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स्नेह यात्रा भाग छह खंड तीन

sneh yatra

“ये कौन चाकरी है बे?” मैंने गहक कर पूछा है।

“चाकरी नहीं सेवा है। इन झुग्गियों से बंध कर ही चाकरी का मोह काट पाया हूँ।”

“क्या काट मारी है प्यारे! तुम जीत गए ..” मैंने जैसे नवीन का छुपा इरादा दबोच लिया है।

“आओ तुम्हें अपने स्वयं सेवकों से मिलाता हूँ।” कहकर नवीन आंख के इशारे से मुझे चुप रहने को कह गया है।

“इनसे मिलिए – केशव दत्त, ये मनोहर सिंह, ये मौलाना और ये रुस्तम जी!”

एक लंबी कतार है जिसमें से धरम, जाति और प्रांत आ कर शामिल हो गए हैं – जैसे सब मिल कर देश की दीन दशा को जी रहे हों। इन लोगों के चेहरों पर छुपे हीन भाव, निराशा और ऊपर उठकर धनी बनने की अधमरी चाह अब भी सिसकती लग रही है।

“आप लोग किस गुट के हैं?” मैंने सब से एक साथ पूछा है।

“हम नवीन गुट के हैं!” एक ने छाती फुला कर कहा है।

“पर हैं तो सब पुराने!” मैंने सच्चाई को मजाक बना कर उनके सामने फेंक दिया है!

सभी हंसे हैं। मनोहर सिंह अपने दिए उत्तर पर लजा गया है। ये उत्तर उसे नवीन ने कई बार रटा दिया होगा ताकि कोई भी बड़ा लीडर पूछे तो उत्तर तुरंत आ जाए। इस उत्तर में कितना दम है वो नवीन गुट भांप सा गया है। नवीन ने मेरा हाथ भींच दिया है।

“अब तू बता, कैसा चल रहा है?” नवीन ने बात पलट कर गेंद मेरे कोर्ट में फेंक दी है।

“स्नेह यात्रा – वही पुराना धंधा!” मैंने यूं कहा है जैसे कोई खास महत्व न दे कर मैं तफरी के तौर पर ही ये सब जी रहा हूँ।

“सुना है – तेरी मिलों में वर्कर्स बहुत खुश हैं। कहते हैं एक नया तरीका तूने निकाला है .. और ..” वह रुका है।

“पब्लिसिटी है!” मैंने हंस कर कहा है।

“देयर यू आर!” कह कर नवीन एक ताजगी से भर गया है।

नवीन – जो अब तक परास्त सा लग रहा था सहसा किसी खुशी से बंध गया है। जो कुछ इमेज वो बनाता रहा है – उसे मुझसे जोड़ कर तुलनात्मक दृष्टि से भी उसने हर रोज देखा होगा। हो सकता है मुझसे प्रेरित होकर ही उसने ये सब तरीका अपनाया है। कुछ भी है – आइडिया बुरा नहीं है।

“भाइयों! आज मैं आप लोगों को अपने प्रिय मित्र, देश के होनहार इंडस्ट्रियलिस्ट युवा समाज के अगुआ मिस्टर दलीप से मिला रहा हूँ।”

नवीन ने भाषण की भूमिका में चिल्ला कर संबोधन किया है।

“ये है दलीप – जो मजदूरों के दिलों के दुख जानते हैं, उनकी नीड्स इनकी नीड्स हैं और सारे वर्कर्स इनके अपने ही बच्चे जैसे हैं।”

नवीन ने बहुत ही बेतुके ढंग से कहा है। मैं जानता हूँ कि नवीन भाषण देने में भी कच्चा है। पर अभी शायद पहली स्टेज है। मुझे भी अपनी पहली झिझक और अविश्वास याद हो आया है। मैंने कदाचित लोगों के सामने हाथ जोड़ दिए हैं। एक अधेड़ सी औरत ने आ कर मेरे पैर छूने का यत्न किया है। मैंने उसे उठा कर उसकी आंखों में घूरा है। अजस्र बहता नयनाभिराम देख कर ही मैं पसीज गया हूँ।

