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स्नेह यात्रा भाग चार खंड बारह

sneh yatra

मैं ऐवरेस्ट की ओर मुड़ा ही था कि मुक्तिबोध ने इशारे से सचेत करके बताया है – ट्रंक कॉल!

मौत जैसी बजती घंटी पर मैं कितना खीज गया हूँ। जोर से फोन उठा कर मैंने कहा है – हैल्लो! अब भी मैं क्रुद्ध हूँ।

“दलीप ..!” एक सरस अजान आवाज किसी लड़की की है।

जरूर शीतल होगी। मैं जल भुन गया हूँ। शीतल मेरे गले से बंध गई है और मैं उसे किसी गिलगिली जोंक की तरह छुड़ा फेंकना चाहता हूँ।

“यस …! बोलो ..!” मैं और चीखा हूँ ताकि जल्दी उससे गला छुड़ा लूँ।

“सोचो कौन बोल रहा है?” वही रसीली आवाज।

“अरे भाई! समय नष्ट मत करो। मैं ..”

“बिजी हूँ। हाहाहा! होहोहो!” एक हंसी है जो शीतल की नहीं लगती।

“कौन बोल रही हैं आप?” मैंने शंका निवारण की है।

“गैस ..?”

“आई कांट!” मैंने खीज कर कहा है।

लगा है ऐवरेस्ट से बात करने को मैं तरस रहा हूँ। वो भी जरूर किसी रिसर्च के पीछे होगी। जरूर ही उसकी नथुनी का भी कोई राज होगा, अंगिया का भी कोई उद्देश्य होगा और ..

“सो .. फी!” आवाज ने हजारों मन बरफ में मुझे गाढ दिया है।

“क्या .. आ ..?”

“यस यस! दलीप! मैं सोफी बोल रही हूँ!”

सोफी ने सारी आत्मीयता तारों के पार से मेरे पास भेज दी है। मन – जो अंदर घुट सा गया था अब छलांग मार कर तारों के साथ जा लड़ा है। बीच का अनाम अंतर पता नहीं कैसे भर गया है। सोफी के बदन से उठती गंध मैं अनुभव कर रहा हूँ।

“सोफी …!” अवरुद्ध कंठ से मैंने नाम का जाप सा किया है।

सारे मन के विषाद, शिकायत, प्यार, रोष और पता नहीं क्या क्या सोफी को कह सुनाना चाहता हूँ पर समय और सोर्स की पाबंदी खा सी गई है। क्या यह कम्यूनिकेशन सिर्फ व्यापारियों के लिए है, प्रेमियों के लिए नहीं?

“यस दलीप!” कह कर सोफी ने कहा है और हम दोनों चुप हो गए हैं।

अब मैं क्या कहूँ? सन्नद्ध विचार शक्ति, शून्य सा हृदय और पागल प्रमादी मैं जैसे किसी नशे के वशीभूत हो गया हूँ। अपनी खुशी के पारावार मैं समेट नहीं पा रहा हूँ। अभी इसी पल मैं सोफी को पा लेना चाहता हूँ।

“कहां से बोल रही हो?” मैंने संभल क पूछ लिया है।

“नहीं बताती! क्यों ..?”

सोफी ने मुझे तरसाने की ही गरज से कहा है।

“मैं तुम्हें कब से ..”

“झूठ! क्यों झूठ बोलते हो दलीप?” सोफी ने मुझे डांट दिया है।

“कब आ रही हो?”

“क्या पता?”

“क्या कर रही हो?”

“क्या पता? हाहाहा! हूँहूँहूँ!” सोफी ने मुझे चिढ़ाया है।

मैं खीज गया हूँ। मेरे अपने संदेह प्रेताकृति बने कंधों से लटके लटके कह रहे हैं – तुम कैसे जानते हो कि उसे कोई जरूरत नहीं है? उसने प्यार से तुम्हें पुकारा है। वो धुली मंजी एक दूधिया मूली है ..

“फिर क्या चाहिए?” मैंने कड़क आवाज में पूछा है।

“कुछ नहीं!”

“फिर .. फिर क्यों ..?”

“बस यूं ही बात करनी थी।”

“फिर करो न!”

“कर तो ली! हूँ हूँ! हाहा!” सोफी बहुत खुश लग रही है।

“और कुछ?”

“बस ..! बाय!” कहकर फोन पटकने की आवाज मैं सुन गया हूँ। अवाक और कुंठित मैं उस आखिरी शब्द का जवाब नहीं दे पाया हूँ। मैंने फोन को अभी भी कस कर पकड़ा हुआ है और मुझे अभी भी उम्मीद है कि ये प्रेताकार घंटी फिर बजेगी। मन को बहुत समझा बुझा कर अंदर बिठा दिया है। मैं बहुत भावुक और प्रेमी हूँ – अपनी इस खोज पर खीजा सा मैं गैस्ट रूम में चला आया हूँ। मेरे चेहरे पर छपे भाव सभी ने पढ़ लिए हैं। मैंने मुक्तिबोध को इन लोगों को वापस छोड़ने को कहा है और लंबी लंबी डग मारता वापस हो लिया हूँ।

कुर्सी पर संभल कर बैठा ही था कि ऐवरेस्ट सामने आ गई है। मैं कुछ सिटपिटाया सा संभल कर उसे घूरने लगा हूँ।

“आज हमें प्रोग्राम चकआउट करना है” उसने बिना किसी संबोधन के और बिना किसी शिष्टाचार के कहा है।

मन में तो आया है कि मैं इसे धक्के मार कर बाहर निकाल दूँ। औरत की जात कितनी कमीनी होती है – मैं ये समझा हूँ और अपने किए वायदे से मुकर जाने की सोच रहा हूँ। लेकिन धीरज की बांह गही है मैंने और उसे पूछा है – मैं क्या करूं?

“आप आज आठ बजे क्लाक शीराज मैं पहुंच जाएं!”

“क्लाक शीराज …?”

“हां हां! पार्टी भी है और प्रोग्राम भी!” उसने मेरी ओर एक आंख दबाई है जिसका उद्देश्य शायद फन से है!

“ओके!” मैंने अनमने से स्वीकार कर लिया है।

पता नहीं क्यों मुझे तनिक खुशी हुई है। मुझे ऐवरेस्ट मोहक लगी है और सबसे ज्यादा इन सब का अनौपचारिक व्यवहार और सीधे संबंध मुझे भा गए हैं। लाग लपेट से बात कहना या कोई काम करना मुझे सोफी पर ढेर सारा गुस्सा करने को कह गया है। अगर कह देती .. कह देती लेकिन नहीं। और जो वेदना और मीठा दर्द सोफी दे गई है वह भी तो बड़ा मोहक लग रहा है!

मेजर कृपाल वर्मा

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