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स्नेह यात्रा भाग दो खंड ग्यारह

sneh yatra

“विकसित होने का विकल्प क्या है?”

“स्वाबलंबन!” कहकर सोफी मेरा अवलोकन करती रही है।

वो मुझे किसी सांचे में ढालने की कोशिश कर रही है। मुझे किसी निहित दिशा में अग्रसर होने को कह रही है। मेरा दिमाग ये सारी बातें पकड़ नहीं पा रहा है। लेकिन चाहकर भी मैं सोफी की बात डालना नहीं चाहता। अगर उसमें कुछ मुझसे ज्यादा है तो मुझे मान लेने में क्या आपत्ति होनी चाहिए?

“बाबा के साये से हट कर दूर खड़े हो जाओ। अपना मूल्यांकन समाज को करने दो। खुली रोशनी में ही तो आदमी ठीक प्रकार से देख पाता है।”

“ठीक कहती हैं आप!” मैंने गंभीरता पूर्वक कहा है।

“मैं वापस लौटने से पहले मिल कर जाऊंगी!” उसने वायदा किया है।

मैं कुछ भी नहीं बोला हूँ। मैं उसके अछूते अंग और देह का भराव देखता रहा हूँ। अनैतिकता से आहत बागी मन को कठिनाई से रोक पाया हूँ। लेकिन नजरें तो सोफी में अचानक समा गई हैं। दूधिया देह के साथ जो मोह भंग हुआ है – मोह पाश लग रहा है। नीली आंखों में जो सुधा रस भरा है मुझे खाए जा रहा है। वही बर्फीली हवा चल कर मेरे शरीर की उष्णता हरने में लगी है।

“तू निकम्मा है! तू स्वावलंबी नहीं है! तू अधूरा है और सोफी ये सब कुछ जानती है! फिर भी तू ..”

और एक अपूर्व खनक मेरे बदन में व्याप्त हो जाती है।

मैं उठ कर चल पड़ता हूँ। सोफी मुझसे और बैठने का आग्रह नहीं करती। फिर भी उसके लिए मन में वितृष्णा नहीं भरती बल्कि एक इज्जत सी उभरने लगती है – जो पहली बार मैं किसी लड़की के लिए महसूस रहा हूँ। लगा है सोफी गुणों की खान है और उसका पूर्ण व्यक्तित्व मेरे लिए एक जीतने योग्य गढ़ है।

तेज तेज कदमों से मैं इस तरह चला हूँ मानो अभी पल छिन में सफलता का पिंजरा तोड़ कर नष्ट भ्रष्ट कर दूंगा, आतंक मचा दूंगा, अपमान का बदला चुका लूंगा और सोफी को मुजरिम के रूप में सामने खड़ा पा कर पूछ लूंगा – क्यों सुंदरी! अभी भी अभिमान बचा है या ..!

सड़ाक सड़ाक कोई कोड़े मारेगा, एक पैशाचिक आनंद की अनुभूति मुझे आत्मतोश दे देगी तब मैं खूब हंसूंगा! अट्टहास की हंसी, मेघ गर्जन जैसा निनाद सोफी की चीख पुकार तक सुनने नहीं देगा! अनभोर में यही मेरी ईर्ष्या का अपरूप बन कर खड़ा खड़ा मुझे बुलाता रहा है। मैं सच्चाई से कहीं बहुत दूर भाग जाना चाहता हूँ!

बाबा कहीं जा रहे हैं। मैं अचानक ही बोल पड़ा हूँ – बाबा! मैं भी आपके साथ चलता हूँ।

बाबा ने मेरा हताश चेहरा देखा है तो हक्का-बक्का रह गए हैं। शायद पहली बार उन्होंने मेरे पस्त इरादे देखे हैं।

“बात अभी ज्यादा नहीं बढ़ी दलीप! इसे मैं खुद संभाल दूंगा बेटे!” उन्होंने मुड़ कर कहा है। न वो मेरी समझे हैं न मैं उनकी समझा हूँ। फिर मैं बिना कुछ कहे सुने गाड़ी के पिछले अर्धांग में जा धंसा हूं। बाबा भी चुपचाप बैठ गए हैं। दीवान जी मेरे साथ आ कर कुंच गए हैं। मन तो आया है कि इन्हें धक्का देकर बाहर फेंक दूं पर संभल गया हूँ। गाड़ी चल पड़ी है। शीतल हवा का झोंका एक सुखद अनुभूति सा लगा है। मुझे पसीने आ रहे थे और अब शनै शनै जहर उतर रहा है। लेकिन सोफी को अब भी भुला नहीं पा रहा हूँ। उसका जाने से पहले मिलने का वायदा इतना बोझिल बन गया है कि मैं उसे उठा नहीं पा रहा हूँ।

