! अर .. एक छोटा सा काम था .. बस उसी राना .. एंड पार्टी को थोड़ा ..”

“सुना है तुमने गुल खिलाए हैं? लड़कियों की हवस अभी तक नहीं गई? बुरी बात है .. इस तरह ..”

“नेता जी! आप को कैसे समझाऊं ..” मैं गिड़गिड़ाया हूँ।

“भाई, अब तो मैं वैसे भी कुछ नहीं कर सकता!”

“पर .. अब .. मैं .. यानी कि ..”

“वैसे इस खबर ने लोगों के कान खड़े कर दिए हैं। हो सकता है यही सवाल संसद में भी उठे और तब तो ..”

“ओह नो! पर मेरा विश्वास ..”

“पुलिस का हथियार कानून है – विश्वास नहीं बंधु!” कह कर त्यागी ने लाइन छोड़ दी है।

मैं कुर्सी पर बैठा-बैठा घूमने लगा हूँ। सारा ब्रह्माण्ड कंदुक बना मेरे सामने मेरी ही धुरी पर तुला घूमने लगा है। देखते-देखते सारे रंग ढंग रफ्तार के साथ भदरंग होते लगे हैं और एक मटमैला गैरिक रंग उभरने लगा है।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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