“लोग कहते हैं – आप देवता हैं।” एक बूढ़े व्यक्ति ने स्पष्ट स्वर में कहा है।

लगा है मैं ज्यादा ख्याति पा गया हूँ। इन प्रशंसाओं का मोह अगर मैं संवरण कर गया तो शायद कोरी श्रद्धा के बदले निकल जाऊंगा। और अगर इन कंगालों में मिल गया तो फिर कभी उठ नहीं पाऊंगा।

“कितना सहज है इनका मन जीतना!” मैं सोचे जा रहा हूँ।

शायद यही कारण है कि ये लोग नवीन की हर बात पर विश्वास करते हैं। उसके वायदे को पड़ी लकीर मानते हैं और हर नेता में किसी अजेय सामर्थ्य की लालसा करने लगते हैं। लेकिन क्यों?

एक अच्छा खासा स्वागत समारोह भुगत कर जब चुका हूँ तो थक सा गया हूँ। मैं यहां से भाग जाना चाहता हूँ। मैं जानता हूँ कि नवीन नहीं आएगा और अन्य कोई साथी भी पता नहीं मिलेगा भी कि नहीं?

“मैंने डैडी से तेरा वो काम करा दिया है।” नवीन ने मुझे सूचना दी है।

“रियली ..?” मैं चौंक पड़ा हूँ। मैं तो भूल ही गया था कि नवीन एक चट्टान पर खड़ी इकाई है और दिल्ली में कुछ भी कर सकना उसकी सामर्थ्य से बाहर नहीं है।

“इसी बात पर पार्टी ..!” नवीन ने मांग की है।

“तय रही!” मैंने भी स्वीकार कर लिया है।

“गैदरिंग शुड बी गे?” नवीन ने मांग की है और जान कर पूरा वाक्य अंग्रेजी में बोल गया है ताकि बाकी लोग समझ न पाएं।

“डन!” कह कर मैं चला हूँ।

जमा भीड़ मुझे अब भी किसी नए विश्वास के मध्य से घूर रही है। पहली बार लगा है कि पुराने लोगों को नए युवकों पर भरोसा हुआ लगता है। अब हमारी गणना लुच्चों लफंगों से उठ कर आधुनिक युग चेता या युवा क्रांतिकारियों से भिन्न नहीं लगी है।

अकेला मैं भीड़ में मिल गया हूँ। विचारों में खोया सा मैं एक कॉफी की गरज से कनाट प्लेस लौटा हूँ। पता नहीं क्यों यह जगह मुझे बहुत भाती है। आकर मैं खुले कैफे में ऊपर जा बैठा हूँ। एक लड़कियों का गुट मुझे घूरे जा रहा है। शायद मेरे अकेले पन पर उन्हें आश्चर्य हो रहा है।

“आप दलीप हैं न?” एक ने पास आ कर पूछा है।

मैं इस लड़की की हिम्मत पर तनिक अचकचा गया हूँ और फिर शिष्टता से कहा है – जी हां!

“वही स्नेह यात्रा वाले दलीप?” दूसरी ने बात साफ करनी चाही है।

“जी! एक दम असली हूँ।” मैंने भी मजाक किया है।

एक खिलखिलाहट, एक अट्टहास और नौचा-खौंची का वातावरण बन गया है। सारी लड़कियां अब एक निगाह से मुझे ही घूर रही हैं। कुछ अकेलापन छटा है तो मैं खुश हूँ।

“हम लोग ज्वॉइन कर लें?” एक बहुत ही खूबसूरत तितली ने पूछा है।

“शौक से ..!” मैं लखनवी अंदाज में कह गया हूँ जो पुरानी अनुभूतियों को उकेर गया है।

“आप ने अभी तक शादी नहीं की न?” उसी हसीना ने फिर से पूछा है।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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