“एक बार और …?” मैंने मांग की है। सोफी ने अपने गुलाबी अधर प्रेषित कर मौन धारण कर लिया है।
बात करने से प्यार कर पवित्र प्रवाह रुक जाता है और भावनाएं दूषित हो जाती हैं – यही सोच कर मैं भी नहीं बोला हूँ।
सफेद और सुगंधित सोफी का बदन, नरम और गरम, चाहता और चाह पूरी करता – लेता और देता मेरे कठोर ढांचे से सटा ही रहा है – जैसे रबड़ लोहे से चिपक गई हो। मैंने हाथों को अल्फी के अंदर धंसा दिया है ताकि उंगलियां बेरोक टोक सोफी के अंगों में गड़ती रहें। उसके उभरे वक्षों को मैंने खूब रौंदा है और ..
“प्लीज ..!” सोफी ने मुझे रोका है क्योंकि मैंने उसे बिछे गद्दे पर डाल लिया है। मैं ऊपर सवार हूँ। मैं चुप हूँ।
“नॉट नाओ! मुझे वासना नहीं अमर प्यार चाहिए दलीप!”
सोफी ने सपाट भाषा में एक पहाड़ जितनी मांग मेरे सामने रख दी है। अमर प्यार चाहिए उसे और मुझे ..? किसके लिए भटका हूँ अब तक? वासना के पीछे तो मैं कहां तक नहीं हो आया हूँ। तो क्या वासना घातक है?
“प्यार वासना का ही आभिजात्य है!” मैंने कसाव को ढीला नहीं किया है।
“नहीं दलीप! प्यार का दूसरा नाम है त्याग और वैराग्य!”
“वैराग्य का मतलब जानती हो?”
“हां! मोह से कट जाना और दूसरों के शुभ के लिए निस्वार्थ चेतना!”
“और फिर प्यार वैराग्य से कहां जुड़ता है?”
“निस्वार्थ चेतना से ही प्यार उपज कर अमर होता है। वासना, लालच, चाह और दीन भावों का आविर्भाव प्यार की स्थितियां काट जाता है!”
“निस्वार्थ चाह कैसे पैदा हो सकती है?”
“हो सकती है! अभी भी हो रही है!”
“वो कैसे?”
“तुम मुझे चाह रहे हो – इसमें हम दोनों की चाह मिली है, स्वार्थ नहीं!”
“कब तक चाहोगी?”
“मैं – अगर स्वार्थों से कटी रही तो ..”
“भगवान करे – तुम ..” मैंने दुआ मांगी है।
वासना का ज्वार उतर गया है। एक सुखद अनुभूति और प्यार का हलका नशा पूरे वदन में व्याप्त है। सोफी के उच्च आदर्श मुझे अचंभित कर गए हैं। वैराग्य लेकर प्यार खोजने की बात हमारी ही पुरानी संस्कृति से मेल खा रही है तभी शायद उसने ये वेशभूषा बनाई है।
खेमे के प्रकाश में जब हम अलग होकर संभले हैं तो मुझे हंसी आ गई है। सोफी की अल्फी में हजारों सलवटें हंस हंस कर पूछ रही हैं – क्या कुछ हुआ था? अस्त व्यस्त बाल, अभी अभी दिए चुम्बनों से आहत हुए अधर, मसोसा बदन और बागी हुआ मन जो कुछ कर गुजरे हैं अब गुजर कर भी गुजरे नहीं हैं। जिसके लिए तड़प भरी थी अब भी भरी है। कंजूसी से जो हमने पल जिए हैं लगा है वो पर्याप्त नहीं थे।
“मैं अब जाऊं?” सोफी ने इस तरह पूछा है जिस तरह ठगने के बाद कोई ठग से पुछे।
“दोनों ही चलते हैं!” मैंने सोफी को पास खींच लिया है।
“मैं को अब भूल जाओ। अब से हम को अपना लो!”
