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स्नेह यात्रा भाग चार खंड पांच

sneh yatra

श्याम ने हाथ मिलाया है। फिर एक चुप्पी छा गई है। कुछ हिम्मत कर के उसने कहा है।

“बे! तुम से वो मिलना चाहती है!”

“शादी की बात पक्की करनी है क्या?” मैंने मजाक किया है।

“खैर! वो भी तू ही करेगा। लेकिन वो ..”

“और पैसा चाहिए? दे दे। उधार खाते अपने नाम लिख लेना। और बोल?” मैं खुश हूँ और अपनी खुशी का इजहार दौलत बांट कर, सहृदयता लुटा कर और रूखे सूखे संबंधों को भावना की आद्र भाव से सींच कर स्वस्थ बना लेना चाहता हूँ। बनाने और बिगाड़ने के अंतर मैं जानता हूँ।

“तुझसे मिलना चाहती है!” श्याम ने कहा है।

“ठीक है! इजाजत है – कहीं भी, कभी भी और बोल? यू नो!” मैंने बड़े ही स्टाइल में कहा है।

श्याम चला गया है। पल भर सोच कर मैं अपने काम पर लग गया हूँ। काम के पल मुझे अब तपस्या जैसे लगते हैं। एक अजीब आनंद आता है। अब पल भर मुक्तिबोध की योजना को उलट पलट कर परखता रहा हूँ। किस तरह उसने समस्या को जड़ से पकड़ा है। अगर वास्तव में उस ओर कदम बढ़ाया जाए तो ..

ऑफिस की खिड़की से बाहर जाती नजर सपाट सी धरती पर छपे छोटे छोटे नालों पर ठहर कर उनकी गहराई नापती रही है। नदी से उनकी तुलना करती रही है और चारों ओर उगे कीकर के पेड़ आम के पेड़ क्यों नहीं हो सकते या आम और कीकर में क्या भेद है – अन्य सवालों के जवाब आते जाते रहे हैं। बरसात होने से अब खाकी रंग हरितिमा में बदल गया है और जहां तहां पानी से भरे पोखर नितर कर पारदर्शी और स्वच्छ बन गए हैं – जैसे मन का मैल धो कर ये धरती के वक्ष से फूटते उजास को उजागर करेंगे और उस खाकी रंग की पुनरावृत्ति को रोक देंगे। पवन के शीतल झोंके कई बार अगल बगल से आ कर मुझे गुदगुदी सी कर गए हैं, बाहर घूमने का निमंत्रण दे गए हैं और उसमें भरी अपार प्राण शक्ति का बोध जैसे लिख कर मेज पर रख गए हों! मैंने शाम को बाहर घूमने का निमंत्रण स्वीकार लिया है। मैं यहां आ कर प्रकृति का एक बालक लगने लगा हूँ जो इसी में भटक गया हूँ और यहीं आकर बस जाना चाहता हूँ। शहर की घुटन से कितना बचा हूँ, कितना भागा हूँ और अब कितना पलट गया हूँ – अभी बताना संभव नहीं है।

मैंने गम बूटों के अंदर पेंट के छोर ठूंस लिए हैं। सर पर एक तुड़ा मुड़ा सा फैल्ट पहना है। कमीज के अधखुले कॉलर ऊपर उठा कर गर्दन से चिपका लिया है। जेब में चार छह चॉकलेट भर लिए हैं और हाथ में एक निहायत खूबसूरत छड़ी पकड़ी है। शीशे के सामने खड़ा मैं – मैं नहीं लग रहा हूँ। अपने आप को निहार कर एक बेसाख्ता हंसी धर फूटी है – हाहाहा होहो हो खिल्ल खिल्ल हूँ हूँ – मैं खूब हंसा हूँ।

