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स्नेह यात्रा भाग छह खंड सात

sneh yatra

“तुमने बुलाया और हम चले आए! सच्ची, बहुत सताया है तुमने!”

“शीतल ..! मैं ..”

“आगोश में लेकर बात करो ना?”

“श्याम के साथ तुम्हारा ..?”

“हां हां! हुआ है। लेकिन मैं बिकी तो नहीं हूँ?”

“लेकिन .. शीतल ..”

“बॉस बन गए हो पर तमीज नहीं आई। मॉडर्न बॉस के लिए सभी जूनियर्स का माल उसका माल होता है! परखोगे नहीं?”

“नहीं!”

“फिर बुलाया क्यों था?”

“एक बात की बात में ..”

“तो उस बात में ये भी तो शामिल हो सकता है?” कह कर शीतल मेरे ऊपर सवार हो गई है।

कमरा रंगीन पानीपत से लाए पर्दों से सजा सब कुछ छिपाए है। पलंग पर बिछा डनलप का गद्दा और तकिया किसी के इंतजार में हैं और दीवार पर करीने से सजाई पेंटिंग सब कुछ अंदर समेट कर मौन रहने का वायदा कर रही हैं पर मैं आज अपना वायदा नहीं तोड़ना चाहता!

“बात तो एक रात की है डार्लिंग! कब से तड़पती रही हूँ और एक तुम हो कि ..?”

शीतल के होंठ इतने करीब आ गए हैं कि मैं एक-एक पड़ी सिलवट गिन पा रहा हूँ। गहरी पुती लिपिस्टिक का रचाव मुझे एक भद्दा लेप लगा है और मेकअप में छुपा चेहरा अपनी सारी कथा सुनाता रहा है। कोई सुकुमारिता या लावण्य जो टपकना चाहिए था – गुम है और नशा उसका स्थान नहीं भर पा रहा है। होंठों का बासी पन, गालों का कपास जैसा घटिया स्वाद और मिड़े हुए अंगों के उभार बाजारू लगने लगे हैं। अचानक सोफी का स्वरूप सामने आने लगा है – चार बजे सुबह टपकता रस और एक शरीर से उठती ताजा गंध मुझे कोई महान सत्य बता कर चलती बनी है!

“नॉट नाओ” कहीं से जैसे सोफी ने ही कहा है।

“नॉट नाओ!” मैंने स्पष्ट में शीतल को कह सुनाया है।

“लेकिन क्यों?” पूछते पूछते सोफी मेरी टाई की गांठ ढिलिया रही है।

मुझे दो महान आकर्षण, दो पर्वत श्रेणियों के वक्ष में भरे कंपन इस तरह दो दिशाओं में खींच रहे है जिस तरह कंपास की सूई दो ध्रुवों के चक्कर काट काट कर उनका सामीप्य नकार रही हो, सहवास सह नहीं पा रही हो और अपनी पीवट छोड़ने में मजबूर हो! एक ओर मैं पिघल रहा हूँ तो दूसरी ओर जम रहा हूँ। एक ओर गिर रहा हूँ तो दूसरी ओर उठ रहा हूँ।

“शीतल ..?” मैंने भर्राए स्वर में शीतल को पुकारा है।

“यस, डियर!” शीतल कार्य रत है।

“तुम ये .. क्यों ..?” मैं साफ साफ नहीं कह पा रहा हूँ।

“मन में एक ललक भर गई है, अब एक आदत बन गई है और .. बस, फन एंड ..”

“लेकिन तुम्हारी शादी ..?”

“बच्चों जैसे सवाल करके अंजान मत बनो प्रिंस! यही सवाल अपने आप से भी पूछ लो?”

“मैं .. अब पलट गया हूँ शीतल!”

“हाहाहा! बहुत खूब! चूहे खाकर हज करने अमेरिका जाएंगे जनाब?”

“सोफी वैसी नहीं है!”

“इसका सबूत क्या है?”

“मैं .. मैं उसे ..”

“परख चुके हो?”

“नहीं! पर जाना जा सकता है!”

“हाहाहा! कितने भोले हो! आज लग रहा है तुम से और भी प्यार हो जाएगा!”

“सोफी एक ..” मैं पता नहीं क्यों सोफी के पक्ष में लड़ना चाहता हूँ – हार नहीं मान रहा हूँ।

“आज के युग में अगर तुम वर्जिन सोफी की कल्पना में खोए हो तो ये भ्रम है, दलीप!”

“कभी कभी भ्रम भी वरदान जितना काम करता है!”

“लेकिन जब टूटता है तो अभिशाप बन जाता है।”

“लेकिन तुम कैसे कह सकती हो कि ..?” मैं तनिक बौखला गया हूँ।

“अमेरिका जा चुकी हूँ। घूम चुकी हूँ और सब रंग ढंग देखा है – मेरे प्यारे प्यारे बुद्धू! वहां तो बहुत फास्ट लाइफ है। कभी देखोगे तो आंखें चुंधिया जाएंगी!”

शीतल मुझे छोड़ नहीं रही है। उसने सोफी के बारे में बने विश्वास के गढ़ ढा दिए हैं। मुझे दुनियादारी के बारे में समझा बुझा दिया है और भलाई बुराई की व्याख्या कर दी है। फिर भी मेरा अड़ियल मन शीतल के साथ फंसना नहीं चाहता।

“ओके! मैं चला!” मैंने शीतल को बाजू में धकेल दिया है।

“यों तड़पती चीज छोड़ना पाप होता है!” याचना पूर्ण नजरों से शीतल ने मुझे रोकना चाहा है।

“मूड नहीं है शीतल!” मैंने गंभीर स्वर में कह दिया है।

शीतल एक बारगी देखती रही है। मुझमें छिपे जिद्दी दलीप को जैसे चप्पलों से पीट रही है। गद्दे और तकिए के अछूतापन पर तरस खाती रही है और अपने किए परिश्रम पर उसे दुख हो रहा है। एक आक्रोश उसकी आंखों में भरते मैं देख रहा हूँ। खुश हूँ कि अब उलटी सीधी सुना कर शीतल मुझे छोड़ देगी!

“यू ब्लडी फ्रॉड!” दांती भींच ली है शीतल ने।

“यू ब्लडी बिच!” कहकर मैं बाहर चला आया हूँ।

गाली के जवाब में गाली कितनी आसानी से निकल जाती है – मैं आज इसे महसूस पाया हूँ। मुसकुराहट के मुंह पर गाली नहीं कोई आत्मीयता टपकती है और घृणा के बदले कभी भी प्यार नहीं उगता। इसका मतलब मैं यही लगा पाया हूँ कि शीतल को मुझसे प्यार नहीं घृणा है और वो उपकार नहीं प्रतिकार की प्रतीक्षा में है।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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