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स्नेह यात्रा भाग दस खंड पंद्रह

sneh yatra

सुनहरी बालों वाली को हंसते देख मेरा हंसी का सूखा स्रोत एक दम हरा हो गया है और पता नहीं कैसे अट्टहास की हंसी – जिसे मैं अब तक भूल ही गया था, मेरे अंदर से अनवरत फूट चली है।

“हाहाहा! हाहाहा! जिंदगी .. ओह जिंदगी .. लव – अच्छा-अच्छा बोल तेरा नाम क्या है – डिअर!”

“क्रिस्टीन .. स्ट्रीन नहीं बेबी ..”

“क्रिस्टीन …! हूँ .. बोल गया ना?”

“लगता तो है कि तू मर्द है?”

“मरद …? हां-हां! नब्बे पैसे वाला मरद! अब बोल तुझे क्या चाहिए?” मेरी जुबान इठने लगी है।

“ऐ …! तू ऐसा कर .. ये दुनिया मिटा दे!”

“ऐ …! ऐ तू ऐसा कर एक दुनिया बसा दे?” मैंने भी उसकी मांग के साथ अपनी मांग जोड़ दी है।

मैं और क्रिस्टीन एक दूसरे को आंखों में घूरते रहे हैं। आंखों की चमक के शूल हम एक दूसरे में छेदते रहे हैं। एक पल पहले की क्रिस्टीन – जो हेय लगी थी अब मुझे मादक लग रही है। मैं अपनी प्रस्तुत मांग पर खुश हूँ क्योंकि न क्रिस्टीन दुनिया बसा पाएगी और न मेरे उजाड़ने का नम्बर आएगा।

“ऐ …! औरत दुनिया बसाती है न?”

“सुना तो है ..!”

“तो ले – पिक इट! मैं पीछे नहीं हटती!” क्रिस्टीन उठकर बैठ गई है।

बीच पर बिखरा अनचाहा अंधेरा आकाश पर अमर मुसकान से भरा तारा मंडल, सागर की पछांट खाती लहरें और शहर की झिलमिलाती बत्तियां सभी से मैं और क्रिस्टीन बे मालूम लगने लगे हैं। शायद हम ये भी भूल गए हैं कि दुनिया की रचना में इन सब का शामिल होना निहायत जरूरी है। क्रिस्टीन ने इन्हें पिछड़ी कोई संज्ञा जान दुनिया में शामिल नहीं किया है। वह तो रेत समेट-समेट कर नई-नई आकृतियां बना रही है।

“ऐ …! ये .. कैसा घर? ऐ .. बाजार? ऐ .. बगीचा? ऐ .. सिनेमा ..”

“ओए …! साली बीचो बीच किला बनाना तो भूल गई? हींहींहीं ..” मैं एक फूहड सी हंसी हंसा हूँ।

“चुप ..! किलों का जमाना चुक गया बे ..!”

“ओए …! बाप रे – पीने का ठिकाना .. भूल गई न?”

“ऐ …! मेरी दुनिया में दारू नहीं चलेगी!” क्रिस्टीन ने मुझे वरजा है।

“प्रोग्रेस .. मीन्स .. टोटल .. यानी कि एक दम – सब?”

“हां-हां! एक दम सब!” दृढ़ स्वर में उसने मेरी बात का समर्थन किया है।

“तो तू तो हार गई! क्या पी कर जीतेगी?”

“कोई साला .. आता जाता नहीं होगा! मैं जो बन रही हूँ यही ..! ऐ बस एक बड़ी नदी और उस पर ऊंचा पहाड़!”

“तोड़ दूं?” मैं भी जैसे उसी सहजता से भरा हूँ जिससे क्रिस्टीन दुनिया बसाती जा रही है।

“ठहर-ठहर! बे जल्दबाजी काम खराब करती है!”

