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स्नेह यात्रा भाग दस खंड पांच

sneh yatra

अस्त होता चंद्रमा मेरे पस्त इरादों को उभारता लगा है। गोधूलि की आभा जैसा प्रकाश भी तिमिर बन जाएगा, सब अंधकारमय हो जाएगा, नदी और किनारे सभी घिल्लमिल्ल हो कर आपस में मिल जाएंगे तो मेरा क्या होगा?

किनारे पर लम्बा बिछा मैं किसी आदि शक्ति को याद करने लगा हूँ। किसी चमत्कार के घट जाने की कल्पना में अपने टीसते बदन को भूल जाना चाहता हूँ। आज पहली बार मुझे अपनी शारीरिक शक्ति के छोर पा गए हैं। आदमी की तुच्छ औकात पर हंसी आने को है और इच्छा और आकांक्षा मुझे एक भ्रम जाल लगा है जिसमें भटक कर आदमी की देह अधूरी चाहतों के साथ फूंक दी जाती है ताकि वह फिर आ कर जूझने की चाह न भरे और प्राण कहीं वापस न आ जाएं।

सरकती निगाहें एक गोल-गोल काले धरती पर छपे धब्बे पर जा टिकी हैं। ये धब्बा कोई सौ पचास गज की दूरी पर ही है। जरूर कोई ठिकाना है – मेरे कॉमन सेंस ने मुझे एक दुबली सी आशा पिला कर आश्वस्त किया है।

मैं ये सौ पचास गज सरक-सरक कर तय करता चला गया हूँ। शरीर के पोर-पोर में टीसें भर गई हैं। हर मांस पेशी संजोई शक्ति लगा चुकी है और अब मेरा दम फूल गया है। हाथों ने पक्के चबूतरे को इस तरह कस कर पकड़ा है जैसे किसी सड़ासी का फटा मुंह बंद हो जाता है। मैं उलम कर बड़ी मुश्किल से शरीर को ऊपर खींच पाया हूँ। शायद एक मंदिर है – भगवान का एकांत ठिकाना जहां शरणागत बनना शर्मनाक नहीं लगता। मैं सत छोड़ कर अंदर मंदिर में जा पड़ा हूँ।

कोई सुन्नपात सा शरीर की चेतना खाता चला जा रहा है। चीख निकाल देने वाली टीसें चींटियों के पैरों के आभास जैसा ही कोई अनुभूति बनती जा रही है। एक अचेतन समुद्र आत्मा में भरने लगा है। मैं स्थूल शरीर को पीड़ाग्रस्त छोड़ कहीं उड़ गया हूँ। सवेरा होने की आशा मुझसे बिछुड़ गई है। सफलता या जीने की ललक कोई तपिश नहीं भरती लगी है। निष्प्राण शरीर भगवान की भेंट चढ़ा उसी का बेजान फूल है जिसकी सुगंध कहीं पीछे छूट गई है।

“तोड़ो भइयों – मैं सुगंध देता हूँ।” एक कर्कश स्वर मेरे कानों के पर्दे भेद गया है।

मेरी चेतना जगी है। आंखें खोल कर मैंने देखा है तो चमकीला प्रकाश मुझे चौंका गया है। भोर तो कब का हो चुका है – मैं एक ही लमहे में जान लेता हूँ। इसके बाद कस्सी कुदालों की खटाक पटाक की आवाजों से चबूतरे के खुदने के शब्द मैं सुनता हूँ। मैंने करवट बदल कर अपने शरीर की स्थिति बदली है। रक्त संचार और समूचे शरीर में जागृत प्राण मुझे अपने जिंदा होने का बोध करा गए हैं।

“ये अधम है कल्लू .. देख! अब ये नरक में जाएगा!”

“नरक ही ठीक है पंडित! आज कल बहुमत पाने के लिए वही ठीक ठिकाना है।”

खिल्ल-खिल्ल हंसता कोई मानव समूह पीछे बीती बात का समर्थन करता लगा है। पहले वाली धर्म गुहार को पीछे वाला अतिरिक्त उपहास पी गया है।

“मंदिर तोड़ना पाप है! सनातन का अपमान है! देखो ..”

