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स्नेह यात्रा भाग छह खंड छह

sneh yatra

“क्यों?” मैंने इस तरह पूछा है जिस तरह कोई जुड़ा तारतम्य काट डाला हो।

“इसलिए – तुम्हारे पास पैसा है और अक्ल है, मेरे पास अक्ल है और पुल”

“पुल ..?” मैं जैसे समूचे ज्ञान से परिचित होना चाहता हूँ।

“हां पुल ..!” नवीन तनिक हंसा है। “ये वो ताकत है जिससे जो कहो संभव कर दिखाऊं!”

मुझे सहसा मुक्तिबोध का कहा वाक्य याद हो आया है – रत्ती भर भी नहीं थी सर! नवीन शायद ठीक ही कह रहा है। आज हर काम पुल – यानी सिफारिश पर टिका है। नवीन के पिता उच्च पद पर आसीन हैं और उनकी ताकत नवीन पर्दे के पीछे से इस्तेमाल कर जाता है।

“शीतल को लाकर दिखा दो!” मैंने कहा है।

मैं ये चुनौती यह जान कर फेंक रहा हूँ। वैसे नवीन शीतल की परिभाषा तक नहीं जानता और अगर चाहता भी रहा हो तो अब तो संभव नहीं क्योंकि श्याम ..

“एअर होस्टेस?” नवीन ने बात को जैसे गले से पकड़ लिया है।

“हां, वही!”

“क्या यार? अरे कहा होता .. मलिका .. या मेरी जान – ये भी कोई मुश्किल है!” कह कर नवीन टेलीफोन की ओर बढ़ गया है।

मैं असमंजस में पड़ गया हूँ। आज पहले की तरह खुल कर पार्टी के पल नहीं जी पा रहा हूँ। वो रुझान, बे धड़क जीना और लड़कियों के साथ हू हल्ला बन नहीं पा रहा है। शायद वो ठीक कहती है – मैं सैडिस्ट हो गया हूँ।

जाम छलकते रहे हैं और पैर किसी अज्ञात और विदेशी लय पर अनभोर में थिरकते अलग से कुछ पल जी रहे हैं। मेरे दिमाग में अजीब सा तूफान उठ रहा है। कुछ शब्द मानस पटल पर छप-छप कर मिट रहे हैं। मैं इनके अर्थ जान लेना चाहता हूँ। पुल, धन, अक्ल और इमेज – डबल इमेज – आदि कुछ संज्ञाएं बन रही हैं जो परिभाषित नहीं हो पाई हैं। नवीन मुझे एक सफेद फ्रॉड लग रहा है, मजाकिया एक ऐसा गीदड़ और कहीं एक दुर्गंध युक्त कीड़ा। मेरा मन घृणा से भरता जा रहा है। मुझे लग रहा है कि हम सभी आचरणों से कट कर अलग खड़े हैं। एक विमानवीय करुणा का पल जी रहे हैं – जहां सच्चाई को खोज निकालना ही एक खोज बन रहा है।

“आई लाइक बिजनिस मैन!” वो नवीन से कह रही है।

नवीन का चेहरा एक बार कुछ विद्रूप सा हुआ लगा है पर फिर वह संभल गया है।

“आई लव मनी!” दूसरी ने कहा है।

इस तरह का खुला इजहार, खुली छूट और खुले आचार विचार हमें कहां ले जा रहे हैं? शायद हम एक संघर्ष की ओर बढ़ रहे हैं। धन के मोह की चकाचौंध ने अंधा कर दिया है हमें और हम सभी मान मर्यादा भूल गए हैं।

“प्रिंस के हाथ से पीऊंगी!” वो जिद ठाने सामने खड़ी है।

“तुम पर मरती हूँ!” इजहार है जो भद्दा और शराबी लग रहा है।

मैं चाह कर भी शराबी नहीं हो पा रहा हूँ। मन पता नहीं क्यों इन नशीली मदिरा में रम नहीं पा रहा है। मैं दिल्ली छोड़ कर भाग जाना चाहता हूँ। पर कहां तक भागूंगा – समझ नहीं आ रहा है।

