अकेला इंसान कब तक जी सकता है? सामाजिक प्राणी होने के नाते उसे समाज में ही रहना पड़ता है चाहे वह अच्छा हो या बुरा!
“इन्हीं में मिल जाओ दलीप!” एक हारी सी आवाज मुझे पिछले किनारे से पुकार रही है। लेकिन मैं मुड़ कर देखना नहीं चाहता। सोच रहा हूँ कुछ नए दोस्त बनाऊं। पर कैसे – समझ नहीं आ रहा है। निरुद्देश्य और निराश मैं फिर से आगे आगे भागा जा रहा हूँ। कहीं भीड़ में कम से कम श्याम ही मिल जाए तो मन हल्का कर लूँ। मैं कामनाएं कर रहा हूँ ..
अचानक घर आ जाता है। मैं अंदर अपने बिस्तर पर जाकर लंबा लेट जाता हूँ। किंकर्तव्य विमूढ़ सा मैं इस निराशाजनक वातावरण को भेद नहीं पा रहा हूँ। अचानक बाबा ने आकर दरवाजे की घंटी बजाई है।
“मैं अंदर आ जाऊं?” उन्होंने पूछा है। मुझे अजीब सा लगा है पर मैं संभल कर बोला हूँ।
“आ जाएं आप ..!”
“हां तो! तार आ गया है। अनुराधा कल आ रही है। ये लो प्लेन के समय से पहुंच जाना। मैं वहीं मिलूंगा।” बाबा ने इस तरह कहा है जैसे में कोई बराबर का उनका परिचित हूँ। मैं तनिक खुश हूँ। कागज पढ़ा है तो पूछ बैठा हूँ।
“ये सोफी ..?”
“कोई उसकी दोस्त होगी। उसने एक बार लिखा भी था कि वो हिन्दुस्तान देखने के लिए हर बार आग्रह करती रहती है।”
बाबा तनिक मुसकुराकर गायब हो गए हैं। मैं भी इस बात पर अपनी खुशी उनके सामने व्यक्त नहीं करना चाहता। मुझे एक बार ऊपर से नीचे तक देख कर उन्होंने पूछा है।
“इतनी जल्दी वापस क्यों चले आए?”
“बस यूं हीं ..!” कहकर मैंने अपने कंधे उचका कर एक अपमान को धर पटका है।
लेकिन बाबा तो पारखी हैं। वो सब कुछ समझ गए हैं। सहज स्वभाव में मुझे बता रहे हैं।
“जेल जाने से तुम्हारी इमेज एक धुंधलके के नीचे दब गई है। पर ये क्षणिक है। घबराने की जरूरत नहीं बेटे सब ठीक हो जाएगा।”
मुझे लगा है कि आज बाबा ने मां की कमी पूरी की हो या नहीं पर बाप का फर्ज पूरा कर दिया है। एक ठंडक सी कलेजे में पड़ कर उद्विग्न मन को शांत कर रही है। मैं भी बाबा की बात पर ही जम गया हूँ – समय आने पर सब ठीक हो जाएगा लेकिन वो समय भी मुझे ही लाना होगा, खुद नहीं आएगा!
अकेले में मैं अब अनुराधा का इंतजार कर रहा हूँ। अनुराधा से भी ज्यादा मुझे ये सोफी सता रही है। कौन है? क्यों आ रही है? अनुराधा ने मुझे क्यों नहीं लिखा? और अन्य कितने ही सवालों को छोड़ कर मैं फिर इसी सोफी के दो अक्षर के नाम को लंबा करने लगा हूँ। रंग भरने लगा हूँ और साथ ही एक मूक प्रार्थना कर रहा हूँ – अगर सोफी ही मेरी मंजिल बन जाए तो? लेकिन एक सुंदर चेहरे पर टिक कर शायद मैं आजीवन जी नहीं पाऊंगा!
ये कल की बातें हैं पर आज का अबोलापन अब भी दूर नहीं हुआ है। मैं किचन में जाकर अपने खानसामा और नौकरों के साथ जाकर मिल जाता हूँ। बस वो सब के सब खुश हैं। शायद आज बहुत दिन के बाद उनके मन की बात हुई है। मैंने भी अपना पुराना प्रश्न दोहराया है – काका आपने शादी क्यों नहीं की?
