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स्नेह यात्रा भाग चार खंड चार

sneh yatra

मुक्तिबोध ने हम सब को एक चुनौती सी दी है।

उसे अपने पैंतरे याद हैं। वह उन पर मनन और अभ्यास कर चुका है। मैंने भी मन ही मन मुक्तिबोध को स्वीकार कर लिया है।

“ओके! आप का मांगा हम ने दिया!” कह कर बोर्ड के सभी मेंबर हंस पड़े हैं।

हम सब के साथ मुक्तिबोध भी हंसा है। एक तनाव और मन मुटाव मुक्तिबोध समाप्त कर चुका है। उसने बोर्ड के मेंबरों को जीत सा लिया है। उसमें हिचक या सहम कहीं भी दिखाई नहीं दिया है। एक सपाट सा मन है उसका जिसपर लालच के छींटे तक नहीं पड़े हैं।

“मैं इस पूंजी का उपयोग इस तरह करूंगा – आज हमें तेल, कोयला और कच्चे ईंधन की समस्या सता रही है। इस समस्या ने हमारी मिलों की कमर तोड़ कर रख दी है। आए दिन पावर कट का शॉक मैनेजर और मालिक को लगता है तो सौ सौ बुरी गालियां मुंह से निकलती हैं। पर ये समस्या का विकल्प तो नहीं होता। बाहर बैठे निठाले को काटते मजदूर किसी मृत पशु के गिर्द घिरे गिद्धों जैसे लगने लगते हैं। एक निराशा और अनसरटेनिटी इनके मनों में व्याप्त हो जाती है ओर काम से मन हट जाता है!

इसके विकल्प में मैं सबसे पहले इस समस्या से लड़ूंगा। देश में देखना होगा कौन सा खनिज, कौन सी वस्तु या कौन सा ऐसा स्रोत है जो निरंतर बहता रहेगा। इसकी खोज, शोध कार्य, प्रयोग और प्रवर्धन सभी का जिम्मा हमें लेना होगा!

साथ में मुझे आमदनी का जरिया भी चाहिए ताकि मेरी पूंजी न घटे और किसी कंजूस लाला की तरह मैं जब तक इस पूंजी पर कुंडली मार कर बैठूंगा तब तक कोई खोज सफल न हो जाए!

गोबर गैस, स्प्रिंग लोडेड इंजन, बिजली का सस्ता और प्रचुर मात्रा में उत्पादन या अन्य कोई खोज जिसके लिए मैं वैज्ञानिकों को कोई भी छूट दूंगा – और एक बार सफल हुआ तो फिर मुझे पूंजी को फैलाते ओर बढ़ाते देर न लगेगी!”

“आप के आइडियों का विस्तार मिली पूंजी से कहीं ज्यादा लगता है, मिस्टर मुक्तिबोध?”

“जी ..! आप ठीक कह रहे हैं!” मुक्तिबोध का आरक्त हुआ चेहरा कई रंग बदल गया है। “दरअसल सर मैं चाहता हूँ कोई मुझे अबाध गति से आगे बढ़ने दे ओर मेरी पीठ ठोकता रहे! मैं कहूँगा नहीं ..”

“आप बहुत महत्वाकांक्षी हैं!”

“जी, वो तो हूँ और शायद रहूँगा भी। प्रत्यक्ष में न सही तो परोक्ष में सही – मेरी ये कामनाएं एक दिन कोई रूप जरूर लेंगी!”

“आप के इरादे तो अटल लगते हैं!” मैंने अब दूसरे कोण से मुक्तिबोध को कुरेदा है।

“जी हां! मैं जानता हूँ कि ये सब अभी विचाराधीन स्टेज पर है। इसके लिए और कितना लड़ना पड़ेगा – सोच कर ही कभी कभी थक जाता हूँ। लेकिन अगर मौका मिला तो मैं लड़ूंगा जरूर। अगर मैं एक कदम भी चल पाया तो इसमें बुरा क्या है?” बेबाक ढंग से कहा है मुक्तिबोध ने।

मुक्तिबोध को अपनी कमजोरियां बताते भी हिचक नहीं है। मुक्तिबोध ने अब पूर्णतया बोर्ड का मन जीत लिया है। मुझे मुक्तिबोध एक ऊपर से बंद फव्वारा लग रहा है जिसका ढक्कन खुलते ही वह सौ पचास फीट उछल कर गिरेगा। और इस गिरावट से ही मैं डरता हूँ। गिरती चीज का भरोसा क्या – किस करवट ऊंट बैठे!

