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स्नेह यात्रा भाग छह खंड नौ

sneh yatra

“गुड मॉर्निंग! क्या हुआ मुक्ति!” मैंने बड़े ही आत्मीय ढंग से पूछा है।

मुझे क्रेंक टूटने का गम नहीं क्यों कि इसकी बारीकी का अंजान मैं समझने में समर्थ नहीं हूँ। एक महान खुशी ने मुझे लबालब नाक तक भर दिया है और वो खुशी उपजी है मुक्ति बोध को एक मिस्त्री की सज्जा में देख कर। काली डांगरी में लिपटा गोरा बदन, लंबे काले अस्त व्यस्त बाल और माथे पर झूमती कोई आवारा सी लट, डांगरी की जेबों में खोंसे रिंच, पेच कस और छोटा फीता तथा एक सफेद चमकता बॉल पॉइंट पेन मुक्ति बोध के चातुर्य की पुष्टि करते लगे हैं। एक बार मैं अपने चयन पर फिर से खुश हो लिया हूँ।

“वास्तव में सर जांच करने से साफ पता लग रहा है कि ये मैन्यूफैक्चरिंग डिफैक्ट है। वरना यों क्रेंक का टूटना ..”

“इसका मतलब ..?”

“यस सर! इसमें कारीगरों की गलती नहीं है।”

“तो ..?”

“हमें ये केस मैन्यूफैक्चरिंग फर्म के सामने रखना होगा!”

“फायदा!”

“अभी एक साल हुआ है और इसका गारंटी पीरियड ..”

“लिख दो!” मैंने संक्षेप में विकल्प बताया है।

“सर! लिखने से तो .. यानी समय बहुत लग जाएगा। आप तो जानते हैं कि कोई भी काम आज बिना पर्सनल लेजऑन के नहीं होता।”

“अमेरिका जाना होगा?”

“दैट्स राइट सर!” मुक्ति ने हंस कर हां की है।

मुक्ति का सुझाव मुझे वरदान जैसा लगा है। मैं देहली से डर का भागने के बाद वास्तव में कहीं दूर चला जाना चाहता हूँ। सोफी से एक बार मिल कर पूछ लेना चाहता हूँ .. कि ..”

“इससे समय की बचत होगी और साथ में प्रोडक्शन भी ..”

मुक्ति बोध ने सफाई दी है पर मैं सुन नहीं रहा हूँ। अचानक मैं मशीन और मुनाफों से कट कर सोफी से जा जुड़ा हूँ। कितना गजब का आकर्षण है? मात्र मिलन के भान से मैं अंतस्थल तक कृतार्थ सा हो जाता हूँ।

“लेकिन तुमने ये मैकेनिक ..?”

“सर! मैंने इसका कोर्स किया है!”

“और क्या-क्या किया है?” मैंने रुचि पूर्वक पूछा है।

“सर! यू मीन सर ..?” मुक्ति कुछ छिपाना चाहता है।

“हां-हां! मिल के सिलसिले में ..”

“सर! यहां जितने भी ट्रेड हैं मुझे सबकी वर्किंग नॉलेज है!”

“कैसे और क्यों?”

“मैं खुद जा कर सीखता रहा हूँ।”

“क्यों?”

“इससे दो लाभ हैं – पहला कारीगरों के साथ मैं संपर्क बनाने से आत्मीयता बढ़ती है और उनके सुख दुख के करीब आ जाता हूँ और दूसरे काम जानने के बाद उसमें खराबी आने पर उपाय खोजने में देर नहीं लगती!”

“लेकिन मैनेजर की हैसियत – मान मर्यादा और ..?”

“खोखली संज्ञाएं हैं, सर! वर्तमान के संदर्भ में मैं तो काम और एफीशिएंसी को ही मान्यता देता हूँ।”

“लोग सोचेंगे कि तुम?”

“मुझे डर नहीं है। मैं कहता कब हूँ कि मैं कोई राजकुमार हूँ। मैं भी इन्हीं के बीच से उठा एक व्यक्ति हूँ जो इन्हें भुला नहीं सकता!”

“इस तरह गंद संद में लेटते तुम्हें घिन नहीं आती?”

“आनंद आता है। जब ज्ञान बढ़ता है, विश्वास जमता है, दो चार से दिल की बातें कही सुनी जा सकती हैं तो मेरी सारी समस्याएं हल हो जाती हैं। ये सब ऑफिस में बैठ कर संभव नहीं सर!”

“समझा!” कह कर मैं मुक्ति बोध को दुबारा पढ़ने लगा हूँ।

कनखियों से कारीगर हम दोनों को घूर रहे हैं। हम बातें बहुत ही धीमी आवाजों से कह सुन रहे हैं और ये लोग शायद यही सोच रहे हैं कि मैं हुए नुकसान की गहराई नाप रहा हूँ। लाला हूँ और मशीन की मौत को कारीगर की मौत से ज्यादा अहमियत देता हूँ। लेकिन मैं कारीगर और मशीन की मौत के किस्सों से दूर मुक्ति बोध और नवीन को नापे जा रहा हूँ। एक डबल इमेज बनाए दिल्ली में प्रचार कर रहा है कि गंदी नालियां साफ करने से गरीबों के दरिद्र धुल जाएंगे तो दूसरा एक मूक और सच्ची तपस्या में लगा है!

“ऑफिस में मिलो! जरूरी बात करनी है।” मैंने मुक्ति को आजाद कर वापसी ली है।

अब मेरे कदम लंबे-लंबे और सहजता से न उठ कर धीरे-धीरे उठ रहे हैं। मुक्ति के विश्वास के सहारे लगा है मैं भी जम गया हूँ। कोई अकर्मण्यता का भय जो खा रहा था जाता रहा है। लगा है – काम ही पूजा है, सच्चा सुख है और जन कल्याण का एक अनूठा धर्म है। इन गरीबों से क्या पर्दा, क्या भेद और अगर छिपाव किया भी जाए तो क्यों?

“गुल गफाड़े छोड़ कर अब काम से लग जाओ!” मेरी आत्मा बोल रही है।

जितना मैं आहत होता हूँ रूह उतनी ही जागरूक लगती है। जितना मैं मोह तोड़ कर आगे बढ़ जाता हूँ – कोई नया विकल्प समझ आ जाता है। जीवन जैसे धीरे-धीरे अपने आयाम खोलता जा रहा है – और मैं हर काम समझने के प्रयत्न में रत हूँ!

“मुक्ति मैं भी तुम्हारी तरह जीना चाहता हूँ।” मैंने स्पष्ट में कहा है।

“स्वागत करूंगा सर! पर .. लेकिन ..?”

“ये पर और लेकिन को काट कर ये सर को भी भूल जाओ!”

“तनिक सा समय तो लगेगा सर!” कह कर मुक्ति हंस गया है।

मैंने सामने पड़ी कुर्सी पर मुक्ति को बैठने का संकेत दिया है। चाय मंगाई है। कुछ हल्की फुल्की बात करने के उद्देश्य से पूछा है – और क्या करते हो? एक शरारती मुसकान से मेरा चेहरा पुता है।

“सर ..! आप का मतलब .. स्पेयर टाइम में ..?”

“हां-हां!”

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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