सब हंस पड़े हैं। काका शर्मा गए हैं। यही एक प्रश्न है जिसका उत्तर हमारे ये काका कभी भी सही सही नहीं दे पाते। उनका चेहरा देखने लायक है। इतनी उमर कट गई है पर शादी करने की तमन्ना शायद अब भी किचन में उनके साथ ही रहती है।
“बताओ न काका ..?” मैंने वही बच्चों वाला आग्रह दोहराया है।
“क्या बताएं छोटे सरकार! मालकिन ने तो बहुत कहा पर हम ही न कह पाए ..”
“अरे रे! क्यों नहीं कह पाए?”
“हमें ससुरी औरत पसंद ही नहीं आती!”
वही पुरानी बात है काका की। कैसा भोलापन है ये? मैं बहुत जोर से हंस पड़ा हूँ। अन्य सभी हंस रहे हैं। अब मैं खूब खुश हूँ।
“क्या उमर है आपकी?” मैंने पूछा है। मैं जानता हूँ कि काका किसी भी बात का सीधा उत्तर नहीं देते।
“बस जान लो बेटा! हमारा जनम जब हुआ तब इहां गदर हुआ था।”
“कौन सा गदर?” विमुग्ध हो कर मैंने पूछा है।
“ये हम का जानें पर गदर तो हुआ था।”
मैं खूब हंस रहा हूँ। एक हमारे काका हैं – न उम्र का खयाल न अपने आप का ज्ञान। इनके लिए न भविष्य बनता है और न बिगड़ता है। आश्चर्य की बात लगती है कि इन्हें कभी भी अपने हित और अहित की नहीं सूझती। और एक मैं हूँ कि सोचे जा रहा हूँ – उम्र ढल रही है, समय बीता जा रहा है, मैं पीछे पड़ता जा रहा हूं, जमाना तेजी से आगे जा रहा है, मैं भाग क्यों नहीं रहा हूँ, कदम से कदम मिला कर प्रगति में शामिल क्यों नहीं हो जाता? और एक हैं ये काका? इन्हें अभी तक अपनी जन्म तिथि तक याद नहीं है।
“आप ने इस दादी मां से ब्याह क्यों नहीं कर लिया?” अब दादी मां का नम्बर आ गया है शर्माने का। घर में ये मां की शिक्षा थी कि सभी नौकरों से मैं तमीज से बोलूं और ठीक से व्यवहार करूं। अत: मेरी ये दादी मां एक विधवा औरत हैं जिन्होंने मेरे जन्म से लेकर आज तक समझो – मुझे पाला है।
“ब्याह का सुख होता राजा बेटा तो वो ही क्यों मरता?” दादी मां तनिक सुबक गई हैं। मैं ये जानता हूँ जब भी उन्हें कुरेदता हूँ तो एक वही उत्तर होता है – वो क्यों मरता? उसके बाद जो भी हुआ – बुरा या भला इन्हें तो ध्यान तक नहीं। इतना लंबा जीवन ये लोग यों ही जी जाते हैं। एक तरह से अच्छा भी है और नहीं भी। और जो भी हो लाख कोशिश करने पर भी मैं इन लोगों की तरह जी ही नहीं पाऊंगा! लेकिन क्यों?
“आज क्या बनाऊं छोटे सरकार?” काका ने खुश होकर हुक्म मांगा है।
“बाबा से पूछ लो ना?”
“वो तो सिर्फ सूप पीएंगे। अब बुढ़ापा है न बड़े सरकार का!”
“तो हमारे लिए जो चाहे बना दो!”
“अच्छा ठीक है। मैं सरकार की हर पसंद पहचानता हूँ। आज देखो भला हम भी क्या बनाते हैं।” काका ने अपने सद्गुण बताए हैं और इसमें कोई शक भी नहीं कि काका मेरी हर पसंद जानते हैं।
मन हल्का-फुल्का हो गया है। लगा है – मैं तो लोगों से बहुत आगे हूँ और अगर इसी गति से अग्रसर होता रहा तो अवश्य ही अंतरराष्ट्रीय बन कर रहूंगा!
मेरा एक इरादा सा बनता जा रहा है।
मेजर कृपाल वर्मा