मुक्तिबोध में एक अजीब सी निर्भीकता भरी है जो नई पीढ़ी के लोगों में जन्म लेकर अब बड़ी हो रही है। दब्बूपन, जी हुजूरी, अकर्मण्यता, गुलामी या सीमित विचार धारा आदि दोष जिनसे मैं चिढ़ता हूँ वो मुक्तिबोध में नहीं हैं। अब हम नए और पुराने का अंतर अपनी आंखों से देख सकते हैं। ये उन्नत बनने के लिए शुभ आशीर्वाद जैसा लगता है और मेरी उम्मीद की जड़ें पुख्ता कर जाता है। स्वतंत्रता के परिवेश में स्वतंत्र संतति का जन्म होना ही चाहिए। एक सत्य है जिसके लिए हम लड़े थे और आज भी लड़ रहे हैं!

बोर्ड ने एक राय होकर मुक्तिबोध को चुन लिया है। मैं अपनी खुशी के पारा वार नाप कर भी व्यक्त नहीं कर सकता। मैं इतना खुश इसलिए हूँ कि मेरे ही द्वारा निश्चित किए पैमाने पर मुक्तिबोध पूरा उतरा है और इसलिए भी कि मैं अकेला नहीं जो इस तरह की बातें सोचता हूँ। अन्य युवा पीढ़ी के अगुआ भी मेरे साथ होंगे। हमसफर मिल जाए तो किसी भी सफर का अज्ञात अंधेरा डरा नहीं पाता। जहां एक कंधे से दो हो जाएं तो बोझ का संतुलन अर्थ खो बैठता है।

“लो भाई! सर का ये बोझ भी उतरा!” मैंने सब कुछ छोड़ कर अपने आप को कुर्सी पर बेजान होकर लटकने दिया है जिससे एक तनाव रित गया है और अब एक हलकापन मुझे उछाले दे रहा है।

मैं खुश हूँ। ये खुशी क्षणिक है मैं जानता हूँ। खुशियां सभी क्षणिक होती हैं – घटती बढ़ती परछाइयों की तरह सिमिटती हैं और सूरज की तपन के बीच शीतलता की अनुभूति मात्र – लेकिन बड़ी ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। क्लांत हुआ मन पल भर के लिए खिल कर, खुल कर और मचल कर लीलाओं और क्रीडाओं में सराबोर हो दम पा लेता है। इरादे और जिज्ञासा उठ कर खड़े हो जाते हैं, आशा और बलवती हो जाती है और मोहक लगने लगती है। और .. और इन खुशियों तक पहुंचने की उत्तुंग उमंग हमें सींच कर रख देती है।

सबसे ज्यादा असफल होने का डर सिकुड़ कर छोटा हो जाता है और जो स्वाद ये खुशी एक बार जबान पर छोड़ जाती है – एक ललक सी पैदा कर देता है जिसके सहारे आदमी कभी नहीं हारता!

“पर मुझे ये आदमी अच्छा नहीं लगा!” श्याम ने मुंह बनाते हुए कहा है।

मैंने श्याम को घूरा है। एक चोर ग्रंथी को उसके मन में पैठ कर मैं दबोच आया हूँ। मेरा मन आया है कि उसको टुकड़ों में चीर फाड़ कर सच्चाई और ईमानदारी उसकी पॉकेट में डाल दूँ और उसका सारा खोट और बेईमानी शीतल को सोंप दूँ!

“क्यों ..? क्या हुआ?” मैंने अपनी आवाज को सपाट रखने का प्रयत्न करते हुए पूछा है।

“ये मुक्तिबोध .. एक नम्बर का ..”

“चोर है?” मैंने वाक्य पूरा किया है।

“वो … वो नहीं यार! पर ..” श्याम तनिक घिघिया गया है।

अचानक उसे अपनी नौकरी का मोह सताने लगा है। लेकिन मैंने पहले कभी ये सोचा तक न था।

श्याम ने मेरी आवाज में मिला रोष पकड़ कर बात बदल दी है। एक पिटी सी मुसकान लेकर वो बोला है।

“जानता है बे .. मैं ..”

“हूँ हूँ! बोल बोल!”

“शीतल से वसूली .. मेरा मतलब ..” वह रुका है।

“शाबाश बेटा! मुबारकबाद!” कहकर मैंने हाथ लंबा किया है।

मेजर कृपाल वर्मा

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