क्रिस्टीन अब सोच-सोच कर और रुक-रुक कर अपनी दुनिया बसा रही है। मैं दत्त चित्त उन रेतीले खाखों में जड़ जंगम और पहाड़ बन उगते देख रहा हूँ। अचानक बालू का हर कण जी उठता है और क्रिस्टीन अपनी इस दुनिया में जान फूंक अलग हट जाती है।

मैं जैसे कोई नरभक्षी अब तक इस रचना को विध्वंसकारी मोह से तकता रहा था। क्रिस्टीन का हरा भरा बसा संसार मेरी आंखों में चुभने लगा है। यहां फैली खुश फहमी से मैं जल उठा हूँ। अंदर अब तक का सिमिटा क्रोध, सही यंत्रणा के असह्य पलों का प्रतिकार और एक निश्छल सी घृणा मुझे कुछ करने को प्रेरित करती लग रही है।

मानवीय ममता भूल मैं दुनिया उजाड़ने को टूटा हूँ। मैं आकाश के शून्य पर ठहरा कोई गिद्ध हूँ जो मरे शव पर अधिकार समझ झपट पड़ा है! कहानियों में वर्णित असुर की तरह ही मैं एक-एक कर उन घरोंदों को मिटाने लगा हूँ। पहाड़ों को गर्दन से पकड़ समुद्र में डुबो रहा हूँ, अदम्य भाव से भरभराती भूख में मैं आदमी पर आदमी चढ़ाता चला जा रहा हूँ। लोगों की चीख और मर्म स्पर्शी रुदन अब मुझे दुख पहुँचा रहा है।

त्यागी मरा पड़ा है, नवीन औंधा पड़ा गालियां बक रहा है, शीतल और श्याम की लाश पर सर पकड़ रो रहा मैं और पहले वाला तथा जकारिया जैसे सैकड़ों गीदड़ मरते ही जा रहे हैं। मैं खड़ा-खड़ा हंसने लगा हूँ। अनंत ब्राह्माण को यों ठोकर से उड़ाने की सामर्थ्य मुझे एक असुरी उल्लास से भरती जा रही है।

“सालों …! ये देखो मौत .. ये देखो विध्वंस और ये रही प्रलय! तुम्हारे ही अनाचारों ने प्रलय मांगी है! तुम सोचते थे कि ..” मैं हँसता ही जा रहा हूँ।

“वाह-वाह! मरद वैल डन!” क्रिस्टीन कहते-कहते बेहोश किसी अनाम सफलता के साथ रेत पर निढाल पड़ गई है।

मैंने नजर उठा कर देखा है। आगरा की तलहटी एक ललौंही आभा से भरने लगी है। मैं सोच रहा हूँ – अब सूरज उग कर क्या करेगा .. महा प्रलय के बाद आ कर यहां यों चले आना .. किस काम का? बहती शीतल और मन स्वस्थ करती बयार कोई दृश्य बदलती लग रही है। मैंने एक पल बलुही विध्वंसकारी दुनिया का जायजा लिया है। मेरा मन भी कुछ एक भावावेश बनते बिगड़ते देख रहा है।

“अच्छा हुआ सालों! पर सालों मिल गए न मिट्टी में, हुआ न सब बर्बाद? फिर क्या तेरा और क्या मेरा? और वह चोर .. यू फ्रॉड!” मैं उसी विध्वंसकारी महा विनाश में फिर से जुट गया हूँ।

“वैल डन!” ललौंहे झुटपुटे से एक अजान शक्ल उठकर सामने आई है।

हतप्रभ मैं उसे घूरता रहा हूँ। बिछी लाशों में से वो सजीव मानव का उभर आया चमत्कार लगने लगा है। लगा है – कुछ अप्रत्याशित सा घट गया है और मैं किसी छलावे का शिकार हुआ हूँ। आंखें दोनों हथेलियों से मसल ताजा की हैं और हवा में भरे धुंधलके के पार चीर कर उसे पहचानने का भरसक प्रयत्न करने की चेष्टा में मैं एक कदम आगे सरक गया हूँ। पीछे सपाट आकाश और मेरे बीच भरे शून्य पर एक दृश्य ठहर सा गया है। एक अज्ञात बिंदु अचानक जग गया है।

“तुम ..? फिर आ गई साली ..?” मैंने सोफी को पहचान लिया है।

परछाईं हिली तक नहीं है। मैं अब रोष में तनतना उठा हूँ। मन आया है सोफी को यों रोंद-रोंद कर मिट्टी में मिला दूं – प्यार और सम्मोहन जैसे उंगलियों पर गिना है। उसी असुरी उल्लास में गरज-गरज कर अच्छाइयों की ओर जाती मन की काया काट कर फेंक दी है।

“हाहाहा! होहोहो! ओह .. ओह ओए यू .. अब मिलने आई है?

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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