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स्नेह यात्रा भाग दस खंड दो

sneh yatra

“मुक्ति!”

“सर!”

“मैं देहली जाना चाहता हूँ!” मैंने भर्राए कंठ से ही मांग जैसी की है जिस पर मैं अपना अधिकार खो बैठा हूँ।

“अब संभव नहीं सर!” मुक्ति ने संयत स्वर में कहा है।

“क्यों? मैं कोई ..?” मैं अब हांफ रहा हूँ।

लगा है कमरे की दीवारें कोई कमजोर जैसी बेबसी से बनी हैं – जिसे भेद पाना अब सुलभ नहीं।

“सर! मॉब इज वॉयलेंट। शायद है कि आप पर हमला बोल दें।” मुक्ति ने मुझे समझाने का प्रयत्न किया है।

“तुम क्या कर रहे हो?” आज पहली बार मैंने मुक्ति से ये सवाल पूछा है – मानो मेरा विश्वास चुक गया हो, वफादारी नाम की सारी संज्ञाएं मिट गई हों।

“शीतल और श्याम से सुलह करने की कोशिश कर रहा हूँ!” मुक्ति ने बताया है।

शीतल और श्याम दोनों नाम के अदृश्य हथौड़े जैसे मेरे सर में जोर से बजे हैं और कलेजा कांप कर रह गया है। जिन नामों से कभी सौहार्द और आत्मीयता टपकती थी उन्हीं से आज घृणा और घात जैसा कुछ अंतर में भरता लगा है। मैं सारी उम्मीदों को तलाक दे निढाल सा बिस्तर पर जा पड़ा हूँ। कपड़ों से चिपकी शीतल के सेंट की खुशबू अब भी विद्यमान है। जैसे शीतल मुझे अकेला छोड़ना नहीं चाहती – फिर से नए रूप में मानस पटल पर उभर आती है।

“एक बार सिर्फ एक बार तुम्हारा क्या बिगड़ जाता – मेरा मन रह जाता ..!” वही आंखों में भरी कामुक गुहार मेरे अंग गरमाने लगी है। “देखो मेरा गदराया अंग, ये देखो अधर – कसाव – कटाक्ष और दूध सी खिलखिलाती हंसी। गंगा का बहता पानी जैसा स्वच्छ, निर्मल मन जिसमें एक ही तैराकी आकर धंसा था और निकल भागना चाहता है। क्यों भागते हो?”

“इसलिए कि .. तुम मिथ्या हो, लोभ और पाप की गठरी हो – डूबती नौका हो जिसके साथ मैं डूबना नहीं चाहता!”

“हाहाहा! तुम डूबना नहीं चाहते? मजाक मत किया करो प्रिंस!”

“शट अप!” मैं जोर से चिल्लाया हूँ और फिर उन्हीं कोल्हू के बैल के गोल-गोल चक्करों में जुत गया हूँ।

मैंने हर बार खजुराहो की मूर्तियों को देखा है पर अबकी बार सोफी एक बार भी नहीं आई है। शायद मेरा उद्विग्न मन उसकी कल्पना करना ही भूल गया है। इस संकट में एक आस सोफी होनी चाहिए थी जो नहीं है। कल अगर वो आई और लोगों से कुछ सुना तो रूठ जाएगी। सोच लेगी – मैं अपने व्यसन जीत न पाया हूँगा – मैं अपने कच्चे विश्वास बिसार बैठा हूँगा – उसकी किस्मत धोखा खाने को ही बनी है – शायद और तमाम ये झूठे तथ्य उसे बहका देंगे – तब मैं सोफी तक सच्चाई पहुंचाने का कोई जरिया नहीं। मैंने हिम्मत करके फोन उठाया है।

“गैट मी ए कॉल टू यू एस ए!”

“सॉरी सर! देहली लाइन इज डाउन!” ऑपरेटर ने भी दुश्मनी जैसी निकाल मुझे निराश छोड़ दिया है।

आज बड़ी मुश्किल से शाम हुई है। अंधेरा छाता मुझे भला लग रहा है। बाहर स्याही में डूबती भीड़ आंखों से ओझल होती चली गई और चश्मदीद गवाह अंधे होते गए हैं। मैंने अपने कमरे में जीरो का बल्ब जला प्रकाश को बहुत धीमा रक्खा है ताकि कच्चा मन उसकी धुंधली चमक सह ले। मैं इस चिंता में हूँ कि अब अकेले रात किस तरह बीतेगी?

“सर!”

“यस मुक्ति!”

“इंस्पेक्टर राना वारंट लेकर आ रहा है।” मुक्ति की आवाज किसी असहाय वेदना से भरी लगी है।

“अपने आप को हवाले कर दूं?”

“सर! मैं .. मैं तो ये कभी नहीं चाहता पर ..?”

“श्याम और शीतल से सौदा नहीं पटा?”

“श्याम तो राजी था पर शीतल .. आई मीन आप से कोई पुराना बैर चुका रही है।”

“पुराना नहीं वो बैर एक दम नया है।” मैंने मजाक मारा है।

मन में तो आया है कि एक छोटे से पाए इस लमहे में मुक्ति को शीतल के बारे में सब कुछ बता दूं। पर रुक गया हूँ।

“राना आ रहा है!” मेरे अंदर से आवाज अवगुंजित हुई है। “वॉरंट ..! हथकड़ी ..! कैदी ..! मुजरिम ..! जेल की सजा .. और मुकम्मल सजा!” कोर्ट कचहरी के सारे दृश्य दीवारों से लिपट-लिपट कर सामने आते गए हैं।

“तो क्या इन्हें जीओगे?” मैंने अपने आप से पूछा है।

“और चारा ही क्या है?” भीतर की लाचारी बोली है।

“माई फुट! सारे रास्ते तो खुले हैं!” जिद्दी दलीप कायर और लाचार दलीप को धमकाने लगा है।

“कानून हाथ में लेना ..?”

“हाहाहा! मैं मुजरिम थोड़ा हूँ। मेरा गुनाह तो बताओ?”

“गुनाह ..? तेरा गुनाह है ..”

“चल हट! भूल में न डाल! खिड़की का सीधा रास्ता ले और भाग चल!”

“लेकिन कहां?”

“बे साले! दुनिया के छोर तक नाप आया और अब पूछता है कहां जाऊं?”

एक गाज सी गिर कर मेरे अंदर का सारा सहम और कायरता जला गई है। मैं एक लमहे में कपड़े पहन खिड़की से छलांग लगा जमीन पर कूदा हूँ। पल भर चुपचाप बैठे रह कर मैंने आजू बाजू का कन्हेर लेकर अंधेरे में कोई छुपा खतरा टोह लेने का प्रयत्न किया है।

“कौन ..?” एक पहरुए की आवाज आई है।

इस कौन के साथ ही एक बिल्ली भाग गई है जो पहरुए की शंका निवारण कर मेरा काम कर गई है। मैं जमीन से चिपका आहिस्ता-आहिस्ता निकलने लगा हूँ। धरातल पर चिपके सूखे पत्तों के चर्राने का शोर बहुत ही होशियारी से काबू कर पाया हूँ। दस गज के फासले पर गेहूँ का खेत मेरी मदद करता मिला है। मौका लगा है और मैं चुपके से गायब हो गया हूँ।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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