कुछ सच और कुछ झूठ छांटने के उद्देश्य से मैंने दूर खिड़की से झांका है। रात का रूपोश अंधेरा सब कुछ गड्डमड्ड कर गया है। अच्छाइयां बुराइयों से मिल कर एक सामंजस्य स्थापित कर रही हैं जैसे दोनों दो अंग हों और दोनों ही अपने-अपने पक्ष रख रही हों।

“मेरे हाथ से ..” वो गिलास मदिरा से भरे मेरे सामने आ खड़ी हुई है।

कभी हाथ से पीना तो कभी पिलाना कोई सामीप्य लाने में संभव होना चाहिए था पर ये हो नहीं पाया है। मैं चाह कर भी आज ये रंगीन मधुशाला नकार रहा हूँ और औरत देह का मोहिनी मंत्र फीका सा पड़ रहा है।

“बस, थैंक यू!” मैंने ना कह दी है।

“क्यों?”

“मैं लिमिट पर हूँ!”

“लिमिट …? माने – पाबंदी! अब तो पाबंदियां हट गई हैं प्रिंस! क्या युग है? जो चाहो सो कहो!” लड़खड़ाती जबान से वो कहती रही है।

मेरे देखते-देखते एक के बाद दूसरी लिमिट पार करती चली गई है। एक बार के स्टूल से नीचे गिर कर बर्रा रही है तो दूसरी सोफे पर फना हुई हंसे जा रही है। जब मुझे ठंडा पाया है तो वो नवीन को घसीट कर ले जा रही है। मैंने नवीन को घूरा है। मैं इशारों में ही पूछ गया हूँ कि – पुल का क्या रहा?

“गो टू रूम नंबर 27!” कह कर नवीन उसके साथ चला गया है।

मैं खड़ा-खड़ा जकारिया, भट्ठे वाला और राही को घूर रहा हूँ। तीनों किशोरियों में रम गए हैं। उम्र का फर्क, स्तर का फर्क, जाति, धर्म और समाज की पाबंदियां सभी भूल कर सभी मस्ती में किलोल कर रहे हैं। क्या यही स्वतंत्रता का अर्थ है? क्या यही प्रगति वाद की निशानी है? एक टूटन मन को मसोस रही है और मैं हारता जा रहा हूँ। लगा है आज वहीं वापस आ जाऊंगा जहां से मैं उठा था!

“सर चाबी!” कह कर वेटर ने मुझे चाबी पकड़ा दी है।

चाबी पर छपा नंबर 27 मैं फिर पढ़ गया हूँ। नवीन का मुसकुराता चेहरा जैसे पर्दे के पीछे छुपा है और मेरी प्रतिक्रिया पढ़ने के लालच में जागरूक दो आंखें पर्दे के पार से भी देख रही हैं। मैं ठिठका हूँ। अब पार्टी गुमसुम सी पड़ गई है। संगीत अब भी बज रहा है। पर थिरकते मन चेतना हीन पड़ते जा रहे हैं। फर्श पर, सोफों पर, दीवार के सहारे लगा मैं अकेला पैरों पर खड़ा हूँ। अकेला खड़ा हूँ – भटक नहीं रहा हूँ – जैसे एक दंभ बन गया हूँ और कह गया हूँ – तू कहां गिरा है बे?

“वैल डन, डार्लिंग!” शीतल सोफे पर बैठी नशा कर रही है और मुझे आते ही स्वागत किया है।

एक पारदर्शिता नाइटी में बदन छिपाए, बालों को कंधों पर टिकाए शीतल मुझे कोई मेनका रूप लगी है। मैं उसका अंदर तक अवलोकन कर गया हूँ। एक मोहक गंध में सना शरीर किसी कशिश से संचारित है जो चुंबक की तरह मुझे बहुत पास खींच लेना चाहता है।

“बहुत देर में याद आया कि चलें ..” शीतल ने शिकायत की है।

“मैंने तो ..” मेरी जबान अटक गई है।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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