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स्नेह यात्रा भाग दस खंड छह

sneh yatra

“काम शुरू करो!” कल्लू ने तैश में आकर हुक्म जारी किया है।

कस्सी, कुदाल थामे लोगों में मात्र एक सिहरन दौड़ गई है पर हाथों की खोदने की सामर्थ्य नहीं जागी है। मैं जान गया हूँ कि अब भी वो हतप्रभ किसी चमत्कार के घटित हो जाने की शंका का निवारण नहीं कर पाए हैं।

“अपने-अपने घर जाओ!” मैंने अत्यंत दृढ़ता के साथ कहा है।

सभी लोग मुझे घूरे जा रहे हैं। अचानक मुझे अपने लिबास का ज्ञान होने लगता है। भीगे कपड़ों पर चिपकी रेत, जमे मैल-माखर से पुता चेहरा, अस्त व्यस्त बाल और कच्ची नींद टूटने पर हुए लाल-लाल लोचन – साक्षात किसी दैवीय मूर्ति के रूप में जन्म लेता कोई चमत्कारी लग रहा हूँ। मैं अपने इस लिबास और उपस्थिति का फायदा उठाने की सोच किसी धर्मावतार के बतौर बोला हूँ।

“धर्म को ढाने से पहले सोच लो कि तुम कहो टिकोगे? क्या तुम्हारी आत्माएं गवाही देती हैं कि एक देव स्थान को गिरा दिया जाए? क्या भगवान इस पुजारी को ही प्रेरणा देता है, तुम्हें नहीं? इसी की रक्षा करता है – तुम्हारी नहीं? क्या कभी भूख में तुम इसका सुमिरन नहीं करते? अगर हां तो क्यों बेवकूफ बनते हो?”

एक सन्नाटा छा गया है। सभी लोग टकटकी बांधे मुझे घूर रहे हैं। मुझमें भावनाओं का स्रोत फूट पड़ा है।

“धर्म के सहारे आदमी संकट झेल जाता है। भगवान को याद कर कितनी ही दुर्घटनाएं भूल जाता है और थके मन को पूजा पाठ में रमा कर अथक शरीर प्राप्त कर लेता है। अगर जीने का ये माध्यम भी टूट गया तो मन की रिक्तता तुम्हें खुद खा जाएगी। तृषित मन किसे पुकारेगा? टूटे इरादे, विफल मनोरथ और डरा इंसान कहां शरण पाएगा? भगवान को मत भूलो मेरे भाइयों! मंदिर मत तोड़ो मेरे दोस्तों! हम सब को इसकी जरूरत है। जीने के लिए ये जीवन से भी ज्यादा अनिवार्य है।”

“तुम होते कौन हो?” कालू ने घुटी-घुटी आवाज में वही पिटा सा प्रश्न दोहराया है।

“घर जाओ कल्लू वरना आज की घटना के लिए तुम्हारे बच्चे भी तुम्हें माफ नहीं करेंगे। इंसान हो – भगवान से मत लड़ो। तुम इसके अंश हो अपनी ही इकाई से मत जूझो। तुम कायर नहीं हो कल्लू – तुम मानव मात्र हो – एक बेबस इंसान! जाओ, घर जाओ! पाप न कमा कर आज किसी की भलाई की सोचो तो तुम्हारा भी भला होगा!”

भावावेश इस तरह बहा है कि मैं कोई उपदेशक लगा हूँ। लोग नतमस्तक हो मेरी बात सुन कर चले जाना चाहते हें। उन्होंने एक बार फिर कल्लू को घूरा है। कल्लू शायद किसी अति लज्जित भाव से भर गया है। भीड़ एक-एक करके खिसकने लगी है। पुजारी अब भी टकटकी बांधे मुझे घूर रहा है। मुझे लग रहा है कि मैं बहुत कुछ सच उगल गया हूँ – जिसे मैं खुद नहीं जानता था उसे ही कहता रहा हूँ।

कल्लू कोई परास्त महारथी है जो फिर कभी भिड़ कर मुझे जीत लेने की शपथ ले कर पीछे हट गया है। उसके चले जाने पर पुजारी मेरी ओर मुड़ा है। पास आ कर वह मेरे पैर छूने को झुका है तो मैंने एक हाथ से उसे उठा लिया है। इसी बीच में टीसता पैर कह गया है कि मैं अब भी चल नहीं पाऊंगा!

“तुमने .. भगवान की ..”

“रक्षा की यही ना? नहीं पुजारी नहीं! इंसान तो खुद को भी नहीं रखा पाता!”

मैंने एक लंबी आह छोड़ी है जो मन में भरे हजारों शिकवे शिकायतें भगवान का मौन भंग कर गई हैं।

“मैं पुजारी नहीं – आचार्य राम स्नेही हूँ। यहां प्राइमरी स्कूल का हैडमास्टर हूँ।”

“ये सब तुम्हारे ही सिखाए पढ़ाए शिष्य थे क्या?” मैंने व्यंग किया है।

“आज के शिष्य, उनकी शिक्षा दीक्षा ..? नए संस्कार जमते कहां हैं?”

आचार्य राम स्नेही ने अति दीनता व्यक्त करते हुए मुझे समझने का प्रयत्न किया है। लगा है उसके प्रभाव की कमी किसी भी संतोषजनक समाज की संरचना में विफल हुई है।

“खैर छोड़ो! तुम कहां जाओगे?” आचार्य ने पूछा है।

“कहीं भी! जहां भी ठिकाना मिल जाए!” मैंने रूखे मन से इस तरह कहा है मानो पल भर पहले के आभार को भुला देने के जुर्म में मैंने आचार्य राम स्नेही से नाता तोड़ दिया हो!

“मेरे घर चलो!” एक सपाट सा आग्रह किया है आचार्य ने।

“ले चलो! मैं चल नहीं सकता!” मैंने अपनी बेबसी बताई है।

आचार्य राम स्नेही मुझे कंधे का सहारा दिए अपने ही बल से शरीर को आगे घसीटते अपने घर की ओर चल पड़े हैं। मेरे शरीर में अब भी एक टूटन सी प्रवेश पा गई है और अब थका सा बदन किसी वृक्ष का कटा तना लग रहा है। आंखें अब भी एक अजीब सी शून्यता से भरी हैं और पिरा रही हैं।

“ये सामने मेरा घर है। इसे मढ़ी कहते हैं।” आचार्य ने बताया है।

मढ़ी – पेड़ों के झुरमुट में दुबका एक कच्चा पुराना घर है। शायद पहला कोई अति ज्ञानी ध्यानी आदमी यहां आ गया होगा और एकांत पाने के मोह में फंस कर ही उसने ये पौधे उगाए होंगे। एक भेंस और एक गाय नीम के पेड़ के नीचे बंधी चारा खा रही हैं। एक हिरन का बच्चा इधर उधर छलांगें मारता फिर रहा है!

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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