“चलो अंदर! बिस्तर हो गया है।” वैशाली ने स्नेह सिक्त स्वर में मुझसे आग्रह किया है।
मैं फटी-फटी आंखों से उसे घूरता रहा हूँ। वह आरक्त हुए मुख मंडल पर कोई लाल-लाल आभा संजोए इंतजार में छिटक कर खड़ी हो गई है।
“मैं चल नहीं सकता!” मैंने मरियल आवाज में उत्तर दिया है।
“अच्छा चलो, मैं ले चलती हूँ!” कह कर वैशाली सामने मुझे सहारा देने चली आई है।
मैंने उठ कर वैशाली के कंधे का सहारा गहा है। उसका कद बीच का है। बदन पर कोई मांसलता नहीं है। कंधे सुडौल तथा बांहें मुझे बलिष्ठ लगी हैं। मेरी चोर नजरें उसके वक्ष के उभार नाप आई हैं।
वैशाली मुझे आगे घसीट रही है। मैंने शरीर का सारा सत्त छोड़ उसी से संभाल कराई है। बिस्तर पर लिटा कर वह अंदर चली गई है। मेरी नजरें उसका पीछा करती चौखट पर अटक गई हैं। घर में कुल ये तीन कमरे, दालान और कोठरी आदि हैं जो पुरातन की छाप से दगे लग रहे हैं।
“दर्द कहां है?” उसने उसी स्नेह सिक्त आवाज में पूछा है।
“यहां ..!” मैं अतिरिक्त प्रयत्न के बाद ही बता पाया हूँ।
अंदर दालान में एकांत की चौकसी और वार्तालाप की अनुपस्थिति मुझ में कुछ अजीब से भाव भर गई है। यहां तक कि बाहर की गाय भैंस और फुदकता कूदता फुग्गे जैसा भारत भी जान न पाएगा कि किस तरह आंखों के मिलने का सिलसिला कुछ अदृश्य परछाइयों पर अंकित हो रहा है।
मन की मिटी सी चाह ने मुझे चतुरंगी सेना के साथ घेर लिया है। रस धर्मी वाक्य जो वैशाली कह गई है मैं आत्मा के किसी खाली कोने में उतार कर पचा नहीं पा रहा हूँ। उसके जादुई तिलिस्म से घायल मैं अपने मन में लगे पुराने घाव सहलाने लगा हूँ। प्यार और सम्मोहन – जैसे आज फिर एक बार अर्थ बदल गए हैं। सोफी अचानक मानस पटल पर उभर कर मेरी टीसती आत्मा के संघर्ष में शामिल होती लग रही है।
“मोच आ गई है?” सपाट सा प्रश्न किया है वैशाली ने।
अब वह गरम-गरम कोई नरम सा पेस्ट मेरी मुर्राई टांग पर लेप रही है। एक सुखद सा सेक कोई आत्मीयता उभारता लग रहा है। मैं पुराने समय की पुड़िया में वैशाली का जवाब खोज लेना चाहता हूँ। आज भी स्मृति की कच्ची जमीन कुरेद कर देख पा रहा हूँ – लक दक मैक्सी में लिपटी बानी, बैल बॉटम्स और कुर्ते में सजी नितंबों पर हैल्प का लेबल लगाए रीता, जांघ पर किसी की काली मोहर सी दागी दामिनी और साड़ी सलवार पहने, पैने तेवरों को छेड़ती दिल्ली की तमाम अनामिकाएं – उनका हुस्न और वाचाल वाक्य पटुता और कमाल का शुगल, अदाएं जैसे वैशाली से अनभिज्ञ हैं। फिर भी न जाने क्यों एक असहज खिंचाव मेरे मन के साथ-साथ बंधता चला जा रहा है।
लेप करती वैशाली एक बचकानी खामोशी संजोए बहुत प्यार से मुझको देखती जा रही है। अब मैं यह नहीं जान पाया हूँ तो बोला हूँ।
“ये सर का दर्द ..! लगता है मैं मर जाऊंगा!”
