नवीन सामने आ कर जैसे मुकाबले में डट गया है। एक बेशकीमती सूट, लगी भड़कीले रंगों वाली टाई, जेब में करीने से लगा रुमाल और इत्र की उभरती खुशबू में लिपटा वो आकर्षक लग रहा है।
“हैलो प्रिंस!” उसने मेरे पुराने नाम से संबोधित किया है।
“हैलो! वैलकम नवीन!” कहकर मैंने हाथ आगे बढ़ कर मिलाया है।
“मैं दहला हूँ?” उसने हंस कर मजाक किया है।
“नेता हो न?” मैंने भी खांड़ा खींचा है।
हम दोनों बहुत जोरों से हंस पड़े हैं। फिर अचानक हंसी एक सहज में बदल गई है। लगा है – कुछ अप्रत्याशित घट गया है। मैंने उसे कटौंही कुतिया की तरह घूरा है। शायद हमने यहां की मार्मिक चुप्पी को भेद दिया था, शिष्टता पर आघात किया था और विदेशी बोतल में भरे ठर्रा का सबूत पेश किया था।
“लो आ गई तुम्हारी गे गैदरिंग!” कह कर मैं और नवीन आगे बढ़े हैं।
“हैलो मिस्टर दलीप!” समूह गान जैसी आवाजें उगली हैं उन सब ने।
“हैलो एवरीबडी!” कह कर मैं मुसकुराया हूँ। “इनसे मिलें – नवीन!” मैंने नवीन की कैफियत बताते हुए कहा है।
नवीन इस समूह की आधुनिकता को देख कर रीझ सा गया है। यूं तो वो भी इस फन का माहिर है फिर भी हर नया माल नई अनुभूति तो छोड़ता ही है।
नवीन इन सब को लेकर अंदर गया है और मैं अब भी अपने कुछ खास वी आई पी रिसीव करने की गरज से खड़ा रहा हूँ।
“आइये! आइये!” मैंने स्वागत में कहा है। “पधारिए!” हाथ मिलाया है मैंने। “दलीप!” मैंने नाम का सभ्य उच्चारण किया है।
“भट्ठेवाला!” दूसरे ने कहा है और मेरे हाथ को झटके मार-मार कर अधमरा कर दिया है।
“राही!” एक दुबले पतले व्यक्ति ने चश्मे के अंदर से झांक कर बहुत ही दुबला पतला हाथ मिलाया है। हाथ पर खड़ी नीली नसें शहर में बिछे नल जाल का आभास करा गई हैं।
एक रंगीन सा देसी विदेसी माहौल बन गया है। राही जी कुर्ते और चूड़ीदार पायजामे में दिप रहे हैं तो जकारिया सुपर फाइन की धोती और गाढ़े के कुर्ते में और भट्ठेवाला महाशय पायजामा कमीज के साथ चप्पल पहने घर से चले आए हैं।
लड़कियां जैसे पार्टनर पकड़ने में चुस्त हों – अपने-अपने शिकार पर हावी होती लग रही हैं। वो – रूप सज्जा में अद्वितीय और पार्टी की शान अब नवीन से बात कर रही है। बहुरंगी रोशनी में उभरते वक्ष और देह के आकार खजुराहो से लाई प्रतिमा से मेल खा रहे हैं। हल्का मधुर संगीत बज रहा है और लय पर हर मन थिरक-थिरक कर फर्श पर एड़ियां बजा रहे हैं।
“क्या लेंगे?” मैंने पूछा है।
“स्कॉच!” जकारिया ने उत्तर दिया है।
“क्या लेंगी?”
“स्कॉच डार्लिंग!” ऐसा जवाब है जो खजुराहो से न आ कर विदेश से आया लगा है।
“ये क्या है बे?” मैंने नवीन को कोने में खींच कर पूछा है।
“ये ..? ये पॉलिटिक्स है बेटा!” कहकर नवीन ने अपने सजीले शरीर को ऊपर से नीचे तक देखा है। “ओ यस! मैं भूल गया था। देख ..” कहकर अंदर की पॉकेट से उसने अखबार खींच लिया है।
अखबार में मेरी और नवीन की फोटो छपी है। मेरा स्वागत समारोह गंदी नालियों की पड़ी लकीरें और अन्य लंबू धम्मबुओं के छपे आजू बाजू के चित्र हैं। पूरा कॉलम किसी लेख से भरा है।
“ये क्या है बे?” मैंने पूछा है।
“पब्लिसिटी!” कह कर नवीन मुसकुराया है।
मैं कोई जटिल सी स्थिति सूंघता रहा हूँ। नवीन के खिलते चेहरे पर कुछ मलिन भाव, कोई चालबाजी और कोई धोखा ढूंढता रहा हूँ।
“नहीं समझा?” नवीन ने फिर पूछा है।
“नहीं!” मैंने गंभीरता पूर्वक कहा है।
“तो इस तरह समझ – मैं और तुम दो संज्ञा हैं। तुम मेरा सहारा हो और मैं तुम्हारा! एक दूसरे के सहारे हम दोनों चढ़ जाएंगे!”
“लेकिन तू तो ..?”
“नवीन गुट का नेता हूँ – यही न?”
“हॉं!”
“डबल इमेज! या कहो डबल रोल! अब समझा?”
“पर ये तो धोखा है, नवीन?”
“नहीं मेरे भाई! इन गलियारे और झोपड़ पट्टी के लोगों को कॉनफिडेंस में लेना बहुत जरूरी है – ठीक उसी तरह जिस तरह तूने वर्कर्स को मुट्ठी में ले लिया है।”
“लेकिन मैंने तो उन्हें कुछ दिया है!”
“और मैंने भी!”
“क्या?”
“आशा! एक ऐसी आशा जो मीलों तक दृष्टिगोचर नहीं होती!”
“बस ..?”
“इससे ज्यादा इन्हें देना नादानी है। बीमार को पच देना होता है, दावत नहीं!”
“बीमार ..?”
“हां! ये दरिद्र गरीबी के रोग से बिंधे पड़े हैं। इसका इलाज इन्हें धन देना नहीं है – धन के ढूह दिखाना है, एक आशा जगाना है कि वो भी चाहें तो धनवान बन सकते हैं! वरना ..”
“मतलब – तुम ये सब अपने लिए कर रहे हो?”
“तुम कौन पराए दुख में पिस रहे हो? दलीप! हम सभी स्वार्थी हैं!”
कहकर नवीन हंस गया है। इतनी कुटिल हंसी है नवीन की, कि मैं इसे सह नहीं पा रहा हूँ। मैं अखबार को एक बारगी देखता रहा हूँ। मेरी अपनी तस्वीर मुझे ही मोह रही है। छपे कॉलम में लिखी मेरी प्रशंसा मेरा मुंह चिढ़ा रही है। नवीन ने मुझे जैसे झकझोर कर जताया है और कह रहा है – देखो दलीप! मैं और तुम मिल कर चले तो ..
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड