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स्नेह यात्रा भाग छह खंड एक

sneh yatra

मुझे लगा है कि मैं दिल्ली की हर गली से वाकिफ हूँ और हर व्यक्ति मुझे यहां पहचानता है। वास्तव में अखबार में छपे फोटो, मेरा मिल चलाने का तौर तरीका और अपने घर को अस्पताल और लाइब्रेरी में बदलने की खबर ने दिल्ली के निवासियों के दिल में मेरे लिए एक इज्जत सी बिठा दी है। जो भी मिलता है – गहक कर और जो भी बात करता है वो नई लहर और नई संस्कृति के रोपण के लिए सतत प्रयत्न में जागरूक युवा समाज के ही बारे में पूछता है। कुछ पत्रकार मित्र नमक मिर्च मिला कर रोचक कहानियां गढ़ लेते हैं तो कुछ युवा वर्ग के हेतु चलती फिरती मैगजीनों के लिए मेरे दो चार फ्रेश फोटो लेकर कोई चलती पुड़िया लड़की साथ में जोड़कर रोचक कहानी बनाने में संलग्न हैं।

कॉफी हाउस से उठती सौंधी गंध, एक उमड़ता अजान क्राउड और वहां की गहमागहमी आज सदियों के बाद उभरा एक दृश्य लगता है। कई भूले भटके मिले हैं। कई ने आंखें चुराई हैं तो कई दूर से ही रिमार्क पास करके मुझे ऊंचाइयों से गिराने का विफल प्रयत्न करते रहे हैं।

“युवा समाज में वो जवानी देखी है?” एक ने जोर से प्रश्न पूछा है।

ये प्रश्न कॉफी हाउस में गूंज-गूंज कर किसी को उत्तर देने के लिए बाध्य नहीं कर रहा है। फिर भी एक ने अपनी जेब से फोटो निकाल कर हवा को संबोधित करके उसी कड़क स्वर में उत्तर दिया है – जे रही प्यारे ..! सोफी की इलस्ट्रेटिड फ्यूचर मैगजीन में छपी रंगीन फोटो है। सोफी वास्तव में गजब की सुंदर लग रही है।

मन आया है कि ये फोटो छीन कर अपनी जेब में रख लूं। अचानक ही मुझे भी पॉकेट में रक्खे फोटो का ज्ञान हुआ है। मैंने भी फोटो को जेब से निकाल कर हवा में फहरा दिया है।

“और जे रही प्यारे ..!” मैं भी उसी की तरह कड़क कर बोला हूँ।

मेरा सहम छोड़ कर भागा है, रोष चढ़ आया है और आंखों में लाल-लाल अंगारे दहकने लगे हैं। वो फोटो वाला शख्स अब सिकुड़ कर बैठ गया है। उसे कोई भय खाए जा रहा है। उसके साथी छोड़ कर जाने लगे हैं तो वो भी खिसकने लगा है। अचानक अखबार और उन पत्रिकाओं में छपे सभी कॉलम पढ़ जाने को मेरा मन हुआ है।

“हाय!” बानी ने मुझे बुलाया है।

“हाय!” कहकर मैंने आत्मीयता जताई है।

दस दुश्मन बना कर एक दोस्त भी बन जाए तो बुरा नहीं होता! यूं तो दोस्तियां दुश्मनी में और दुश्मनी दोस्तियों में उसी तरह बदलती रहती हैं जिस तरह कि मौसम।

“कॉफी नहीं पीओगे?” समीप आ कर बानी ने पूछा है।

“पिलाओगी तो जरूर पीऊंगा!” मैंने आग्रह स्वीकारते हुए कहा है।

बानी के साथ आए दोस्त फूट गए हैं। यहां का ये मूक रिवाज है कि एक दोस्त दूसरे की जरूरत भांप जाता है। इसी तरह से तो दोस्ती चलती है।

“चलो! नटवर में चलते हैं!” बानी ने मुझे भीड़ से बाहर घसीटा है।

मैं और बानी नटवर में अंदर वाले केबिन में जा बैठे हैं। बानी के चेहरे पर आज जो सौम्य बिखरा है, जो सौहार्द उसके हाव भाव से बिखर रहा है – किसी पुराने वैमनस्य या भूल को सुधारता लग रहा है। बानी अपने द्वंद्वों लड़कर जीत गई है या हार गई है ये तो पता नहीं लग रहा है। लेकिन मैं ये जानता हूँ कि आज का बिल भी बानी ही चुकाएगी!

“अब दिल्ली कैसी लग रही है?” बानी ने महज बात करने की गरज से पूछा है।

“एक बदलाव महसूस रहा हूँ!” मैंने शांत स्वर में कहा है।

“तुम खुद भी तो बदल गए हो।” बानी ने एक आह जैसी लंबी निश्वास इस तरह बाहर धकेली है जैसे कोई आत्मा पर लदा बोझ पटक दिया हो।

मैं चुपचाप नटवर में लगे नए पर्दे, नई पेंटिंग और चमचमाते फर्नीचर को देखता रहा हूँ। यहां भी इन पिछले दो सालों में सब कुछ बदल गया लगता है।

“ये बदलाव तेजी से बढ़ रहा है।” मैंने उसी तरह नटवर को आंखों में समेटते हुए कहा है।

“हां! यहां भी सब कुछ बदल गया है दलीप!” बानी ने मेरा हाथ पकड़ लिया है।

आज न मन में कोई ऊमस उपजी है और न कोई भय। बानी मुझे एक हारा थका जुआरी लगी है जिसमें बाजी खेलने की अशेष कामना अभी तक मरी नहीं है पर उसका धन का ढूह चुक गया है। मुझे कोई उभरता संबंध हम दोनों के बीच दिखाई पड़ रहा है लेकिन मैं उसे कोई नाम नहीं दे पा रहा हूँ।

“एक बात का जवाब चाहिए?” बानी जैसे अंतिम बार दाव पर स्वयं चढ़ कर बाजी जीत लेना चाहती है।

“पूछो!” तटस्थ रह कर मैंने कहा है। मैं अब भी भावों की आवृत्ति नहीं देख पा रहा हूँ। एक नैराश्य ही मुझे भरे है।

“क्या तुमने मुझे कभी प्यार नहीं किया?” बानी ने मेरी आंखों में आंखें डाल कर कोई सच्चाई जानने का यत्न किया है।

मंत्र मुग्ध सा मैं अपने अंदर ही खोजता रहा हूँ कि मैंने बानी से क्या किया था और जो कुछ किया था क्या वो प्यार था? एक एक दहकता स्पर्श, चुंबन और सहचर्य मानस पटल पर उभर आए हैं। मात्र अनुभूति से मेरे अंग गरमाने लगे हैं और मैं प्रश्न का उत्तर पा गया हूँ।

“वो वासना थी, बानी!” मेरा स्वर सच्चाई जानकर भर्रा गया है।

“क्या ..?” नयन विस्फारित बानी मुझे कोसती रही है।

“हां, बानी! ये कोरा सेक्स था!” मैं साहस बटोर कर पुष्टि कर पाया हूँ।

“कैसे ..?” बानी ने हारी थकी आवाज में पूछा है।

“आलिंगन के कसाव के बाद हमने कभी चलकर नहीं देखा। हम मिलन के बाद आंख बंद कर खड़े-खड़े सोचते रहे – प्यार की परिभाषा! जबकि वो थी नहीं!”

“तो क्या था – वह?”

“एक भ्रामक मन: स्थिति – जो टिकाऊ नहीं थी।”

“पर मैंने तो ..”

“मानता हूँ। तुमने सब खोल कर रख दिया था और यहीं हम भटक गए बानी।” मैं एक अपार दुख सागर के पारा वार नाप रहा हूँ।

सोफी का हर बार कहा वाक्य हर दीवार पर छप गया है – नॉट नाओ! सोफी ने सब कुछ खोल कर भी गैरिक अल्फी के आवरण में सब कुछ इस तरह छुपा लिया जिस तरह दर्पण में छुपी आकृति! और बानी ..?

“प्यार समर्पण नहीं – त्याग है, बानी! एक दूसरे के लिए शुभ चिंतन और कहीं सुदूर क्षितिज में जा मिलने की चाह है। मिलन घातक है!”

और अचानक मैं सोफी के विछोह पर खुश हूँ। बानी शांत है। वह अपनी और मेरी गलतियां नाप रही है। मुझे भी बानी से एक सहृदयता जुड़ रही है। मैं बानी की भूल बांट लेना चाहता हूँ क्यों कि उस भटकने में मुख्य केंद्र बिंदु मैं ही बना था।

“मैं .. शर्मिंदा हूँ बानी!” मैंने बानी का हाथ भींचा है।

बानी में एक आश्वासन भर गया है। एक चमक उसके रीते और पीलिया चेहरे पर लौट आई है। शायद अब तक बानी पश्चाताप की दहकती आग में जलती रही है और आज वो आग राख बनी जा रही है।

“ये हमारी भूल थी न?” बानी ने फिर से पूछा है।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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