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स्नेह यात्रा भाग चार खंड नौ

sneh yatra

“आप से कुछ लोग मिलना चाहते हैं साब!” ऑफिस के बाहर खड़े पहरुआ ने आ कर मुझे सूचना दी है।

कुछ लोग? कौन लोग? समय तो कीमती है। फालतू में खप जाएगा और परिणाम होगा – चंदा वसूली या किसी भगवान के नाम पर किसी कुंठित व्यक्ति या संस्था के नाम पर या फिर किसी पार्टी के पक्ष में – चंदा! मुझे ये सब घृणास्पद लगने लगा है। फैलते हाथों, चापलूस जबानों और घिघियाते मर्दों पर मैं रहम खाने को तैयार नहीं हूँ। फिर भी अपने मन की घुटन को अंदर ही अंदर कैद कर मैं गंभीर स्वर में कहता हूँ – आने दो!

“धड़ाम – गुड मॉर्निंग सर ..” खुला दरवाजा पछाड़ें खाता ही रहा था कि ..

“धड़ाम – गुड मार्निंग सर ..” दूसरा अंदर। “घड़ाम – तीसरा उसी के पीछे चौथा और देखते देखते ऑफिस खचाखच भर गया है।

मैं सब के आकार देखने में असमर्थ हुआ हूँ तो खड़ा हो गया हूँ। कुर्सियां अंदर कुल तीन हैं और आदमी ..

“अरे! दो तीन बेंच अंदर लाओ!” मैंने तनिक चौंक कर हुक्म कह सुनाया है। सभी आगंतुक खुसुर पुसुर बातें करने और एक दूसरे को कुनिहाने में लगे हैं।

बेंचें अंदर आई हैं। सभी ने लपक कर हाथ बढ़ाया है। स्वयं बेंचें सलीके से लगा कर बिफर कर बैठते इन अधेड़ युवक युवतियों को मैं रोचक ढंग से देखता रहा हूँ। सब बैठ गए हैं तो ही मैं बैठा हूँ!

क्योंकि अब मैं एक समग्र सा दृश्य आंखों में भरे हूँ और इसकी गरिमा तथा महत्व जानने का यत्न जुटा रहा हूँ।

लंबे बाल सब के हैं पर स्टाइल किसी का मेल नहीं खा रहा है। किसी के बीच से मांग कटी है तो किसी ने यों ही सुस्ती में बालों को पीछे पछांट लिया है। किसी ने आधे माथे को ढांपा हुआ है तो किसी ने बालों को कंधों पर झुला लिया है। बालों से युवा और युवती का अंदाज बिलकुल गलत लगने की संभावना सच है। बालों और वेशभूषा से भी परखा नहीं जा सकता क्योंकि सब ने चहचहे रंग और फीके सोबर प्रिंट रगड़ रगड़ कर मिटा दिए हैं। हां! कुछ युवतियों के वक्ष का उभार जरूर कुछ कह जाता है। इस लिबास में भी ये उभार घूंसा सा धर जाते हैं। कोई कुर्ते में धंसा है तो कोई कमीज में। और किसी ने तो कुछ अनाम से वस्त्र पहने हैं जिनका नाम शायद बनाने वाले दर्जी को भी पता न होगा। नाना प्रकार के थैले – बोरी के बने, कपड़े के बने, ऊन के बने और बेहद मैले कुचेले उनके कंधों से झूल रहे हैं। पैंटों के नमूने भी नगण्य हैं। और चप्पलों तथा जूतों की लगी पैंठ मुझे अंतरराष्ट्रीय लग रही है। कुछ तो नंगे पैर भी हैं – जो मैं सहज में मानने को तैयार नहीं हुआ हूँ। मैं अपनी भूखी प्यासी नजरों से इस अद्भुत स्थिति को नापता रहा हूँ। मुझे अब घृणा की जगह कौतूहल साधे है और एक जिज्ञासा जबान पर किसी मीठी चीज के स्वाद याद करा रही है। दिमाग को तो जैसे पौष्टिक भोजन मिल रहा है और मन के नए आयामों में एक अनाम सा आनंद अज्ञात द्वार से रिसता चला आ रहा है।

मैं खुश हूँ!

ऑफिस एक असाध्य दुर्गंध से भरता चला जा रहा है। मैं नजरें फाड़ फाड़ कर इन मैले कुचेले बदनों पर पाउडर का लेप खोज रहा हूँ और अब तक असफल रहा हूँ। ये लोग पता नहीं कितने दिनों से नहीं नहाए हैं। मैंने पहरुओं को बुला कर पंखा तेज कराया है। मैं अब भी एक जिज्ञासा के वशीभूत इस असहज क्षण को सहने के लिए तैयार हूँ।

“मिस्टर दलीप! हम लोग सैलानी हैं!” एक युवती ने खड़े होकर फैली निस्तब्धता को काटा है।

मैं किसी स्वप्न के छोरों को थामे एक वास्तविकता खोज रहा हूँ। उस युवती की वेशभूषा बिलकुल काल्पनिक लग रही है और मैं उसे गौर से घूरे जा रहा हूँ। राजस्थानी अंगोछा में उसने अपने वक्षों को कसा हुआ है और बाकी देह नंगी है। अंगोछा में पुरातन – जो ज्यादा पुरातन भी नहीं है, किस्म के शीशे टंके हैं। चहचहे रंग के धागे से हाथी घोड़ों की आकृतियां बनी हैं। इतना मोहक वेश मैंने पहले कभी नहीं देखा। बालों को एक लाल चौड़े कपड़े के पट्टे में आगे से खोलकर पीछे बांध लिया है। कमर के ऊपर एक नीचे खिसकता झल्लरदार गरारा जैसा है जिसपर बनावटी मोतियों की माला खोंसे वो मोहक बन गई है। नाक में एक बारीक तार की नथनी है – नकली या असली मैं परख नहीं पा रहा हूँ। अब मैं उस नथनी पर टिका रहा हूँ। एक बहुत ही मोहक स्वर गूंजता रहा है – नथनिया ने हाय राम बड़ा दुख दीना!

“मैं आप लोगों के लिए क्या कर सकता हूँ?” मैंने सपाट से ढंग में मन का कौतूहल दबा कर पूछा है।

उन सभी के मन हल्के हास-परिहास में निमग्न से लग रहे हैं। सभी एक खास किस्म की चिड़िया परिवार की जिंस जैसे लग रहे हैं। एक दम आजाद, निफराम और दुख चिंताओं से बेखबर से ये अधेड़ उम्र के लोग न जाने क्या जी रहे हैं? ये विरक्त तो नहीं हैं? ये भी कोई उम्र है? क्या इन्हें अपने कैरियर नहीं बनाने? ऊंचाइयां पा लेने की गरज से चर्चाएं नहीं करनी? और कुछ नहीं तो ..

“हमें तुम्हारा सहयोग चाहिए दलीप!” उसी लड़की ने बेबाक ढंग से कह दिया है। याचक भाव का लेशमात्र भी भान नहीं हुआ है मुझे। शायद ये मांगने का मॉडर्न तरीका हो – मैं सोचता रहा हूँ।

“मुझे पहले आप लोगों का पूर्ण परिचय चाहिए।” मैंने हंसते हुए मांग की है और एक बार फिर उस अंगिया और नथनिया को निहार गया हूँ।

एक उल्लसित सा भाव मेरे मन के वीरानों से उठ कर खड़ा हो गया है। जो स्थिति पैदा हुई है मैं उसे भुगत लेना चाहता हूँ, जी लेना चाहता हूँ और जान लेना चाहता हूँ कि युवाओं का आधुनिक झुकाव किधर पलट रहा है!

“मैं हूँ – हीरो उर्फ शाहजादा!” उसने मुझसे हाथ मिलाया है।

“मैं हूँ – जे एच पंजाबी!”

“मैं हूँ – जलपरी मुकीम!”

“मैं हूँ – रूपसी लिप्सा!”

“मैं हूँ – एवरैस्ट सोनी!” नथनिया ने कह कर मुझे अंदर तक भिगो दिया है। मैं उस अंगिया के अंदर तक झाांक आया हूँ।

आहत हो कर मैं कुर्सी पर बैठ गया हूँ!

मेजर कृपाल वर्मा

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