जंगल में जा कर हम अब उसी का एक अंग बन गए हैं। सोफी ने बड़े ही चातुर्य से सब सुलभ कर दिया है। आग चलाई है। खाना पकाया है। बिस्तर बनाए हैं और अब कई अन्य काम धाम पीटती रही है। मैं भी उसका हाथ बंटाता रहा हूँ और दाएं बाएं देखने से डरता रहा हूँ!
“देखो दलीप मैं जानती हूँ कि तुम कायर हो पर ..”
“मतलब?”
“मतलब ये डियर कि तुम खुले में रहने के आदि नहीं हो। शहर के डरे सहमे वातावरण में पल कर हम सभी एक झिझक से भर जाते हैं!”
सोफी की बात मैं समझ गया हूँ। खुले में नहाना, खाना खाना, शराब पीना और .. प्रणय लीला भी अश्लील लगने लगता है और किसकिसाने लगता है क्यों कि हम परदों के पीछे जीने के अभ्यस्त हो जाते हैं। हमारे जीवन नल के पानी, बिजली के तारों, म्यूनिसिपैलिटी के सफाई कर्मचारी और मलबे से लदे ट्रकों के बिना गंद-मंद लगने लगते हैं। हमारा जीवन असह्य दूभर हो जाता है। एक कृत्रिम जीवन जीकर जो असलियत का मजा हम खो देते हैं – ये अज्ञानता है सभ्यता नहीं। और वो जुलूस और वो मांगें और आरोप प्रत्यारोप तथा मरे टूटे वक्तव्य क्या कोई विकट स्थिति को सुगम कर पाते हैं? जो जीवन आश्रित बन जाए और झेंप में परदों के पीछे जा छुपे वो संगीन स्थितियां कैसे सह सकता है!
“अब से तुम्हारे साथ जीऊंगा और सशक्त बनूंगा!” मैंने दबे स्वर में कहा है।
“वैल डन! इसी बात पर जाकर नदी से पानी ले आओ!” सोफी ने मुझे हुक्म दिया है।
इस तरह का हुक्म पहली बार मुझ पर लद कर सवार हो गया है और इसे मैं पहली बार ही स्वीकार कर रहा हूँ। आज तक एक गिलास पानी कभी मैंने किसी को ला कर दिया हो – मुझे याद नहीं। नौकरों का झुरमुट मेरी एक मांग पर भागता रहता था और इंतजार में खड़े वेटर अनगिनत बार सूखते रहते थे। और आज मैं ..
“ओ बे .. बेबी!” कह कर मैंने अपनी और सोफी की खाली पानी की झालरें उठाई हैं।
“नहा के भी आना!” सोफी ने कहा है।
“न! मैं नहाऊंगा नहीं!”
“क्यों ..?”
“साथ साथ .. यानी कि मुझे सिखाना होगा ..” मैंने बच्चे की तरह मचल कर कहा है।
“बुद्धू ..!” सोफी कह कर लजा गई है।
नदी में झुक कर झालर भरने में बुड़ बुड़ बुड़ बुड़ के स्वर कई बार मैंने झालर खाली कर के सुने हैं। पार से अंदर छलांगें मारते मेढक, मछलियों की पानी में फुदकन और किनारों से लड़ती हिलोरें मुझे बहुत भा गई हैं।
“पेट भर गया है और अब पेट भर कर तमाशा देखेंगे। चलो!” सोफी ने मुझे घसीटा है जबकि मैं सोना चाह रहा हूँ।
पहली बार लगा है कि एक घुटन और चढ़ा मुलम्मा मेरे ऊपर से उतर गया है। मैं अब प्रकृति पुत्र बन गया हूँ, नदी पहाड़ों का हो गया हूँ, समाज के गरीबों में मिल गया हूँ और अब उन्हीं का जीवन जी कर उन्हें सही तौर पर जान पाऊंगा कि सभ्यता और असभ्यता क्या है? बढ़िया कपड़े पहन लेना, पार्टी और सिनेमा घरों में घुसे रहना, शहर की चिल्लपों झेलते रहना ही अगर सभ्यता है तो आज मैं इससे सहमत नहीं हूँ!
मेजर कृपाल वर्मा