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स्नेह यात्रा भाग दस खंड एक

sneh yatra

बाहर मचे हू-हल्ला ने मेरी बेहोशी तोड़ी है। मैं कोई भयंकर आक्रमण जैसा आता देख रहा हूँ। पब्लिक का अथाह पारावार मुझ पर उमड़ता सा आगे बढ़ रहा है – दांत पैनाए, नाखून निकाले, चीखता चिल्लाता लगा है मेरा मुंह नोच-नोच कर कोई तालाब पोखर बना देगा!

“सर!”

“यस मुक्ति!”

“आप अंदर ही रहना। वी के और मैं निपट लेंगे!” मुक्ति ने बड़े ही होंंसले के साथ कहा है।

“लेकिन ये माहौल है क्या?” मैंने अपने अंदर भरे भ्रम को तोड़ना चाहा है।

“जुलूस है! आप के रेजीडेंस के सामने ..”

“किस लिए?”

“आप ने .. आई मीन .. शीतल की इज्जत लूटी है!”

“ओह! ये लुटी लुटाई फिर लुट गई?” मैंने तनिक व्यंग किया है।

मुक्ति तनिक हंस कर इंटरकॉम छोड़ गया है। मैं अब भी उससे बात करने को लालायित हूँ। पर .. अंदर ही रहना वाली चेतावनी मुझे भूली नहीं लगी है। उठकर मैंने बाहर झरोखों से झांकना बुरा नहीं समझा है।

“व्यभिचारी का अंत हो!”

“लाचारी का अंत हो!” खटाक-खटाक ठप्प!

मेरे कमरे के ऊपर पत्थर और ईंट रोड़े बरस रहे हैं। मैं अंदर कैद कोई घायल हाथी या खूंखार शेर हूँ जिसके लोग खून के प्यासे बन गए हैं। ‘व्यभिचारी का अंत हो’ ये नार मैंने दोहराया है। क्या कयामत है? अब जब मैं मीलों दूर निकल आया हूँ तब लोग मुझे दुत्कार रहे हैं। लेकिन जब ये काम करता था .. तब ..

एक के बाद दूसरी मुलाकात कराते मित्र थे, एक से बढ़कर एक ठिकाना, फ्री रेंट के ऑफर पर लिए कमरे, दिल देती नई-नई कलियां .. वाह-वाह करते न अघाते वेटर, मैनेजर, दल्ले और यहां तक कि नवीन, त्यागी, जकारिया और .. और ये पत्थर मारते मूर्ख!

“लोग सच्चाई का ही सर पत्थरों से फोड़ते हैं, माई डियर प्रिंस!” अंदर के सच्चे दलीप ने चिढ़ कर कहा है।

सच भी है। अगर मैं शीतल को न ठुकराता तो ये व्यभिचारियों का लेबल यों सोते-सोते ही न लग जाता! हो सकता था शीतल पासा पलट देती! इन मूर्खों से कह देती – ये तो देवता हैं। और मैं वही आडंबर ओढ़े पुजने लगता। गलत क्या है और सही क्या है – मैं हिसाब नहीं जोड़ पा रहा हूँ। शीतल ठीक ही कह रही थी – उठना और गिरना तो भ्रम है। ये एक आंख का पर्दा है। कोई गिर कर भी उठ जाता है – जैसे नवीन और कोई उठ कर भी गिर जाता है – जैसे कि मैं! आज भी जमीन पर पड़ा-पड़ा मैं सिसकता लगा हूँ। आत्मा किसी भी गिरावट की कायल नहीं है। मन खुश नहीं है और अंतर के धुले मजे इरादे अब भी टूटे नहीं हैं।

“मत डरना बेटे, ये तो घटाटोप है!” बाबा कहते लगे हैं।

मैं अपने कमरे में ही चक्कर पर चक्कर लगाने लगा हूँ जैसे कोल्हू में जुड़ा बैल होऊं और मेरी आंखों पर मालिक ने पट्टी बांध दी हो ताकि कुछ भी दाएं बाएं देख बहक न जाऊं। परिस्थितियों के मजबूत शिकंजे में जड़ा मैं चाह कर भी हिल नहीं पा रहा हूँ। सच्चाई कहने में भी डर रहा हूँ और अपने ही पाले कुत्तों से डरा सा – सहमा सा अंदर बंद हूँ।

“हैलो!” मैंने टेलीफोन उठाया है।

“दलीप! मैं नवीन बोल रहा हूँ।”

“हां-हां! कहो, खुशखबरी है तो जल्दी सुनाओ!”

“मजाक मत करो दलीप! बी सीरियस। इट्स ए ..”

“तुम्हारी ताकत के बाहर है ना? ठीक है। मैं कब ..?”

“बात सुनो दलीप और समझने का प्रयत्न करो। फैक्टरी पर ताला पड़ने वाला है।”

“क्या ..?”

“हां! गोरमेंट ताला डालेगी। और तुम यानी कि ..”

“क्यों? मैंने आक्रोश में पूछा है।

“गरम मत होओ! तुम्हारी कुव्यवस्था और अनाचार ही इसके कारण हैं। लाख कोशिश के बाद भी मैं ..”

“थैंक्स!” मैंने नवीन के गाल पर जैसे उतार कर चप्पल दे मारी हो।

“मुझे समझने का प्रयत्न करो दलीप! मैं ..”

“अगर तुम्हें नहीं तो किसे समझूंगा?” मैंने व्यंगात्मक ढंग से कहा है और फोन रख दिया है।

नवीन ने एक जंगली शेर को पिंजरे के मुंह पर लाकर खड़ा कर दिया है और अब लाचारी जैसी कोई बात कान में कह उसे अंदर जाने को कह रहा है ताकि बाहर से दरवाजा बंद कर सुख की नींद सो जाए।

“मेरा चैन छीन कर अच्छा नहीं किया तुमने नवीन! मैंने तुम से कभी ईर्ष्या नहीं की, कभी नीचा नहीं दिखाया और चाहा तुम्हें भी .. और तुमने?” मैं स्वयं टहल-टहल कर बड़बड़ाता रहा हूँ जैसे कोई रेकॉर्ड में रखने के लिए वर्तमान को कैद कर रहा हो।

“काला मुंह करके गधे पर बिठा सवारी निकालेंगे!” शोरगुल के अंदर से एक अत्यंत मर्म भेदी आवाज आई है।

“बिल्कुल ठीक है ताकि दूसरों को भी सबक मिल जाए कि ..” बात का समर्थन हुआ है।

अचानक मेरा हाथ किसी सुरबुराहट से भरा लगा है। टेबुल की दराज में कैद पिस्तौल का ध्यान आते ही एक दंभ भरा मान अपमान का लेप बुद्धि पर होता लगा है ओर मन कर रहा है कि इस सुझाव देने वाले को – धांय-धांय गोलियों से उड़ा कर उमड़ी भीड़ के मुंह काले कर फैक्टरी से धक्के मार-मार कर निकाल दूं।

एक अपार दुख मन में खुला विचरने लगा है। पश्चाताप अंदर से खोखला किए दे रहा है। ‘ये ही वो हैं जिनको तुम अपना मान बैठे थे, जिनकी खातिर तुम अपने आप को भूल गए थे – एक करोड़पति से कंगाल बन इन में मिलने का सतत प्रयत्न करते रहे थे। अब देखो! सच कहां है और झूठ कहां?

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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