कार के गुरगुराहट की आवाज कानों में प्रतिध्वनित होती रही है और मस्तिष्क विचार शून्य बना रहा है। अब कल्पना के साथ भागने की इच्छा नहीं हुई है। आंखों पर पलक ओढ़े मैं सब कुछ भुलाने का विफल प्रयत्न करता रहा हूँ। बाबा भी अपनी समस्या में उलझे कुसमुसा कर कई बार पीछे देख चुके हैं। लेकिन मुझे निर्जीव पा कर कुछ कह नहीं पाए हैं। मुनीम जी को चुपके चुपके कई बार मैं कुनिहा चुका हूँ पर वो भी अजीब ढ़ीट हैं जो हर बार मुझसे आकर सट गए हैं।

बाबा फरीदाबाद रुके हैं। एक आलीशान कोठी के अंदर बिना मेरी प्रतीक्षा किए घुस गए हैं। मुनीम जी ने जरूर जाने से पहले चश्मों को साफ करके अंदर ही मुझे घूरा है। मैं मुश्किल से हंसी रोक पाया हूँ। मुनीम जी भी क्या बढ़िया किस्म के चमचे हैं? जी हुजूरी के अलावा उन्हें और कुछ नहीं आता। लेकिन ये जी हुजूरी कितनी भारी है मैं आज जान गया हूँ। किसी का बन कर जी लेना एक महान अभियान है जिसे मैं शायद कभी नहीं कर पाऊंगा।

कोठी के आगे शानदार लॉन है जिसमें जोधपुरी घास के छत्ते उगा दिए हैं। फूलों के बिरवों पर फूल छिटक रहे हैं और फल आने की आशंका दूर नहीं है। बोगेनबेलिया की टहनियां भी मिल कर एक महाराज द्वार बना पाई हैं। एक ओर खड़े रात रानी के झाड़ से लंबी लंबी कलाइयों जैसी टहनियां फैल रही हैं। बैठे बैठे मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि इस कोठी का मालिक भी कोई मिल ओनर ही होगा।

बाबा बाहर आए हैं। एक क्षण के बाद एक सफेद पोश व्यक्ति भी चले आए हैं। भरा पूरा बदन है और हंसमुख चेहरा है। कोई चिंता या परेशानी उनके आस पास नहीं है।

“ये हैं श्री त्यागी – एम एल ए और एक सुविख्यात हस्ती!”

“आप से मिलकर खुशी हुई!” मैंने भर्राए स्वर में कहा है।

मुझे स्वयं आभास हुआ है जैसे मैं कई दिनों से सो नहीं पाया हूँ और बदन में एक टूटन समा सी गई है।

“कैसे हो बेटे? हम तो तुम्हें पहले से ही जानते हैं!” त्यागी जी बोले हैं।

“तब तो ये बहुत छोटा था। देखो न योगेश कितना अंतर है अब मैं और ..”

“जी मैं तो कल परसों की ही बात कर रहा हूँ। जब देहली में इन साहबजादों ने जुलूस निकाला था।” त्यागी जी ने जैसे हम बाप बेटों को रंगे हाथों पकड़ लिया है।

बाबा तनिक सकुचे हैं। लगा है जैसे मेरे कृत्य अब बाबा को पेल रहे हैं और मेरी हर नादानी का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ रहा है। लेकिन मैं अब भी मौन हूँ।

“योगेश! बच्चे अगर नादानी करें और बड़े उन्हें न भुला पाएं तो ..”

“आप इसे नादानी कहते हैं! आश्चर्य की बात है। सरकार और कानून के खिलाफ बगावत करना बचपना तो नहीं कहा जा सकता।”

त्यागी जी बाबा को धमकाए जा रहे हैं। बाबा स्वभावतः उनकी हर चोट को पीते जा रहे हैं और शायद किसी क्षमा प्राप्ति के हेतु ही त्यागी को साथ ले चले हैं। एक बार मन में आया है कि इस त्यागी जी को कार से बाहर धकेल दूं लेकिन मैं चुपचाप भागती कार के अंगों से चिपटा रहा हूँ।

मिल के गिर्द मजदूरों का घेरा पड़ा है। लंबी लंबी सुर्रियों सी चिमनियां धुआं नहीं उगल रही हैं। दैत्याकार मशीनें भी शांत एक पहरे के अंदर कैद पड़ी हैं। कुछ किसान गन्नों से भरी गाड़ियां सड़क पर थामे निराश नजरों से चिमनियों को देखे जा रहे हैं। उनके कान अपेक्षित रूप से वो गड़गड़ाहट सुनना चाहते हैं जो गुम है।

बाबा की कार आते देख चीख पुकार और शोर-गुल मच गया है। मजदूरों ने अपना पेट उघाड़ उघाड़ कर बाबा को दिखाया है। काले झंडे दिखाए हैं। फटे कपड़े दिखाए हैं। लुटी-पिटी झोंपड़ियों की ओर संकेत किया है और मासूम बच्चों की बाहें पकड़ कर उनकी ओर धकेला है। मेरे बदन का एक एक रोम खड़ा हो गया है। लेकिन त्यागी के चेहरे पर मैं वैसा कोई परिवर्तन नहीं पढ़ पाया हूँ।

कितना पाषाण हृदय है ये आदमी – मैं प्रत्यक्ष में बुदबुदाया हूँ।

मेजर कृपाल वर्मा

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