“बदन गरम है। दूध पी कर सो जाओ!” वैशाली ने बहुत धीमे से कहा है।
मुझ में कामी के कलेजे की टीस जैसा कुछ उठ खड़ा हुआ है। सोने का प्रश्न ही अब कहां उठेगा? अचानक सोफी का यों रूमपोश हो जाना मुझे भला भी लगा है और बुरा भी। लगा है – वो मुझे निहत्था और मन की कमजोरियों के साथ आने को और लड़ने को छोड़ गई है। शून्य में जुड़ते भावों को मैं सोफी की दृष्टि से मुझे लगा था – शायद वो तभी चली गई है!
“नींद आए तभी न!” कह कर मैंने स्वयं से शिकायत की है।
“सर दबा दूंगी ..!” वही स्नेह सिक्त आवाज है।
वैशाली की आंखों में एक लहराता तारल्य, आंखों से अनुराग के उजास मुझ में कूद गए हैं। चेहरे का लावण्य और दीप दानों पर चिपका स्नेह मुझ पर हावी होते जा रहे हैं। मैंने अपनी टीसती आंखों को बंद कर वैशाली के भावों में तिरोहित होते लाल-लाल सूरज को पकड़ लिया है।
मन कह रहा है कि अब जीवन का शेष भाग इसी आश्रम में जिओ। इसी तरह वैशाली का रोगी बने रहो ताकि वो टीसते मन को आजीवन पोशती रहे और तुम परम संतोष समेट उसी में लीन हो जाओ। मैं यही चाह रहा हूँ कि वो इस देख भाल का सुराग काट कर भूल जाए ताकि मैं उससे कट जाऊं। इसी दृश्यावली का होकर रह जाऊं और अपने से हार मान लूं। मुझ में अब जूझने के मुकाम कहां बाकी हैं और मैं सृजनात्मक शक्तियों से नजात पा गया हूँ।
“फिर भी न आई तो ..?” मैंने दुख हलका करने के उद्देश्य से पूछा है।
वैशाली में आकर एक सुख स्वप्न और अपूर्व आशा आ बैठी है। वह कोई वैभव का कोना सा मेरे इंतजार में खड़ा लगा है।
“आराम आया है?”
मेरे इस कथन पर वैशाली तनिक मचली है। मेरी दुखती देह काफी सुभीते में लग रही है। वैशाली मेरे अकेले पन में झांक कर कुछ निरख परख रही है। उसका अंतर मन कंचन सा चमक रहा है। मैं चुपचाप उसे देख रहा हूँ। यहां एक ठहर गई शाम मेरे इंतजार में रुक गई है और मैं उसकी छटा देख पा रहा हूँ।
“दूध में दवा डाल दूंगी!” वैशाली जैसे अपने आप से कह गई है।
“मैं दूध में दवा पीना नहीं कुछ और पीना चाहता हूँ!” मैंने फिर से तीर दागा है।
“दूध ऐसे अंग नहीं लगता!” उसने आंखें उठा कर कहा है।
“वो मन को और तरह का आराम देता है?” मैंने वैशाली को नई निगाहों में भर के पूछा है।
“है कोई!” उसने अब की बार कुछ कह दिया है।
लगा है वैशाली की आंखों में आंसू जैसा ही कुछ डबडबाया है। एक धुंध जैसा कुछ मेरे सामने छा सा गया है। मैं तनिक सा पलट कर देखने लगा हूँ।
“बताओ न?” मैंने उसे आधी बात उगलने को कहा है।
“जान कर क्या होगा? जमाने का रोना धोना जान कर बैठ रही हूँ – इसका कोई फायदा नहीं है। लड़का ..” वैशाली रोने को है।
“ओह ..! कमीना – ये पैसा कितनी अबलाओं का गुनहगार है!” मन की आह छोड़ कर में चुप हो गया हूँ।
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड