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स्नेह यात्रा भाग छह खंड चौदह

sneh yatra

किसी पश्चिमी धुन पर हम सब खड़े हो कर नाचने लगे हैं। मुक्तिबोध और शीतल का जोड़ा थिरकता हुआ बहुत ही मोहक लग रहा है। शीतल ने अपना सर मुक्तिबोध के कंधों पर टिका दिया है और लगातार मुझे घूर रही है। मैं एक अधबूढ़ी औरत का साथ दे रहा हूँ – जो बड़ा ही हास्यास्पद लग रहा है। श्याम – जो कभी इन क्रियाकलापों का कट्टर विरोधी हुआ करता था – आज अतीत भूल कर पूर्ण सामर्थ्य के साथ वर्तमान को जी रहा है।

“वी मस्ट चेंज!” वह एक अधेड़ सी युवती को कह कर साथ देने को मना रहा है।

लगा है हमने एक दूसरे को फुसला कर साथ में कर लिया है और किसी को भी अपने मंतव्य का ज्ञान नहीं है – बस चले जा रहे हैं – बदलते और तय करते एक सड़क निराधार – बिना आकार!

भीड़ तनिक छोटी हुई है। शीतल के पैर लड़खड़ा गए हैं। उसकी निगाह मुझे नहीं छोड़ रही है। देखते-देखते वो बेहोश हो कर गिर गई है। सभी ने एक दूसरे को प्रश्न वाचक निगाहों से नापा है।

“उठो!” श्याम ने बड़े ही तटस्थ रह कर शीतल को उठाया है।

शीतल की गर्दन निर्जीव हो लटक गई है। श्याम ने उसे आगोश में भर कर उठा लिया है। मुझे लगा है – श्याम शिकारी है और अब अपने आखेट को उठा कर खुशी-खुशी घर लौट रहा है।

मेरे हाथों के स्नायु कड़क हो गए हैं। लगा है – ये भी शीतल का भार संवरण कर रहे हैं। कुछ उठाए हैं – जो महक रहा है, मादक है और किन्हीं अज्ञात भावों में डूबा बेहोश है! मैं एक चोर भाव से या अपराधी के भाव से भरता चला जा रहा हूँ।

“यों तड़पता नहीं छोड़ते!” शीतल की नशीली आवाज मुझे शूल चुभो रही है।

मैं भी कई गिलास भर पी गया हूँ। चुपचाप महफिल से कदम बढ़ा कर चला हूँ। मुक्ति ने ही गुड नाइट सर, कह कर मुझे विदा किया है। लगा है मेरा चोर भाव पकड़ा गया है। मेरे और शीतल के बीच जो भी घटा है शंका बन कर हर दिल में घुस गया है। विकट स्थिति बन गई है – मैं भी जानता हूँ!

मन उड़ू-उड़ू हो रहा है। एक पल भी काम में रमा नहीं है। मैं डायरी पकड़ कर घूम रहा हूँ। लोगों से खैरियत पूछ कर कुछ छुट्टी के वायदे तो कुछ तरक्की के सहारे खैरात में बांट रहा हूँ। कुछ को दिलासा दे कर आया हूँ तो कुछ को हलका सा लैक्चर। अपने आप को कौन सी पुड़िया दूं – समझ नहीं आ रहा है।

मेल में अचानक एक विदेशी मोहर वाला पत्र है। मैं उसे ध्यान से देख रहा हूँ। उलट-पलट कर देखा है तो सोफी का पत्र है। ऑफिस में चोर नजरों से मुआइना कर देखा है – कोई है तो नहीं! फिर होंठों से लगा कर पत्र को चूम लिया है। एक अमर संतोष आत्मा में उतर गया है। खोल कर मैं पत्र पढ़ गया हूँ। लिखा है –

प्रिय दलीप!

लग रहा है – हजारों मील की उड़ान भर कर आई हूँ पर पीछे कुछ भी नहीं छूटा है। न तुम्हें भुला पाई हूँ और न हिन्दुस्तान को और न वहां की जरूरतों को! मैं अपने ही देश में विदेशी बनती जा रही हूँ। यहां का माहौल मुझे घटाता है और हिंदुस्तान का विस्तार मुझे फैलने को कहता है। इस देश में कितना कुछ अलौकिक है और कितना नैसर्गिक – मैं भुला नहीं पाती हूँ।

याद है न वो अछूती नदिया – जहां तुमने मुझे छू लिया था? यहां वैसा कुछ नहीं – और जो है अजीब लगता है। नदी पहाड़ जंगल और वहां के मनुष्य भी बेजोड़ हैं! तुम्हारी स्नेह यात्रा मुझे प्यार करना सिखा गई! धन्यवाद दलीप! आज भी उस माटी की सौंधी सुगंध नाक में अटकी है। फिर कब बुलाओगे?

बुला जरूर लेना – भूल मत जाना दलीप?

हर पल तुम्हारे निमंत्रण के इंतजार में –

सोफी, पत्र आया था मेरे पास।

“तो हमारा इंतजार है? मैंने अपने आप से प्रश्न पूछा है।

मैं पत्र बार-बार पढ़ कर खुश हुआ हूँ। इस बार कुछ कम भरोसा निकला है। हर बार अनुभूतियों पर चढ़ कर वर्तमान को खींच लाया हूँ। सोफी से मिल गया हूँ। पत्र पर अब सोफी के अधरों के चित्र मुझे खींच रहे हैं – घसीट रहे हैं। कुछ याद आता रहा है – तो कुछ भूलता रहा हूँ। कुर्सी पर बैठा-बैठा मैं आगे पीछे झूलता रहा हूँ।

“स्नेह यात्रा ..?” मैं दोहरा रहा हूँ।

अचानक मैंने पते वाली डायरी खोल ली है। प्रदीप को फोन पर बॉम्बे से खींचा है!

“यंग मैन – कब हो रहा है – प्रोग्राम?”

“आप कहें तब!”

“भाई मुझे यू एस ए जाना है। उससे पहले कर लो ..”

“ओके! अगले माह में ..?”

“सूट्स मी!” मैंने कहा है।

“मैं आ कर आप से डिसकस कर लूंगा। जैसे भी चाहें कर लें। तुम्हारे वो आगरा वाले शाह पी एस के साथ क्रांति ला रहे हैं। मुबारक हो!”

“थैंक्स प्रदीप!” मैंने खुश हो कर कहा है।

मैं सामने गैरिक अल्फी में लिपटी सोफी को भूल नहीं पा रहा हूँ। मन में – स्नेह यात्रा के एक सप्ताह के समय को नापता रहा हूँ। कुछ भी नहीं है – एक सप्ताह। कुल सात दिन और कुल गिने घंटे और मिनट – और फिर वही विछोह – जो शायद अबकी बार सह नहीं पाऊंगा!

शीतल की कविता याद हो आई है। इससे पहले कि मैं भी कुछ कहूँ – मैं अपने गढ़ किले मजबूत कर लेना चाहता हूँ।

“सब को निमंत्रण दे दिया है। आप अबकी बार एक वी आई पी होंगे – बाकी काम मैंने पीचो को सोंप दिया है।” प्रदीप ने मुझे बताया है।

मैं लिस्ट में ध्यान से एक-एक नाम पढ़ता रहा हूँ। प्रदीप मेरे लिए इंटरैस्ट से प्रभावित है और शायद नहीं जानता कि मैं सोफी का नाम और पता दो बार पढ़ गया हूँ और फिर भी मैंने पूछा है – सोफी को पत्र भेजा है न – उसके पते पर?

“जी हां!” कह कर प्रदीप मुसकुरा गया है।

एक संतोष सा अंतरात्मा में भर गया है। अब सोफी जरूर आएगी – मुझे विश्वास है। साथ-साथ वापस जाएंगे – कितना मजा आएगा? लगा है मेरा किला शनै-शनै अपनी दीवारें उठाता चला जा रहा है। मुझे वाह्य परिस्थितियों से काट रहा है और मैं इस अदृश्य परिधि के घेरे में सुरक्षित लग रहा हूँ। हर बार मैंने कैलेंडर पर दिन गिने हैं, तारीखें उलट-पलट कर देखी हैं पर कोई एसी युक्ति नहीं जो अगले महीने को पिछले से पहले ला कर जोड़ दे। क्या नियम है – कितने रूढ़ और कठोर? हम कुछ भी तो नहीं बदल सकते!

“आप तारीख 29 मई को पहुंच जाएंगे! मौसम भी गजब का होगा – सावन की हरीतिमा मैसूर को इसी समय से भरने लगती है।” प्रदीप ने अपने ज्ञान का प्रदर्शन किया है। मैं जैसे बादलों के मजमे के मध्य में खड़ा सोफी के साथ हूँ और प्रदीप हमें देख कर हंस रहा है।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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