जब जंगल की ओर ऊबट चल पड़ा हूँ तो दो चार झाड़ियों ने संदेह से घूरा है। मेरे निकास और अज्ञात यात्रा पर असमंजस सा सभी के मनों में भर गया है। पर मैंने किसी की ओर ताका नहीं है और यों ही कनखियों से उनकी प्रतिक्रिया पढ़ता आगे बढ़ गया हूँ।

आसमान – मेघाच्छादित अच्छा लग रहा है। ये आषाढ़ के आवारा बादल ही शायद काली दास को भरमा कर कवि बना गए थे। धरती के ऊपर फिच्च फिच्च करते पैर गम बूटों के समूचे निशान छोड़ रहे हैं। और घास के हरे हरे फूटते तिनके दब कर फिर से उठ जाते हैं – जैसे पीछे से होती असफलता की सजा मुझे देंगे। मैं प्रकृति का ये मोहक रूप आंखों में भर लेना चाहता हूँ। इस सब को समेट कर कहीं संचित कर लेना चाहता हूँ ताकि जीवन की संतप्त दोपहरी में इसकी अनुभूति मात्र सहारा बनी रहे!

पता नहीं क्यों मैं उछांट मार कर पानी के एक छोटे पोखर में कूद पड़ा हूँ। फटाक-फिच्च का शब्द गूंजा है और कीचड़ से सना पानी मुझे अजीब ढंग से छिड़क गया है। पूरे बदन पर खाकी तूलिका में भरा रंग, धब्बों धब्बों सा शीतल और वो रोमहर्षक पानी का स्पर्श और उमंग की कुलांच सी लगी है मुझे। खड़ा खड़ा मैं अपने किए कर्तब को देखता रहा हूँ। कीचड़ में धंसे पैरों को बाहर खींचा है और अब छोटे से पोखर के गंदले लिबास को देख रहा हूँ। ये तो गंदला नहीं था – ये अधमता तो मैंने ही की थी। इसी तरह कभी कभी अकारण ही किसी अन्य की गरज में किसी और का अधोपतन होता है! प्रकृति में ये सब मूक भाव कहने की शक्ति का आभास मुझे हुआ है। खुश खुश मैं आगे बढ़ गया हूँ।

क्षितिज के छोर भी नापूं तो पार न पाऊं! थके टूटे सूरज का सहारा बना तो – मैं डूबा! आने वाले अंधेरे से भागा तो पता नहीं कहां ठोकर खाकर गिरूं? चारों ओर लालिमा का उमड़ता सागर पोखरों जल में भी लाल लाल सा कुछ भर गया है। पेट भर कर पंछी अपने घोंसलों की ओर चले जा रहे हैं – कतारों में, अजीब से संगठन में बंधे किसी लंबे सफर को तय करने के लिए कटिबद्ध हैं। मैं गीली जमीन पर बैठ गया हूँ। पैंट की देह से रिस कर पानी का शीतल स्पर्श मेरे नितंबों को चाट चाट कर मन के विशाद को हर रहा है और मैं ठंडा होता जा रहा हूँ! हल्का होता जा रहा हूँ और जो अकेलापन कभी राक्षसी आकृति ले कर डरा गया था अब दैवीय स्वरूप की मूर्ति बन कर मेरे साथ रहना चाहता है। प्यासा मन इस सुधा समुद्र में डूब डूब कर नहा रहा है। अंधेरा घनी भूत हो कर भूत बनता जा रहा है। मैं अब वापस लौटने को हुआ हूँ। मैं वीरों की लयबद्ध आवाजें सुन रहा हूँ। उनकी खोज पर बजता बीन बाजा सुन रहा हूँ। मेरे पैर एक अज्ञात चाव से उठ रहे हैं। नाक की सीध में मैं अपने ऑफिस की जलती विद्युत ज्योति देख पा रहा हूँ। अग्रसर होना कितना आसान लग रहा है लेकिन अगर मैं अपना रुख बदली कर दूं तो शायद ..

मेजर कृपाल वर्मा

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