फिर एक चुप्पी ने हमें समेट सा लिया है। मैं सोच कर भी कोई बात नहीं जोड़ तोड़ पा रहा हूँ जिससे बात आगे चले!
“कब आए?” सोफी ने पूछने के साथ साथ रकसैक जमीन पर पटक दिया है – बड़ी बेरहमी के साथ।
“मैं ..! बस कोई एक सप्ताह हुआ है।”
“क्यों ..? आज से ही ..?”
“मुझे – यानी कि मुझे व्यवस्थापक बन कर आना था!”
“ओह! मुबारक! अच्छा काम किया है।”
“धन्यवाद!” मैंने कुछ इस तरह कहा है जिस तरह किसी गैर को टरकाने की गरज से कहा जाता है।
सोफी ने मेरे इस रूखे पन पर खीज कर अपना रकसैक उठा लिया है। चलने को हुई है तो मैं फूटा हूँ!
“सुनो!”
“कहो!”
“मैं टेंट में ठहरा हूँ। तुम चाहो तो ..”
“धन्यवाद!” सोफी ने एक कस कर तमाचा जैसा जड़ा है।
“मेरा मतलब – मैं खाली की दूंगा टैंट ..”
“क्यों?”
“तुम – यानी कि तुम ..”
“मैं यहां कैंप का मजा लेने आई हूँ टेंट में घुटने नहीं। मुझे खुलापन अच्छा लगता है। सपाट धरती का बिछौना मोहक है और ये सहज वातावरण लाभकारी।” सोफी ने पूरा भाषण दे डाला है।
अब मैं नाराज हूँ कि वो मेरे बुद्धूपन पर खीज गई है। मैं क्यों इतना भोंदू बना हूँ – समझ नहीं पा रहा हूँ। लड़कियों को देसी आम की तरह चूंस जाना मेरा धंधा हुआ करता था। चुनौती दे कर हर साल नई लड़कियों को फसाना – पेशा था और रूपसियों के खिलखिलाते हुजूमों की आगवानी मैं ही किया करता था। पर आज एक सोफी से नहीं जीत पा रहा हूँ। एक अग्नि पिंड जैसी बात मन में घूम घूम कर जलाती रहती है और मैं उसे उगल नहीं पाता हूँ।
“तो क्या मैं तुम्हारे साथ आ जाऊं?” मैंने बहुत भोला बन कर पूछा है।
“हूँ हूँ हूँ!” सोफी उपहास की हंसी हंसी है। मैं इस सोफी और उसकी सहेली को अब भी समझ नहीं पा रहा हूँ।
“ये माला ..?” मैं सोफी के गले में पड़ी रुद्राक्ष की माला को उंगलियों के पोरों से छू कर पूछ रहा हूँ। पहली बार मेरी उंगलियां कुछ दूरी तक जाकर रुक गई हैं। इस प्रयास में जो हिम्मत मुझे जुटानी पड़ी है – मुझे रीता कर गई है!
“हरिद्वार से एक बाबा ने दी थी।”
“ओके! हरिद्वार माने कोई एक कहीं से भी ..?”
“नहीं नहीं! मैंने ये वृंदावन से यूं ही शौक के लिए पहन कर खरीद ली थी। अच्छी लगी थी सो ..” सोफी खुश है।
“मन पवित्र और धुला धुला नहीं लगता?” मैंने कुरेदा है सोफी को।
“मुझे तो वैसा कुछ नहीं लगता। पर ..”
“पर .. क्या?”
“देखने वाले खूब हंसते हैं!” कहकर सोफी भी हंसी है।
“तुम बहुत प्यारी लग रही हो!”
“सच ..?”
“एक दम – देवकन्या .. साध्वी .. अमृत से उगी कोई अमर ज्योति या कोई उत्तरी ध्रुव का बर्फीला विस्तार और ..”
“अब बस भी करो न!” एक मोहक आग्रह किया है उसने।
“कहने दो न! शायद कहीं इसी भाषा में तुम्हारे मन की भाषा मिल जाए!”
“मुझे तो सपाट भाषा ज्यादा अच्छी लगती है।”
“वो भी बोलूंगा .. तुम्हारे ..”
“लेकिन कब?” सोफी ने इस तरह पूछा है जिस तरह विलंब का कारण मैं हूँ और ये प्रणय में व्याप्त खिंचाव मेरे कारण ही हो।
“साथ आने दो तब ..” मैं शब्दों को बड़ी ही सहजता से कह पा रहा हूँ क्यों कि अंधेरे का आवरण मदद कर रहा है और शाम का समा रोमांस पैदा कर रहा है।
“आ जाओ!” कहकर सोफी आगे बढ़ना चाहती थी कि मैंने उसे रोका है।
“मेरा सामान ..?”
“मेरा जो है!”
“फिर भी ..?”
“तो ले आओ!”
“अकेला? डर लगता है!”
“झूठ!”
“सच! इस झूठ में ही सच है और सच में ही मैं हूँ। तुम खड़ी हो .. तो ..”
“चलो चलते हैं!” कह कर वह चल पड़ी है।
“क्यों न साथ साथ चलें!” कहकर मैंने उसका हाथ पकड़ना चाहा है पर मैं ऐसा कर नहीं पाया हूँ।
हम साथ साथ चले हैं। कुल तीन सौ गज तक चलना है। लेकिन मैं चाहता हूँ कि ये विस्तार तीन योजन तक फैल जाए और हम दोनों चलते ही चले जाएं!
“पैक मुझे दे दो!” मैंने तनिक ठिठक कर कहा है।
“क्यों?”
“थक गई हो लाओ!” कह कर मैंने उससे बैग लिया है। तनिक शरीर का स्पर्श जो कर पाया हूँ तो झुलस सा गया हूँ!
खेमे तक चलते चलते हम कोई खास बात नहीं कर पाए हैं। मैं अपनी ही कायरता पर खीज रहा हूँ। आज सोफी समर्पण कर चुकी है और मैं हूँ कि गधापन का सबूत दिए जा रहा हूँ। निर्णय ही नहीं कर पा रहा हूँ कि सोफी क्या है, ये गैरिक अल्फी में लिपटी सोफी मुझे जितना लुभा रही है उतना ही डरा गई है। गले में पड़ी रुद्राक्ष की माला जैसे कोई भयानक विस्फोट होने वाली चीज हो और दवाब पड़ते ही फूट जाने को तैयार हो।
खेमे के अंदर जलते बल्ब की रोशनी में मैं सोफी को पूरी तरह देख पा रहा हूँ। मैंने बैग रख कर अपने आप को ऊपर खींचा है और सोफी के बर्फीले विस्तारों से जा जूझा हूँ!
“ओ सोफी …!”
“ओ दलीप!” कहकर सोफी मेरे पास खिसक आई है।
सारी हिम्मत बटोर कर मैंने उसे आगोश में कस लिया है। सोफी के दवाब डालते हाथ मुझे साधे हैं। एक स्वस्थ और मर्मस्पर्शी बोध जैसा विचार मेरे मन में भरता रहा है। ये आगोश, आलिंगन और कसाव एक मित्रवत लगा रहा है। लग रहा है – मैं आज कुछ पा गया हूँ।
मेजर कृपाल वर्मा