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स्नेह यात्रा भाग दस खंड नौ

शून्य में नोटों की भारी गड्डियां मेरे गिर्द घूमने लगती हैं। मैं किसी थके हारे इंसान सा मरुस्थल की मोटी-मोटी रेत खा कर अपनी जनसेवा और समाज सेवा के मोह से अब भी निकल नहीं पा रहा हूँ। जो धन मैं गरीबों में बांटना चाहता था वो अब भी ताले तिजोरियों में बंद है। लोगों के लालची मन पहरे पर खड़े हैं और ये पहरुए होते अनाचारों को एक नए लालच के साथ देखे जा रहे हैं। झूठी धन और मान मर्यादा के हेतु इन लालची लोगों ने नए सुरक्षित दायरे बना लिए हैं। समाज को बहका कर गलत दिशा दे दी है और यों क्षत-विक्षत हुई खुद में परास्त इस समाज की संरचना पर खुल कर खूब हंसते हैं, मैंने देखा है।

आचार्य राम स्नेही विद्वान हैं, संस्कारों से मालामाल हैं और जन सेवा और समाज सेवा के अंश उनमें विद्यमान हैं। फिर भी उस पर मार पड़ती है। गांव में धेले की इज्जत का दावेदार नहीं है और यहां तक कि अपनी जवान, सुशील और गुणवती बेटी के हाथ भी पीले नहीं कर सकता! मुझे आचार्य इस धनाभाव की व्यर्थता से आहत एक तुलसी का बिरवा लग रहा है जिसकी महत्ता मिट गई है।

“लो, दूध पी लो!” वैशाली एक लंबे तीन टन वाले गिलास में दूध भर लाई है।

मैंने अपनी बोझिल पलकें उठा फिर वैशाली के अंतः में झांकने का विफल प्रयत्न किया है। वह कहीं अज्ञात में कुछ खोजती लगी है। दूध का गिलास पकड़ने की गरज से मैंने हाथ बढ़ाया है और जान मान कर वैशाली की सुघड़ लंबी-लंबी उंगलियों को छू लिया है। वह एक कंपा देने वाली झुरझुरी से भरती लगी है।

“नींद आ जाएगी?” मैं यूं ही बतियाने की गरज से बोला हूँ।

“हां! और थकान भी जाती रहेगी।”

“सच ..?”

“देख लेना।” कहते हुए वो पैर पर किए लेप को देखने झुक गई है।

यों आज तक मैं लड़कियों के सम्मान में लाखों बार आया हूँ पर जो आज अनुभव कर रहा हूँ वैसा कभी नहीं मिला था। वैशाली ने एक अलग-थलग सी जगह मेरे अंतर में बना ली है जहां हमेशा वह खड़ी होने को स्थान पा जाएगी। स्मृति पर पड़ी गहरी परतों को भी चीर कर हमेशा ऊपर आया करेगी उसकी याद। वैशाली के झुकने के इन छोटे पलों में मैं कई जन्म जी गया हूँ। बहुत कुछ बिना उसके चाहे पी गया हूँ। मधुर रस पी कर आश्वस्त हुआ मैं अब आभार चुकाने को हूँ। एक शपथ ग्रहण करने लगा हूँ – धन कमाने की शपथ, दोबारा धनी बनने की शपथ और अबकी बार ये सब करना चाहूंगा – वैशाली के लिए, अपमानित आचार्य के लिए ताकि ..! मैं ठिठक गया हूँ। शून्य में घूमती नोटों की गड्डियां फिर वैशाली को खरीदती लगी हैं। थका शरीर शनै-शनै निद्रा देवी की गोद में सो जाता है।

मेरे कानों में रणभेरी के शब्द भरने लगे हैं। मैं एक अभेद्य शस्त्र पा कर सब होते पाप, अपराध और कुरीतियों का हनन कर एक ऊंचे टीले पर चढ़ जाता हूँ। चारों ओर जमा भीड़ जय-जयकार करने लगती है। पुष्प वर्षा होती है और मैं पुन: अपनी आकांक्षाओं के आकार पर आरूढ़ हो जाता हूँ।

“चैक बना लेना!” मैं मुक्ति को कह रहा हूँ।

“कितने का सर?” उसने अपनी आदम के अनुसार पूछा है।

“ऐसा करो, मेरा सब कुछ वैशाली के नाम लिख दो।” मैंने बेफिक्री से कहा है।

“लेकिन क्यों?” सोफी सामने खड़ी जैसे हक मांगने प्रकट हो गई है।

“इसलिए कि वैशाली में प्यार की नई परिभाषाएं हैं। एक सोने चांदी में तुलने वाला चरित्र है। हिरन का नाम भारत रख स्वदेश के प्रति आभार उसमें चमकता है और प्राकृतिक इलाज बेदाम करने से त्याग की भावना सिद्ध हो जाती है।”

“तो इससे क्या होता है?” सोफी ने आज अपनी आदत के अनुसार तर्क करना चाहा है।

“वैशाली कभी भी इस संपत्ति का दुरुपयोग नहीं करेगी। मैं जानता हूँ – शायद वो इसे इन दवाइयों की तरह ही दान करेगी!”

“समाज कल्याण का ये सही रास्ता नहीं है दलीप! भूखों को एक वक्त का भोजन कराने से उसकी एक वक्त की भूख मिटती है। लेकिन उसे स्वयं पेट भरने का रास्ता बता कर उसकी भुखमरी दूर हो जाती है। तुम्ही सोचो ..?”

“मैं तुमसे मजाक नहीं कर रहा हूँ। सोफी को देखो ..”

“मैं तुम्हें भलाई और मदद करने से नहीं रोकूंगी दलीप!”

“फिर ..?”

“भावाकुल हो कर गलत काम मत उठाओ ..”

“मुझे मत सिखाओ।” मैं गुर्रा कर उसे चुप कर देना चाहता हूँ।

“क्यों सच्चाई को झुठला रहे हो। अब तक तुम मुझसे सीखते आए हो, प्रेरणा लेते आए हो और अब भी कहे देती हूँ – किसी भी सफलता का दुरुपयोग बुरा है दलीप!”

“पर वैशाली ..?” मैंने दुहाई जैसी दी है।

“वैशाली से मुझे ईर्ष्या या स्पर्धा नहीं है। मेरा और वैशाली का जूझने का एक अलग स्थान है और यहां तक कि वैशाली का भी अधिकार है। उधर देखो – यमुना का पानी किस कदर नीला जान पड़ रहा है पर वास्तव में वो नीला नहीं है। इसका कोई रंग रूप नहीं है।”

“मतलब?”

“मतलब – वैशाली भी वैसी ही एक इकाई है जिसके साथ जोड़ोगे वही रंग होगा!”

“मान गए सोफी! तुम को ..”

“चापलूसी करना भी आ गया है?”

“सीखने की कोशिश तो की है!”

“क्यों?”

“अरे काम नहीं चलता। सोचता हूँ अगर मुझमें तनिक सा झुकाव होता ..”

“तो क्या होता?”

“शायद जो हुआ है वो नहीं होता!”

“गलत! एक दम गलत सोच रहे हो दलीप। अपने को पूछो कि तुम और कितने कुछ बन गए हो। तुम्हारा अपना निश्चय इस जटिल परिस्थिति से गुजरना ही चाहिए था।”

“सोफी! तुम मुझे चैन क्यों नहीं लेने देतीं?”

“मैं नहीं ये तुम्हारे ही अंतर की आग है जो हर पल धधकती रहती है!”

“कब बुझेगी ये आग?”

“जब तुम आग में आत्मसात होने आ जाओगे!”

“रास्ता लंबा है और मैं अकेला ..!”

“मैं आ तो जाऊंगी दलीप .. समय को आने दो!”

फिर अकेला छोड़ सोफी चलती बनी है। मैं जो नए अर्थ ओढ़ कर बदला था सोफी उघाड़ कर अलग राह बता गई है। कई बार मैं सोफी पर खीज गया हूँ कि क्यों वो मुझे सताती है। अकेला छोड़ जाती है तो लगता है सोफी ही सच्चाई का दूसरा नाम है। उसमें कोई कहीं भी खोट खराबा नहीं है। कोई बनावट नहीं और सच को सच कहने की एक अदद हिम्मत है जो कभी-कभी मुझमें रित जाती है!

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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