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स्नेह यात्रा भाग दस खंड बारह

sneh yatra

अपनी पूरी सामर्थ्य लगा कर मैं मेले के प्रतिबंध में जुट गया हूँ। आचार्य की छोटी जमा पूंजी के पांच सौ रुपये मैंने वैशाली से अंट लिए हैं और आचार्य को शामियाना और कनात लाने पांच मील कस्बे तक दौड़ाया है। मैं अब पूर्णतः मेला को एक यादगार बनाने की सोच बैठा हूँ और चाहता हूँ कि गांव वाले इस दिए उदाहरण को हमेशा के लिए एक सबक की तरह सीख लें।

सप्ताह की दौड़ धूप के बाद दुकानें तरतीब में लग गई हैं, मंदिर की सजधज एक आकर्षण बन गया है और वैशाली का प्राकृतिक अस्पताल चर्चा का विषय बन गया है तथा यमुना पर नौका विहार की व्यवस्था एक अनूठा आकर्षण है। आचार्य को मंदिर संभालने को कहा है तथा मैं गांव के दो छोकरों को नाव चलाने में प्रवीण कर दुकानों से चंदा उगाहने चला गया हूँ। गांवों की खलकत से पूरा मैदान, यमुना तट और गांव भी भर गया है। मैंने वैशाली और चार मदद करती लड़कियों को प्राकृतिक अस्पताल चलाते देखा है। काम सुचारु रूप से चल रहा है।

मैं अभी-अभी चंदा उगाह कर लौटा हूँ। नौका चलाने से बल्ली की जेब नोटों से खचाखच भरी है। अचानक वैशाली सामने आ खड़ी हो गई है।

“मुझे भी नाव में बिठा लो?” उसने सलज्ज आग्रह किया है।

“पैसा लगेगा मेम साहब!” मैंने कड़क आवाज में कहा है।

गांव की स्त्रियां जो नाव में सवार हैं खिलखिला कर हंस पड़ी हैं। मैं जानता हूँ कि वैशाली को मेम साहब कह कर बुलाना ही उनके मन गुदगुदा गया है और शहर का छलिया बाबू बल्ली पकड़े कोई काल्पनिक सा दृश्य संजो रहा है। कुछ एक औरतों ने अपने खिंचे घूंघट को ऊपर उठा कर मुझे कनखियों से देखा है। मैं सिनेमा का हीरो जैसा ही लग रहा हूँ।

“उधार कर लो!” वैशाली ने होंठ को दबा कर कहा है।

मन आया है कि उसकी इस शर्मीली अदा पर मर मिटूं पर लगी आवाज मुझ पर लात घूंसे बरसाती लग रही है।

“उधार नहीं चलेगा। छोकरियां पटाती नहीं हैं!” मैंने उसी कड़क आवाज में उत्तर दिया है।

“बिठा लो बाबू! हम पैसे पटा देंगे!” एक सुघड़ सी अधेड़ उम्र वाली औरत ने ठट्ठा किया है।

“चलो बैठो! ठकुराइन ने तुम्हारी जमानत दे दी वरना ..” मैंने मजाक किया है।

वैशाली उछल कर नाव पर चढ़ काई है। वही लजाई सी हंसी की लहर नाव पर सवार औरतों में समा गई है। दो एक ने वैशाली को टोक कर पूछा है – तेरा कौन है री? वैशाली ने चिरैमा नेत्रों को तरेर कर रोष जाहिर किया है और मुझे भी तिरछी आंखों से वर्ज दिया है कि मैं अब कुछ न बोलूं!

चार दिन के कठिन परिश्रम के बाद मैंने आचार्य का घर नोटों से भर दिया है। अकेले मंदिर की आमदनी ग्यारह हजार, नाव की कमाई एक हजार, वैशाली के अस्पताल का योग तीन हजार और वहां के मान महसूल का योग पंद्रह हजार रुपये की रकम देख आचार्य कांप उठे हैं।

“इतना धन ..? नहीं-नहीं! दलीप, ये तो ..”

“चुप भी करो। अब मैं जो कहता हूँ – वही करो!”

