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स्नेह यात्रा भाग दो खंड दस

sneh yatra

“मैं .. काम ..?”

और मैं अपने आप को काम के साथ कहीं भी नहीं जोड़ पाया हूँ। पल भर स्कूल और कॉलेज के जमाने को मुड़ कर देखा है जिसे अभी अभी मैं छोड़ कर चला आ रहा हूँ। वहां कौन काम करता है? थोड़ी बहुत कुंजियां रट कर पास होना मेरे बाएं हाथ का खेल था और पास होने से आगे वहां कोई लक्ष्य था ही नहीं।

“देखो – दलीप को नौकरी नहीं करनी फिर भी पढ़ता है। और एक हैं आप .. मिस्टर .. और आप महाशय .. और आप कुमारी जी – एक एक परीक्षा दो दो बार में बिना पास किए आप का गुजारा ही नहीं होता। ये पैसा आप के मां-बाप के खून पसीने की कमाई है। बेचारे पता नहीं कहां से और कैसे लाकर देते हैं! कितनी मुसीबतें हैं आज, कितनी महंगाई है आज .. और कितनी ..”

कहते कहते प्रोफेसर सक्सेना समाज की विस्तार से व्याख्या कर जाते। मैं खुश होता। लगता – मैं वास्तव में मेहनत करता हूँ। मैं नौकरी के लिए नहीं पढ़ता .. फिर मैं किसके लिए पढ़ता रहा और क्यों पढ़ा?

जो खूब पढ़े थे वो भी बेकार घूम रहे हैं। जो कुछ बन गए हैं वो भी बैठे हैं। और जो बनेंगे वो तो अभी से निराश हैं। फिर ..?

बुद्धिजीवियों का बाजार आज सबसे सस्ता है। एक इंजीनियर – नया-निकोर – 150 रुपये, एक डॉक्टर कॉलेज से निकला एक दम फ्रैश – वही 150। इसके अलावा घुटने तोड़ और पॉकेट मार नौकरी की तलाश, उसके साथ बंधी निराशा और बालू बना साहस आदमी में बाकी क्या छोड़ता है?

इसी का परिणाम तो देश भुगत रहा है। पैसे के पीछे पागल समाज अपना असली रूप गंवा बैठा है। हमारा चारित्रिक पुरुषार्थ लुप्त प्रायः हो गया है और असंगत तथा भ्रष्ट बातें समाज अपने चेहरे पर पोते अपनी ही कमजोरियों पर हंस रहा है। हम सारी कमजोरियां समेट कर घुटनों के बल चल कर इस दुस्साहसी और कलंकी समाज से जूझ पड़ना चाहते हैं। लेकिन सभी दूर होकर खड़े हैं और कह रहे हैं – तुम लड़ो, बुराइयों को निकाल फेंको, भ्रष्टाचार का अंत ला दो! सरमायादारी मुर्दा बाद और पता नहीं क्या क्या बकते हैं! पर आगे कोई नहीं बढ़ता! सभी अपने अपने इरादों की आहूति देकर इसी धन कुंड में कूद पड़ते हैं। ज्ञानोपार्जन करते हैं – धन के लिए, कला सीखते हैं धन कमाने के लिए और योग वैराग्य भी धन के लिए करते हैं। व्यापार तो है ही धन कमाने के लिए और यहां तक कि संतान से भी धन कमाना नीच काम नहीं रह गया है।

अब मैं क्या काम करूं? धन कमाने की इच्छा तो होती नहीं और उलटी इसे गंवाने की हूक से उठती है। आज चाहूँ तो पर्वतों पर जा चढ़ूं! वहीं मुझे सारा ऐशो-आराम होगा, हर सुख मिलेगा जिसे मैं बार बार भोग चुका हूँ। पर अब मेरा मन खट्टा हो गया है।

सोफी को क्या उत्तर दूं? एक बात है जिसे मैं मन से रिता नहीं पा रहा हूँ। मैं क्या काम करूं? हैसियत से गिर कर भी काम करूंगा तो बाबा बीच में आ खड़े होंगे! शायद मैं खुद भी कर नहीं पाऊंगा। सोचता हूँ सोफी से ही इसका उत्तर पूछ लूँ। इसमें शर्म की क्या बात है?

“आप ही बताइए – मैं क्या काम करूं?” मैंने पूछा है। आवाज में एक अजीब सी निर्भीकता आ गई है।

“आप ..! जो आप को पसंद हो वही कीजिए!” कह कर सोफी हंस गई है।

मुझे लगा है – उसने मेरा मजाक उड़ाया है। मैं समझ गया हूँ कि वो मेरे भोलेपन पर कभी रीझ नहीं पाएगी। आज इस भोलेपन का मूल्यांकन कोई करता ही नहीं। समाज और देश को अगुआ चाहिए ठीक उसी प्रकार शायद सोफी को भी एक आधार चाहिए! वो अपने ऊपर मेरे इस अज्ञान का बोझ क्यों लादेगी?

