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स्नेह यात्रा भाग दस खंड सात

sneh yatra

सामने गेंदे के फूल खिले हैं जो चढ़ती जवानी पर टिके से लग रहे हैं। ये स्थान यमुना से उतना ही दूर है जितना कि मंदिर और मैं नदी की जलधारा पर लहरों की पड़ी सिकुड़न तक देख पा रहा हूँ। एक अजीब सा सुख मुझमें भरता जा रहा है। आचार्य ने मुझे बाहर पड़ी चारपाई पर लिटा दिया है।

“वैशाली!” आचार्य ने तनिक स्वर को ऊंचा कर पुकारा है।

नाम सुनते ही मेरे कान खड़े हो गए हैं। मात्र नाम सुनकर मुझे लगा है कि कोई सुंदर सी औरत अब बाहर आएगी!

“क्या है चाचा?” बाहर आते हुए कच्चे दूध सी एक लड़की ने पूछा है।

“देख तो कौन आया है!”

“कौन है?” पूछते हुए वह बाहर आई है।

मैंने नजर पसार कर देखा है। लंबे कद की पतली सी कोई तेज और पैने नख शिख वाली लड़की है – जो उम्र में पक चुकी है। नदी के इस सुखद से वातावरण में तपोवन सा ही कुछ घुला मिला मुझे लगा है और अचानक उस लड़की पर दुबारा नजर गई है तो दुष्यंत की शकुंतला को पानी देते पकड़ लिया है।

हम दोनों की निगाहें टकरा गई हैं। एक लमहे के बाद ही मैं नीम के पेड़ के अंदर से झांकते सूरज को देखने लगा हूँ और वैशाली किलोल करते हिरन के पीछे हो ली है।

“ये हैं ..” आचार्य मेरा परिचय कराना चाहते हैं।

“दलीप! देहली वाला ..” कहकर मैंने सच झूठ का सम्मिश्रण सा तैयार कर आचार्य की जुबान पर चढ़ा दिया है।

“नमस्ते!” वैशाली ने अति शिष्ट भाव से अभिवादन किया है।

“नमस्ते! आप ..?” मैंने भी परिचय पा जाने की मांग की है।

“वैशाली – मेरी बेटी है। बस हम दो ही हैं।” आचार्य ने संक्षिप्त में कहा है।

“क्यों ..? ये – गाय, भेंस और किलोल करता वो हिरन भी तो ..?”

“हां-हां! वो भी शामिल हैं।” हम तीनो तनिक हंसे हैं और आस पास की चुप्पी परास्त सी हो गई है।

“इसका नाम भारत है!” वैशाली पास आ कर बोली है।

हिरन का वो बच्चा मुझे गोल-गोल बटन जैसी आंखों से देखता लगा है। उसका चितकबरा छरहरा बदन मुझे काली खूंटियों के मानिंद सींग और सुघड़ सा चेहरा मोहरा दिखाई दे गए हैं।

“नाम बहुत अच्छा है!” मैंने तारीफ की है।

“वैशाली ने ही धरा है।” आचार्य ने खुश होते हुए कहा है।

“और इनका नाम भी ..?” मैंने फिर मजाकिएपन में कहा है।

“वो मैंने रक्खा है!” आचार्य ने कहा है।

हम तीनों फिर से हंस गए हैं।

“मैं भी महामूर्ख हूँ। बेटी मैं बताना भूल गया कि इन दलीप जी ने आज मेरी लाज रख ली। उस राक्षस कल्लू से रक्षा करने साक्षात भगवान राम के वेश में प्रकट हुए। और हां लेप लगाना। इनका पैर मुर्रा खा गया है।”

आचार्य मानो एक दम एहसान चुकाने पर उतर आए हैं। मैं अब भी टकटकी बांधे वैशाली को देखे जा रहा हूँ। वह बिना कुछ कहे मुड़ी है और बाहर चली गई है।

“मैं अंदर खटिया डाल कर बिस्तर कर देता हूँ। वहीं आराम से लेटना और वैशाली बाकी सब संभाल लेगी।” आचार्य ने मुझे दिलासा सी दी है।

“काफी होनहार लगती है?” मैंने यूं ही कहा है।

“हां! प्राकृतिक इलाज में बहुत चतुर है। ये मैंने ही इसे सिखाया है। ये हमारे कुल की परंपरा समझो। वैसे भी संस्कृत में इसने शास्त्री की परीक्षा पास कर ली है।”

“लगता है आप इसे बहुत प्यार करते हैं?” मैंने फिर पूछा है।

“हां! अकेली संतान है और मेरे जीवन का आधार भी। पर आप ..?”

आचार्य चुप हो कर घर के दरवाजे पर निगाहें गढाए कहीं गुम हो गए हैं। उनके मन में कोई संघर्ष चल पड़ा है। सहसा बेजान सा शरीर किन्हीं दहकते शोलों से जा जुड़ा है।

“बड़ी हो गई है। शादी होगी और चली जाएगी!” मैंने वाक्य पूरा कर दिया है।

“शादी ही तो जटिल प्रश्न है, दलीप!” आह छोड़ कर आचार्य ने कहा है।

मेरी आंखों के सामने पेड़ों के पाल से छनती रोशनी कुछ द्रूह से चित्र बनाती लगी है। शादी के चित्र – दुलहन की कच्ची सुडौल आकृतियां – होती मौत – लहू और डकराती रोती औरतें – मैं एक साथ सब को देख गया हूँ।

“लड़की सुशील है, सुंदर है, पढ़ी लिखी है फिर भी जिसे देखो धन मांगता है।”

आचार्य ने वही पुरानी शिकायत की है। जैसे मैं पहली बार सुन रहा हूँ – तो क्या मैं इस तरह हमेशा दूसरों की शिकायत सुनता रहूँगा। कहीं भी जाऊंगा लोग मुझे गलत मान लेंगे और आज की समस्याएं मुझी पर थोप देंगे?

“सो तो है!” मैंने जैसे कुछ भी नहीं कहा है।

“गरीब ब्राह्मण हूँ। मास्टरी से जो धन मिलता है – आधा खर्च हो जाता है। और कोई आमदनी है नहीं। अब तुम्हीं बताओ ..”

“समय आएगा तो बताऊंगा!” मैं कह देना चाहता हूँ पर चुप बना हूँ।

आचार्य अचानक चुप हो गए हैं। मैं कड़ी नजरों से उन पर अकर्मण्यता जैसा ही कोई जामा पहना कर उसे बरखास्त कर देना चाहता हूँ। कह देना चाहता हूँ कि वैशाली मेरी नहीं। लेकिन मन को नहीं मना पा रहा हूँ। थक गया हूँ मैं। तनिक सुस्ता लेना चाहता हूँ।

“स्कूल जाऊंगा। तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होगी।” कह कर आचार्य चले गए हैं।

मैं वहीं पड़ा-पड़ा छलांग भरते हिरन को देखता रहा हूँ। तनिक आचार्य राम स्नेही को लपकते पैरों से जाते देखा है। गाय भैंसों ने एक बार मुझे गोल-गोल भीगी आंखों से देख कर अपनापन जाहिर किया है।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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