“ये आमदनी .. दलीप ..?”

“किसी की चोरी की है क्या?” मैंने आचार्य को फिर टोका है।

“मंदिर का चढ़ावा ..?” आचार्य इस तरह धीरे-धीरे बोल रहे हैं जिस तरह दो चोर अपनी बूटी का बंटवारा कर रहे हों।

“इस धन से जूआ नहीं खेलते। कन्यादान में इसे लगाना भी किसी पूजा पाठ से कम नहीं है। कल जाकर अच्छे से अच्छा लड़का तलाश कर लाओ!”

मैंने चुटीले व्यंग से आचार्य को फिर एक बार दबा दिया है। आचार्य की बेबस आंखें मुझे नापने में लगी हैं।

“खरीदना ही हुआ .. दरअसल मैं इस दहेज की प्रथा से बहुत चिढ़ता हूँ।”

मैंने फिर से अपने व्यंग का विश्लेषण कर आचार्य को बताया है!

“तुम्हारे जैसे युवा पुरुष ही समाज गत इन कुरीतियों से लड़ेंगे तभी ..”

“लड़ाई तो छिड़ चुकी है आचार्य। समाज का अधोपतन रुक गया है। अब लौटने में कितना समय लगेगा – ये देखना है!” मैंने दार्शनिक की तरह दलील प्रस्तुत की है।

“हां! आज तो तुम्हें देख कर मुझे भी विश्वास हो रहा है। एक बात पूछूं?”

“हां-हां पूछो!”

“ये धन कमाने की कला ..?”

“मैंने भी अमेरिका में जा कर सीखी थी!” मैंने सच्चाई बताई है आचार्य को।

“अमेरिका ..? यानी कि तुम ..”

“हां गया था। वहीं देखा कि हर बच्चे से लेकर बड़े तक लोग अपनी रोटी खुद कमाते हैं। परिवार में कोई किसी पर बोझ नहीं होता। यही कारण है कि उनके परिवार हमारे परिवारों की तरह बोझिल और गरीब नहीं हैं!”

“ये तो है! हमने ये गरीबी खुद पाली हुई है। वास्तव में पैसे कमाने की हिचक हममें भर गई है। और अगर कोई कमाने पर उतर भी आए तो ..”

“दो नम्बर का धंधा करता है, ईमान बेचता है और जमीर खो देता है। आप ठीक कहते हैं!” मैं भावुक होता जा रहा हूँ।

वहीं कहीं एक उमंग उठती है मन में। दिल आता है कि देश की सारी गरीबी पकड़ कर सटक जाऊं और सोफी को जाकर बताऊं कि हम गरीब नहीं हैं। वैसे गरीबी है भी कहां? हम सोच बैठे हैं कि हम गरीब हैं – और कोई चमत्कारी पुरुष हमें आ कर उबार ले, कोई परव्राज्य अकेला और कुछ एक गरीबों को किनारे लगा दे!

“दूध पी लो!” वही वैशाली का स्नेहिल स्वर मुझे भटकने से रोक गया है।

“अब तो मैं ठीक हूँ! अब क्या जरूरत है!” मैंने वैशाली से पूछा है।

“जरूरत है, तभी तो!” दृढ़ स्वर में वैशाली बोली है।

इन चार दिनों में वैशाली ने भी खूब मदद की है। मुझ पर भी इसका एक अधिकार सा बन गया है। नहा लो, खाना तैयार है, दूध पी लो .. आदि-आदि आग्रहों से आज कल ये बड़े आत्मविश्वास और अपने पन से भरी लगती है।

“अब आप ही इसके लिए कोई लड़का तलाश करो, इसका क्या यह तो बेचारी है ..”

मैंने आचार्य को संबोधन कर वैशाली को मुड़ कर देखा है। वैशाली का आरक्त चेहरा एक अजीब सी लज्जा से भर गया है। गिलास मुझे थमा वह लौटी है। चौखट पर मुड़ कर मेरी ओर घूरा है। उसके मन का भाव उभर आया है। दांत भिच गए हैं और वो चली गई है।

मैं और आचार्य वैशाली को देखते रह गए हैं।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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