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स्नेह यात्रा भाग छह खंड तेरह

sneh yatra

“हां! काम करना शर्म की बात नहीं है!”

“काम करना तो पूजा करना है!”

“काम में स्वर्गीय आनंद आता है!”

आदि इत्यादि उत्तर गिनने का रिहर्सल मैं पहले मुक्ति के साथ कर चुका था अतः बोलता चला गया हूँ।

अचानक श्याम की शादी और पार्टी याद आ गई है!

“मेरा सगा और कौन है?” श्याम का कहा वाक्य एक बेधक तकलीफ देने लगा है। यहां का मान सम्मान ज्यादा झेल पाना दूभर होता चला गया है।

“मैं चलूंगा!” मैंने सीधे प्रधान मंत्री से प्रार्थना की है।

“अच्छा! मिलते रहा करो। हमारा भी उत्साह बढ़ता है।” कहकर उन्होंने अनुमति दी है।

बिना वाक्य की गरिमा अर्थाए मैं भागता बना हूँ। कार को यों हवा में दौड़ाया है जैसे उड़कर ही दम लूंगा। घनी भूत अंधेरा अब भी मुझे आठ के बने कोण में अग्रसर होने दे रहा है और मैं इसे झेलता रहा हूँ।

जब अंदर आया हूँ तो अनायास ही लोग बिदक गए हैं। शादी की रस्म पूरी होने वाली है। मुक्ति ने आ कर मुझे चैक दे दिया है और एक तोहफा की ओर इशारा कर दिया है। मुक्ति को पता था कि मैं आ रहा हूँ – कैसे इसका पता मुझे लगना होगा।

वर वधू को मुबारकबाद दिया है। तोहफे दिए हैं और हाथ मिला कर, गले मिल कर उनके लिए मंगल कामना के कार्यक्रम किए हैं। ये सब मुझे नई लगी हैं पर पुरानी से मिलती जुलती। कुछ शोध और उलट पलट जैसे हमने खुद कर लिए हैं और आधुनिक कमियां इस शोध में समा गई हैं।

“मेरी ओर से श्याम और शीतल को ..” मैंने भेंट दी है।

तालियां बजी हैं। सभी ने मुझे प्रशंसक दृष्टि से घूरा है। शीतल की अव्यक्त आंसुओं से भरी आंखें शूल की तरह मुझमें आ गढ़ी हैं। मैं ये आघात सुजानता के नाते सह गया हूँ।

पार्टी शुरू हुई है। सभी बार पर जा जा कर गिलास भर लाते हैं। खाली कर देते हैं और फिर से भरने चले जाते हैं।

मैं सोफे पर श्याम के साथ आ कर बैठ गया हूँ। बैरा ने हम दोनों को ड्रिंक दिखाया है।

“चियर्स!” हमने गिलास भिड़ा दिए हैं।

“चियर्स!” हम तीनों के साथ मुक्ति ने भी हमारा साथ दिया है।

शीतल की आवाज मुझे फिर चौंका गई है। शायद वो मेरे आने पर खुश नहीं है। मैं भी अपनी शंका गिलास में घोल कर पी गया हूँ। पीता ही रहा हूँ। श्याम दूल्हे की सज्जा में मुझे मोहक लगने लगा है।

“लकी है! कितनी स्मार्ट बीबी मिली है।” किसी को कहते सुना है।

आलतू फालतू और तुच्चे लुच्चे लोगों की भीड़ छटती चली गई है। लगा है इस हॉल के केंद्र में सिमट कर हम छोटे होते जा रहे हैं। मैं प्रधान मंत्री के वक्तव्य के बारे में बताता रहा हूँ!

मुक्ति और श्याम किसी गहन विषय पर तर्क लड़ा कर तार्किक दंगल बाजी के अहाते में अपने-अपने पक्षों को तीतरों की तरह टिटकारियां मार-मार कर लड़ा रहे हैं। दोनों ही मन में भरा रोष, असंतोष और देश के भविष्य के बारे में चिंता प्रकट करके कुछ आधे-अधूरे विकल्प प्रस्तुत कर रहे हैं। शीतल मेरी ओर खिसक आई है।

मैंने शीतल को दोनों आंखों में भर कर देखा है – जैसे कार की फुल लाइट में फुदकता खरगोश देख रहा हूँ। कुछ अजीब सी स्थिति बन कर मुझे अंदर तक दंश दे गई है।

“शादी मुबारक हो!” मैंने धीमे से शीतल को अलग से मुबारकबाद दिया है।

“अब तो खुश हो ना?” शीतल ने पूछा है।

लगा है – वो रो पड़ेगी पर संभल गई है।

“तुम्हें तो अब खुश होना चाहिए!” मैंने राय दी है।

“चाहिए ..? लो तो खुश हूँ!” कहकर शीतल गिलास से एक लंबा सिप चढ़ा गई है।

गरम-गरम शराब को उसके गोरे कंठ से उतरते मैं देख सका हूँ। शीतल की रूप सज्जा बहुत ही मोहिनी लग रही है और जो आंखों में खुमार भर गया है मुझे बहुत पास खींच लेने को आतुर है। मैं रूम नम्बर 27 की शीतल में और अब मैं कोई फर्क ढूंढ लेना चाहता हूँ।

“शादी के बाद ..?” मैंने कुछ औपचारिकता बढ़ाने का प्रयत्न किया है।

“भाषण देने की आदत हो गई है!” शीतल ने व्यंग किया है।

मैं चुपचाप खाली गिलास और अपने रितते साहस से जूझता रहा हूँ!

“अटेंशन प्लीज!” मुक्ति ने जोर से चीख कर कहा है। “मिसिज श्याम एक गाना प्रस्तुत करेंगी – आप को जान कर खुशी होगी कि गाना उनका खुद का लिखा है।”

तालियां बजी हैं। मैंने भी अन्यमनस्क लोगों का साथ दिया है। ये जान कर कि वो लिखती है – तो जान पाया हूँ कि तभी वो इतनी सेंटीमेंटल है। एक अधकचरा सा निर्णय दिमाग में ले पाया हूँ ..

शीतल बार से कमर लगाए खड़ी हो गई है। जैसे उसे गाने की चाह ने गिलास को एक साथ अंदर रिता लेने को कहा हो! उसने कहा है यों मैं कोई कवयित्री नहीं पर अपने लिए लिख लेती हूँ सो सुनिए –

बने थे चाह के चौकीदार हम –

वो लुट गई!

घेरा था हमने गढ़ – किलों से –

रूप के, यौवन के, सुकुमारिता, माधुर्य के –

सींचा था गहरे गुलों को –

गान के ज्ञान से, गृह कुशल चातुर्य से –

बने थे आधुनिक कि अगुआ हम –

आ कर कलुषिता पुत गई –

वो लुट गई –

मैं लुट गई ..!

करतल ध्वनि में शीतल के भाव गूंज-गूंज कर मेरे मन से उतरते रहे हैं। लगा है उसकी चाह एक पहाड़ थी जो अब राई बन गया है। कोई पश्चाताप उसे अंदर से चबाता चला जा रहा है। उसे क्या चाहिए – मैं अब भी जान नहीं पा रहा हूँ।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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