बाहर की मात्र हवा के स्पर्श से मैंने भांप लिया है कि अब चार बज गए होंगे। फिर आकाश पर फीके तारा मंडल को देखा है – लगा है ये हंस कर विदाई मांग रहा हो और रात की बात उनके लिए कोई खास महत्व न रखती हो। मैं कार में बैठते ही निश्चय कर पाया हूँ कि सीधा फैक्टरी चलूंगी। लगा है – सारी दिल्ली के लोग भोर होते ही लाठियां उठा मेरे पीछे हो लेंगे और मार मार कर मेरा भुरकुस उड़ा देंगे क्यों कि मैं यहां का माहौल बिगाड़ रहा हूँ। चाह कर भी इस भीड़ में कहीं मिल नहीं पा रहा हूँ।
तेजी से भाग कर मैं क्षितिज पर छपे तारा मंडल को छकाने के प्रयत्न में सरपट कार दौड़ा रहा हूँ। देहली की जगमगाने वाली विद्युत रोशनी की चकाचौंध जैसे मैं सह नहीं पा रहा हूँ। इससे पहले भीड़ उमड़ कर बाजार भर दे मैं भाग जाना चाहता हूँ। कभी इस देहली की रंगीनियों से जी नहीं भरता था और आज मेरी रूह कांप रही है।
“अपने अलग किले बना लो!” कोई मन में बार बार कह जाता है।
लाल किला, पुराना किला – टूटे खंडहर, किलों की लाशों जैसी मीनारें, बगीचे और गगन चुम्बी मॉडर्न इमारतें मुझे एक जुड़ा तुड़ा अतीत और बेईमान सा वर्तमान लग रहा है – जो कोई नया नाम ओढ़ लेना चाहता है।
“क्या बनाऊं और क्या मिटाऊं?” एक प्रश्न है जो कार में रोक लगा रहा है और भागने से रोक रहा है, जूझने को कह रहा है और कह रहा है – लौट – यों कब तक भागेगा?”
“एक अपने गिर्द अपने ही व्यक्तित्व की दीवार खड़ी कर ले – यही आदेश मिला है और मेरे अंदर एक उत्तर ने जन्म लिया है।
सुबह के इस ताजगी भरे वातावरण में जो उम्दा विचार आते हैं सत्य के बहुत समीप होते हैं। कोई भी दूषित तत्व इन्हें प्रभावित नहीं करता। पर यही विशुद्ध विचार कभी-कभी बहुत भारी भरकम लगने लगता है। इन्हें उठाना या कार्यान्वित करना एक महान संरचना से जुड़ा होता है।
“व्यक्तित्व? ओरिजिनेलिटी? सृजनात्मक क्षमता?” कितने बोझिल हैं ये सब!
लगा है मैं इनके भार तले दबा जा रहा हूँ। कोई विकल्प, कोई रास्ता, कोई सोर्स नजर नहीं आ रही है। स्वयं ये सब कैसे कर पाऊंगा? अब बाबा याद आ रहे हैं। आज होते तो बताते इन शब्दों के अर्थ और ..
सुबह का धुंधलका छा गया है। इक्का दुक्का राहगीर सड़क के आजू बाजू नजर आ जाता है और कभी कोई फुदकता खरगोश कार को अजान दृष्टि से घूरता पीछे कूद जाता है। मैं अब दूर तक देख पा रहा हूँ। सपाट सड़क है – चौड़ी धुली मंजी जिसपर सरपट दौड़ना बहुत सुलभ काम है। लेकिन क्या जीवन जीना भी उतना ही सुलभ होता है? आंखें मूंद कर क्या मैं कुछ तरंगित पल संतोष से जी सकता हूँ? क्या मैं दो चार पल गहरी नींद सो पाऊंगा? कब से नहीं सोया हूँ ये याद आते ही मुझे कैंप की एक रात याद हो आती है। ठीक उसी के बाद आज तक कभी ठीक से सोना नसीब नहीं हुआ है।
छह बजते-बजते मैं ऑफिस पहुंचा हूँ। सब कुछ ज्यों का त्यों पहने सीधा पर जा लेटा हूँ। खिड़की से अब भी शीतल और शुद्ध पवन रिस रिस कर आ रही है। तपता माथा कुछ ठंडा हुआ है।
जब सो कर जगा हूँ तो 10 बजे हैं। सूरज झांकी से झांक कर मेरा मजाक उड़ा रहा है। जैसे मुझे चोरी करते उसने पकड़ लिया हो मूक भाषा में कह गया है – काम के पल हैं सुस्ती मुझे बिलकुल पसंद नहीं मिस्टर!
मैं झटपट तैयार हो कर ऑफिस में बैठ जाना चाहता हूँ। मुक्तिबोध से थोड़ी गपशप लगा कर ताजा हो जाने की जिज्ञासा है। मेरा ब्रेकफास्ट लग गया है जिसे मैंने बहुत ही स्वाद से चबा चबा कर खाया है। कॉफी पीने के बाद दिमाग की झनझनाहट जाती रही है।
कुर्सी पर बैठ कई पल मैं अपने आप को तोलता रहा हूँ। अपने गुण और ज्ञान की प्रशंसा कर चुकने के बाद अपनी पावर पर उंगली जा टिकी है। मैंने बजर दबाया है ताकि मुक्तिबोध सामने आ खड़ा हो। मुझे तनिक क्रोध आ रहा है कि क्यों वो स्वयं पेश नहीं हुआ है।
“सर ..!” सामने असिस्टेंट खड़ा है।
“मुक्ति कहां है?”
“सर! मिल .. यानी मशीन खराब हो गई थी ..” वह घिघिया कर ही वाक्य अधूरा छोड़ चुप हो गया है।
“ठीक है!” कहकर मैंने उसे छुट्टी दे दी है।
मैं बे मन उठ कर नीचे उतरा हूँ। दो चार सलाम और सैल्यूट सह चुकने के बाद कुछ मन खिला है। मैं वहीं जा रहा हूँ जहां मुक्ति होगा। मन में कोई चोरी पकड़ने की उम्मीद नहीं है। हो सकता है मुक्तिबोध कहीं और हो, कुछ और कर रहा हो। लगा है मैं अपना विश्वास देहली छोड़ कर निहत्था चला आया हूँ।
“क्या हुआ ..?” मैंने गरज कर पूछा है।
मशीन के एक छोर पर कुछ मिस्त्रियों का जमघट लगा है। कुछ काले और भद्दे कपड़ों में हैं तो कुछ जो सफेद पोश हैं – उच्च अधिकारी होने के नाते अलग खड़े हैं ताकि उनपर मशीनों पर चिपकी चिकट न पुत जाए!
“सर! लगता है क्रेंक टूट गया हो।” एक सफेद पोश ने नौकरी बनाने की गरज से ज्ञान बताया है।
“हां हां! काफी बड़ा नुकसान है?”
“जी सर! लेकिन हम ठीक कर लेंगे!” दूसरे ने अपनी इंपोर्टेंस दिखाई है।
काले भद्दे आदमियों में से एक भी नहीं बोला है। लगता है जो काम करने वाले होते हैं वो फालतू नहीं बोलते और जो बोलते हैं ..?
मैं अंदर चित्त लेटे आदमी को मशीन के नीचे से तिल तिल करके बाहर निकलते देख रहा हूँ। हलीम शलीम जिस्म है और लगता नहीं कोई मिस्त्री हो। जब चेहरा बाहर आया है तो मैं चौंक गया हूँ। मुक्तिबोध हंसता हुआ लेटे लेटे अभिवादन में कह गया है – गुड मॉर्निंग सर!
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड