Site icon Praneta Publications Pvt. Ltd.

स्नेह यात्रा भाग चार खंड दस

sneh yatra

नामों को अगर मैं उलट पलट कर याद करूं, मनन करूं तब भी शायद कोई संबंध या अर्थ न जोड़ पाऊंगा। एक दम अटपटे नाम, अटपटे वस्त्र और सपाट सा व्यवहार कोई अर्थ संप्रेषित नहीं करता। हां! एक निश्छल आत्मीयता जरूर टपक रही है जो इंसान को इंसान समझने का इशारा बड़े ही मोहक ढंग से कर रही है। ये समाज और इनकी ये बनावट मुझे चतुरंग और बहुमुखी लगने लगी है। एक अजीब सा लगाव और प्यार फलीभूत हो रहा है। लगा है एक एक करके मैंने अपने कपड़े उतार फेंके हैं। बनावटीपन को इस तिमंजिले के नीचे फेंक दिया है ताकि उसकी हड्डियां टूट जाएं। फिर कभी धोती पहन रहा हूँ तो कभी अंगरखी, कभी नंगे पैरों बगीचे की सैर की है तो कभी उनके थैलों से उठती असह्य गंध को झेला है।

“आप लोग क्या पीएंगे?” मैंने एक अतिथि सत्कार की रस्म अदा की है।

“मैं तो कोक लूंगी!”

“मैं लिम्का!”

“मेरे लिए कॉफी!”

“मेरे लिए चाय!”

“पानी, सिर्फ पानी!”

“नहीं – नीबू पानी!”

कॉफी, नीबू पानी और कोक की डिमांड ने कोहराम मचा दिया है। मांगों के प्रेत कई इकाइयों में विभक्त हो इस कर विकृत हुए हैं कि मुझे सब कुछ असह्य लगने लगा है।

मैं शायद अपनी गलती का एहसास करके पश्चाताप करने बैठना ही चाहता था कि सोफी ने मुझे साध लिया है। भगवान का शुक्र करो कि इन्होंने ऐवरेस्ट नहीं मांगा – उसने मुझे भाषण दिया है।

“दलीप! ये स्वतंत्र संगम है। हमारी मांगें पूरी करनी होंगी। एक के लिए दूसरा अपनी लत क्यों छोड़े?”

“हां हां मांगें पूरी करूंगा!” कहकर मैंने बटन दबाया है। पल भर के लिए फिर मैं इस बहुरंगी समाज की विरूपता को देखता रहा हूँ।

मुक्तिबोध दरवाजे पर आ कर ठिठक गया है। मैंने ही उसे अंदर आने को कहा है। उसने अंदर आ कर इस हनुमान जी की वानर सेना को देख लिया है। अब वो मेरी ओर मेरा हुक्म सुनने की गरज से देख रहा है।

“गैस्ट रूम में बता दो कि ..” अब मैंने उस पूरी जमात की ओर नजर घुमाई है।

“सर ..!” कह कर मुक्तिबोध सब कुछ भांप गया है।

“चाय, कॉफी, लिम्का, लेमन जूस और .. पानी सिर्फ पानी!”

“सर!” कहकर मुक्तिबोध चला जाना चाहता था कि मैंने जोड़ा है – टैल दी स्टाफ टु जोइन और मैं हंस पड़ा हूँ।

मुक्तिबोध ने मेरे किए परिहास को समझ लिया है। वह भी हंसता हुआ चला गया है। बहुत खुले दिल का है।

“अब दूसरी सोच बता दें जिसमें सोफी का ऐवरेस्ट भी शामिल हो!” मैंने जान कर सोफी के नाम का संबोधन जोड़ दिया है।

“हम लोग कैंप लगा रहे हैं। पैसा चाहिए!”

“मिल जाएगा!” मैंने बे रोक टोक कहा है।

“हिप हिप हुर्रे बुलंदियां बाबू की!”

एक अजीब सा शोर गुल, अजीब सा एक भोंड़ापन कबीलों जैसी स्थिति खड़ी हो गई है। गला फाड़ फाड़ कर इन सब ने कुछ न कुछ अनाप शनाप बका है! एक दूसरे को बांहों में भर कर मसोसा है, चूमा है और कोई कोई युवक किसी युवती को विवेक दर्शन कराता लगा है। मैंने भी एक खिंचाव एक आकर्षण महसूस किया है। एक अथाह आद्रता मुझे सर से पैर तक सराबोर कर गई है। लगा है – ये लोग सही मानों में जिंदगी को जी रहे हैं और मैं केवल खट रहा हूँ – किसके लिए मैं भी नहीं जानता!

“लेकिन कितना तो पूछ लो?” एक आवाज बुलंद हुई है।

मैं इस पैमाने को नकार देने की गरज से बोला हूँ – कैंप का सारा खर्चा मेरा!

“बुब्बू! बब्बा! हिप हिप हुर्रे!”

“दलीप दि ग्रेट – जिमबाबा!”

“कॉमरेड दलीप – जिंदाबाद जिंदाबाद!”

ये कोहराम कई पलों तक चलता रहा है। मैं खड़ा खड़ा इस अजीबोगरीब दृश्य को नापता रहा हूँ। इसका तारतम्य पिछली अनुभूतियों से कहीं भी मेल नहीं खा रहा है। पहले लालच और इस लालच में मैं एक भेद देख पा रहा हूँ। दोनों में एक तादात्म्य है भी और नहीं भी। मैं ग्रेट हो गया हूँ लेकिन पल भर पहले ही सैडिस्ट था। इसका मतलब आदमी हर पल बदलता रहता है – जीवन पर्यंत बदलता है और अनगिनत परिधियों में बंध कर अलग अलग नाम पा लेता है।

“लैट्स गो टू गैस्ट रूम!” मैंने उस शोर गुल के बीचों बीच जोरों से भौंका है ताकि तमाम सेना सेनापति की बात सुन ले!

“हे हे! हो हो!” एक शब्द है जिसका पीछा करते ये जवानी में चूर अपने इरादों में मदहोश लोग भाग चले हैं। कोई बनावटीपन कि कोई दिखावा ये नहीं करते। कोई किताबों में छपी शिष्टता या कोई कक्षा में सिखाया अनुशासन या कि कोई छोटे बड़े का भेद भाव इन्हें नहीं छूता। यहां ये सब आजाद हैं, सब समान हैं, समान अधिकार रखते हैं और आजाद हैं। एक अदद इकाई बन कर भी एक उद्देश्य की ओर अग्रसर हैं – ये मुझे कुछ अजीब और अचंभा जैसा लगा है।

गैस्ट रूम एक अजीब से वातावरण से भर गया है! सभी अपनी मन की मुरादों की तरह मिली वस्तुओं पर टूट पड़े हैं। सभ्यता या शिष्टता रंच मात्र भी दरवाजे से अंदर नहीं आ पाई है। अब स्टाफ भी इन सब के साथ घुल मिल गया है। यूं तो कइयों ने मुझे कठोर निगाहों से घूरा है लेकिन मैं एक एक से अलग अलग मिल कर उनकी शंकाओं का निवारण कर रहा हूँ!

मेजर कृपाल वर्मा

Exit mobile version