“कचहरी में क्यों नहीं बोला, साला ढ़ोंगी ..”

मैं खुदते चबूतरे के साथ-साथ इस मंदिर के ढा देने की बात जोड़ पाया हूँ तो स्थापित मूर्ति की ओर टुकुर-टुकुर देखने लगा हूँ।

आदि शक्ति का उदय होता नहीं लग रहा है। एक कृतिम प्रसन्नता मुख पर बखेरे ये मूर्ति चिरकाल से लोगों को बहकाती रही होगी कि इसके चमत्कार हैं, शक्ति है, वरदान देने की क्षमता है और मनोरथ सफल करने की सामर्थ्य है। पर आज जब सर पर कुदाल बजने जा रहा है तब भी ये प्रसन्न है – क्यों?

“सात पुश्त तक नरक में जाओगे कल्लू – कहे देते हैं। याद रखना ..” गाय की तरह डकराता ये शायद पुजारी है जो कल्लू से कचहरी में मात खाने के बाद कल्लू को नरक स्वर्ग और पाप पुण्य जैसे अस्त्रों के अज्ञान में बांध कर डरा देना चाहता है।

“इस साले में दो धर दो! यों नहीं मानेगा ये ब्राह्मण ..!” कोई दूसरा गरजा है।

मैंने अपने आप को उठने के लिए राजी कर लिया है। हंसती मूर्ति की ओर देख कर मैं भी हंस गया हूँ – जैसे कोई शरणागत आभार चुका रहा हो।

“थेंक यू गॉड!” मैं बुदबुदाया हूँ।

बाहर पुजारी पर धक्के, लात घूंसे और गालियों की बौछार होने लगी है। वह अब भी धरम करम की दुहाइयां देता डकरा रहा है। उचक कर भगवान की मूर्ति मेरे कान में कुछ कहती लगी है।

“मैंने तुझे अनर्थ से लड़ने के लिए बनाया है, दलीप! मेरी ही शक्ति तो तुझमें संचारित होती रहती है।”

मैंने बाहर झांक कर देखा है। पुजारी खेत में पड़ा-पड़ा पिट रहा है। चार पांच लट्ठे कट्ठे लोग चबूतरा खोद रहे हैं। एक व्यक्ति – लंबे कद काठ का खादी के कुर्ते धोती में धंसा ये सब खेल खड़ा-खड़ा देख रहा है। मैं जान गया हूँ कि ये कल्लू ही है।

“बंद करो ये मार पीट!” मैं मंदिर की चौखट पर खड़ा हो कर गरजा हूँ।

सभी एक अप्रत्याशित चमत्कारी प्रभाव के प्रकोप से भयभीत हो गए हैं। एक पल के लिए उन सब की सांसें रुक गई हैं। मैं इन लोगों के उतरे चेहरों का मुआइना कर गया हूँ।

“तुम कौन होते हो?” कल्लू ने साहस बटोर कर पूछा है।

कल्लू की आवाज उतनी निर्भीक नहीं जितनी पुजारी को दुत्कारते समय थी। वह किसी अज्ञात रूप से अब भी आतंकित लग रहा है। उसका पितराया सा चेहरा काले रंग के साथ मिल कर उसका गर्व सा ढा गया लगा है। लोगों की निगाहें भगवान जवाब मांगते कल्लू को टटोल रही हैं!

“तुम कौन होते हो जी?” मैंने इस तरह पूछा है जिस तरह कोई कुंए से पूछा प्रश्न अवगुंजित हो गया हो।

“कल्लू! इस गांव का ..”

“ठेकेदार ..? समझ गया, समझ गया! अब जाओ कल्लू, छोड़ दो उस पुजारी को!” मैंने वहीं खड़े-खड़े आदेश दिया है।

पुजारी की पिटी देह, बेबस आंखें और जुल्म सहता धर्मात्मा मन दूर से ही मुझे धन्यवाद दे गए हैं।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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