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स्नेह यात्रा भाग चार खंड छह

sneh yatra

एक थकान से चूर हुआ मैं अपने कमरे में दाखिल हुआ हूँ। मेरे कपड़ों और शरीर पर लगी कीचड़ की आकृतियां अब भी ज्यों की त्यों बनी हैं। मैं तनिक ठिठका हूँ। कोई सोफे पर सजा बैठा लगा है। जब मैंने जानना चाहा है तो लाइट का बटन दबा दिया है ताकि प्रकाश तेज हो जाए। वो परछाईं भी उठ खड़ी हुई है।

“हूँ हूँ हूँ हूँ! हाहाहा!” शीतल बेतहाशा हंसी है।

मुझे शीतल के यहां आने की उम्मीद नहीं थी। मुझे लगा है मेरी तपस्या भंग करने मेनका इंद्र के इशारे पर प्रकट हो गई है। मैंने उसकी हंसी पर ध्यान न देकर पूछा है – आने का कारण?

“अकारण नहीं आई हूँ। और हां – पूछ कर आई हूँ!” उसने मेरी ओर बढ़ते हुए कहा है। “ये क्या हुलिया है जनाब का?” उसने मेरी फिर खिल्ली उड़ाई है।

मैं तो भूल ही गया था कि मेरे ऊपर एक अजीबोगरीब मिट्टी की पेंटिंग बिजली के प्रकाश में मार्मिक लगने लगी है।

“सच! शीशे में देखो। टार्जन लग रहे हो!” शीतल ने मुझे बांह पकड़ कर बेडरूम की ओर घसीटा है।

मैं समझ गया हूँ कि शीतल ने सब कुछ देख समझ लिया है। उसने अपना ध्येय भी कई बार दोहरा लिया है और अब ..

“मजाक छोड़ो शीतल! क्यों आई हो?” मैंने तनिक तुनक कर पूछा है। अपने अविस्मरणीय आनंद का लेखा जोखा अगर मैं शीतल को देने भी लगूं तो वह कुछ समझ न पाएगी और शायद मुझे ओल्ड मैन का खिताब दे दे।

“नाराज हो?”

“नहीं तो! पर तुम यहां ..?”

“यहां क्या है?”

“अकेलापन ..”

“मुझे तो अच्छा लगता है और तुम्हें भी ..” शीतल मेरे करीब आ गई है। उसके होंठ अजीब से रस में सने लगे हैं मुझे। एक पद दलित भाव सबल हो उठा है। एक भूली बिसरी बात याद हो आई है।

“माइंड – इफ आई चेंज?” मैंने अनुमति मांग कर शिव होने का प्रयत्न किया है।

“यू आर लुकिंग वंडफुल डार्लिंग!” शीतल ने प्रशंसा की है।

मैं बिना बात आगे बढ़ाए बाथ रूम चला गया हूँ।

मेरी लंबी असामयिक चुप्पी से शीतल जूझ नहीं पा रही है। मैं डरा सा बाथरूम से बाहर नहीं आना चाहता हूँ। बाथरूम में भी शीतल के लालायित होंठ, गोरा सुडौल बदन और गोल नितंबों की पैनी नौकें मुझे सेंध रही हैं। मेरी तपस्या भंग होती लग रही है।

“खट खट! छप्प छपाक! खोलो?” शीतल बाथरूम का दरवाजा पीट कर शोर मचा रही है। मैं थर्रा गया हूँ।

“क्या है?” मैंने कड़क कर पूछा है।

“यहां धूनि क्यों रमा ली है?”

“अभी आया!” कहकर मैं फिर सहमा सा शीशे में अपने सुगठित शरीर के उतार चढ़ावों से शीतल के नंगे शरीर का मिलाप करता रहा हूँ।

मैंने खूब पानी उलीचा है पर मेरा शरीर मुझे तपता अंगारा लगता रहा है। वासना इस कदर टपकती रही है जिस तरह वॉश बेसिन का रिसता नल बहता पानी नहीं रोक पाता है। मैं किसी अज्ञात बर्फ की सिल्लियों से भरे कमरे में जा लेटना चाहता हूँ पर ..

“अरे क्या हो गया दलीप?” शीतल फिर से चीखी है।

मन में आया है कि बाहर निकल कर शीतल को गले से पकड़ लूँ और सड़ाक सड़ाक दो चार झापड उसके गालों पर रसीद करके कहूँ – गैट आउट, यू बिच! और फिर अपने आप को उसी घनी भूत अंधेरे में ले चलूं जहां शीतल का मोहक रूप काला पड़ जाए, धुल कर कीचड़ में मिल जाए और मैं गमबूट पहन कर उसपर खूब कूदूं – फच्च फच्च! यही शब्द मेरे हाथ पानी उलीच उलीच कर पैदा करने लग रहे हैं पर सामंजस्य नहीं जुड़ा पा रहे हैं!

मैं कपड़े पहन कर बाहर आया हूँ। शीतल ने एक मोहक कटाक्ष मारा है। लगा है मेरा गाउन अनभोर में ही खिसक गया हो। मैं लपक कर आगे बढ़ा हूँ। जल्दी जल्दी बदन पर पाउडर छिड़का है, थोड़ा सा सेंट किसी अज्ञात इरादे से कमीज पर पोंछा है और बालों को अपने जाने माने स्टाइल में पछाड़ पछाड़ कर कंघी से संवारा है।

“हैल्लो ..!” मैं एक अजीब से स्वर में कह गया हूँ।

“कितनी देर लगा दी ..?” शिकायत है शीतल की।

“लैट्स हैव ए ड्रिंक?” मैंने पूछने के बजाए उसे सुझाया है।

एक बदला बदला दलीप मुझमें प्रवेश कर गया है। जो डरा हुआ था वह तो बाथरूम में जा छुपा है और जो सबल है अब सामने आ कर शीतल से जूझने को तैयार है!

“चलो! पीते हैं। सच में क्या एकांत है? यहां आकर तो लगता है जैसे रूह भरमा गई हो!” शीतल ने मेरे समीप खिसक कर कहा है।

“लगता तो है!” मैंने एक निश्वास छोड़ी है।

मैंने दो गिलासों में विस्की उड़ेली है। शीतल की लालची आंखें गिलासों में जा धसी हैं। फ्रिज से बर्फ निकाल कर मैंने क्यूब्स तैराए हैं और गिलास अब उफनती जवानी से मेल खा रहे हैं!

“चियर्स! गॉड ब्लेस ..” मैंने कहते कहते जबान रोक ली है।

“विद ऐ .. डार्लिंग – लाइक यू!” शीतल ने कूद कर गिलासों को टकरा दिया है। एक अजीब सी आवाज के साथ मुझमें कुछ चटक सा गया है।

मैंने रोशनी को मद्धिम कर दिया है। हम दोनों बार पर ही आ बैठे हैं। शीतल की उंगलियों का स्पर्श कई बार किया है और शीतल ने सब कुछ जान कर भी हाथ नहीं खींचा है।

मैं इरादों से अज्ञात हूँ!

मंजर कृपाल वर्मा

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