“आज तक तो मैंने इस बारे में कभी सोचा ही नहीं था। पर अब ..”

सोफी खिलखिला कर हंस पड़ी है। मैंने उसका साथ ऊपरी मन से दिया है। पर अंत: में जो समुद्र पलोटे खा रहा है, मुझे खाए जा रहा है – चीनी के गुटके की तरह मैं आत्मग्लानि के दाह से घुल कर छोटा होता चला जा रहा हूँ।

“अब कुछ करने की अवश्य सोचूंगा!” मैंने तनिक गंभीरता से कहा है।

“थैंक गॉड! चलो, अभी से सही ..!” सोफी ने बड़े ही अछूते से अंदाज में कहा है।

मुझे लगा है कि सोफी मुझे इसी मुकाम पर लाकर छोड़ना चाहती थी!

“मुझे यहां आकर एक ही बात खली है!” सोफी पहली बार अपना मत प्रकट करने चली है।

“वो क्या?”

“यहां सभी एक निरुद्देश्य जीवन जी जाते हैं और आजन्म भाग्य भगवान के चक्करों में पड़े किसी और को ही कोसते रहते हैं!”

“हां, ये तो है! लेकिन भाग्य भगवान में भी भरोसा करना आवश्यक होता है!”

“लेकिन आंख बंद करके नहीं। जो सामने है उसे तो आदमी समझ ही सकता है। जो अदृश्य है उसके लिए भले ही भगवान को दोषी ठहराया जा सकता है!”

“ये भी ठीक है!” मैंने सोफी की बात मानते हुए कहा है। लगा है मैं सोफी से ज्ञान ले रहा हूँ। पहली बार है कि किसी की बात मेरे भेजे में बैठ पा रही है। मेरे बड़प्पन का परिवेश कट गया है और मैं धड़ाम से नीचे आ गिरा हूँ!

“आप कब तक रहेंगी? माने कि रिसर्च ..”

“कह नहीं सकती। पर जल्दी ही मैं टूर पर जाने वाली हूँ।”

“कहां ..?”

“मैं भारत को अंदर से परखना चाहती हूं और उसके लिए ..”

“हूँ ..!” मेरी छाती पर एक घूसा जैसा लगा है। निराशा ने आशा की कमर तोड़ दी है और मैं अपने विक्षिप्त मन को समझाना चाहता हूं।

“अकेले .. या कोई साथी चाहिए?” मैं हिम्मत करके ही बोल पाया हूँ।

“मुझे अकेलापन बहुत अच्छा लगता है!” सोफी ने अपनी नीली आंखों में भरी बर्फ जैसे निकाल फेंकी हो। मैं सर्दी से थर-थर कांपने लगा हूँ। अब तक सोफी ने कोई भी बात ऐसी नहीं की जिससे कोई आत्मीयता टपकती हो! कोई अपनत्व के उद्गार या कोई संबंध जोड़ने के आसार मुझे अभी तक नजर नहीं आए!

“मुझे तो अकेलापन अखरता है!” मैंने बेबाक ढंग से बता दिया है।

सोफी ने पल भर के लिए मुझे अपनी नीली आंखों के अंदर उतार लिया है!

सोफी की बर्फीली देह में उष्णता का अब भी अभाव है। रह रह कर भी मैं उसे गरमा नहीं पा रहा हूँ।

तो क्या सभी अमेरिकन इसी तरह ठंडे होते हैं? फिर विश्व को एक सूत्र में कैसे बांधा जा सकता है? जब तक इंसान मन की घुटन को खोल कर आगे नहीं बढ़ेगा और गैरों से गले नहीं मिलेगा तो कैसे संभव होगा ..? मैं स्वयं से पूछता रहा हूँ और सोचता रहा हूँ कि पहाड़ों सरीखे अपने इरादों को दुबारा संजोने में जुटा रहा हूँ।

“क्यों कि तुम्हारा व्यक्तित्व अभी भी पूर्ण रूपेण विकसित नहीं हुआ है!”

सोफी ने मुझे मेरी कमी परख कर बता दी है। मैं ठगा सा सोफी को देख रहा हूँ। मेरे अंदर भरते आक्रोश ने – जो मात खाने से उगा है, सोफी को उलटी सीधी सुनाने को बाध्य किया है!

पर मैं ऐसा नहीं कर पाया हूँ। सोफी शायद सच कहती है!

मेजर कृपाल वर्मा

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