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स्नेह यात्रा भाग दो खंड पंद्रह

sneh yatra

“अब तुम चाहे परिवर्तन लाओ या प्रगति – मैं छूटा!” बाबा बोले हैं और उठ गए हैं।

मेरा मन बल्लियों उछल पड़ा है। प्रगति, परिवर्तन और क्रांति मिल कर एक ऐसे शब्द सागर का सृजन कर रहे हैं जिसमें मैं तुरंत कूद पड़ना चाहता हूँ। अपना स्थाई स्थान बना कर कुछ श्रेय और ख्याति अपने पल्ले बांध लेना चाहता हूँ।

“श्याम ..? सेक्रेटरी ..?” मैं जोरों से चीखता हुआ बाहर दौड़ गया हूँ। अनुराधा और सोफी के हंसने की आवाजें मेरा पीछा करती रह गई हैं।

“अबे साले गधे! तुम कहां गायब हो गए थे?”

“क्यों क्या हुआ बे? श्याम ने असमंजस से पूछा है।

“तेरी ऐसी की तैसी हो गई!” मैंने अभिनय किया है।

“क्या मतलब?”

“मतलब ये कि आज से हम मालिक!”

“और हम?” श्याम मुझे पूछ रहा है। अब वह भी अपना नया स्थान पा लेना चाहता है।

“तुम .. तुम ..”

“वाह बेटा! इतनी जल्दी भूल गए?”

“नहीं बे! कोई फेंसी सा शब्द ढूंढ रहा था।”

“कह दो – चमचा – ये भी चलेगा!” श्याम ने कहा है और हम दोनों हंस पड़े हैं।

“अच्छा बता – बात कहां आ कर बनी?” श्याम ने मुझे कुरेदा है।

“घर छोड़कर चले जाने पर। जैसा कि आम रिवाज है – जब बेटा इकलौता हो, जेल जा चुका हो, जिद्दी हो और कुंवारा भी हो तो हर बाप यही करता है .. जो ..”

“यानी कि बेटे की जिद पर ..”

“बाप ने हथियार डाल दिए हैं!” मैंने वाक्य पूरा कर दिया है।

अपनी विजय पर मैं श्याम के साथ बैठ हंसता रहा हूँ। इस हंसी के पर्दे की तहें फाड़ कर सोफी मुझे अब भी सराह रही है। जैसे हर बार कह जाती हो – हंसने का समय नहीं है मिस्टर ये समय जूझने का है। ये एक जिम्मेदारी है इसे हंसी में मत टालो।

“डरता कौन है? मैं तो कब से ये सब संभालने घूम रहा हूँ।” मैंने आत्म विश्वास को जैसे मुट्ठी में बांध कर कहा है।

“चलो! मिल की ओर घूम आते हैं!” मैंने प्रस्ताव रक्खा है।

“चलो चलते हैं!” श्याम तुरंत तैयार हो गया है।

एक नए अंदाज से मैं गाड़ी चलाता रहा हूँ। कुछ एक पुराने दृश्य सामने आते रहे हैं। बाबा के साथ जब भी गया था मैं सूक्ष्म रूप से देखता रहता था कि लोग किस तरह बाबा का स्वागत करते थे। आज मुझे भी वही उम्मीद थी। आदमी किस तरह मान और इज्जत का भूखा होता है ये मैं आज महसूस रहा हूँ। पहली बार लगा है कि वहां मुझे कोई पहचानता नहीं। न कोई आव-आदर न आओ जी न कोई सलामी – जुहार या नमस्ते और न कोई चापलूसी! जो भी आंख मिला पाया है मुझे एक अविश्वास सा दे गया है। लगता है बाबा ने मुझे बहका दिया है वरना तो ..?

“मिस्टर मैनेजर! क्या हाल है?” मैंने रौब से मेज पर बैठते हुए पूछा है। मैनेजर – मिस्टर मेहरोत्रा एक घुटे पिटे आदमी हैं जो अभी तक फाइलों में गुम थे और अब मुझे घूर रहे हैं!

“सर! आई एम बिजी!” कहकर मेहरोत्रा फिर से फाइलों में जा उलझे हैं।

“मुझे मिल के कारोबार की पूरी जानकारी कराओगे?” मैंने प्रश्न पूछा है।

“फिर कभी सर – अब तो ..”

टेलीफोन की घंटी बजी है। वो किसी से बात करने में उलझ गए हैं। कभी चेहरे पर बनावटी हंसी, कभी चिंता की रेखाएं तो कभी वीराना सा कोई भाव दौड़ता रहा है। कनखियों से फाइलों को भी झांकते रहे हैं और दो एक दस्तखत भी बना दिए हैं। ये इनकी कार्य कुशलता का प्रतीक है!

मैं परास्त हो कर उठा हूं मेहरोत्रा को मैंने एक चुनौती दी है तथा चल पड़ा हूँ।

“इसकी ये मजाल? इन सब की ये उदासीनता और अपमान! देख लूंगा एक एक साले को! समझ लूंगा ..” बड़बड़ाते मुझे श्याम ने मुझे पकड़ लिया है।

“तू तो गुस्सा खा गया बे?”

“तो और क्या चाट खाऊं?”

“आइडिया! देख, आज के बाद तू बदल जाएगा। चल, आज खूब चाट खाते हैं!”

“मजाक छोड़ श्याम! मैं इन सब सालों को समझ लूंगा .. और ..”

“वाह बेटा! अभी तो बागडोर संभाली भी नहीं कि सब नए आइडिए नदारद! लगता है तुमसे भी नाउम्मीद होना पड़ेगा?”

“क्या बकता है! देखी नहीं इन लोगों की हिमाकत ..?”

“देखी है। यही न कि तुझे झुक झुक कर सलाम नहीं किया, चापलूसी नहीं की, दुम नहीं हिलाई! ले मैं हिलाता हूँ दुम!” कहकर श्याम ने रुमाल को बट कर दुम बनाई है और मुझे चिढ़ाने के लिए उसे हिलाने लगा है।

“श्याम! लगता है तू भी मुझे नहीं समझता!”

“नहीं बे! तू सब को समझने का प्रयत्न कर। दलीप गुस्सा थूक दे। और अब सोच कि तुमने क्या करना है?”

“अच्छा चल। दोनों बैठ कर सोचते हैं!” कहकर हम दोनों मिल से बाहर निकल गए हैं।

मेजर कृपाल वर्मा

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