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स्नेह यात्रा भाग आठ खंड तीन

sneh yatra

कमरे में सब कुछ नया सा लगा है। नए नौकर के आगमन से मुझे विश्वास नहीं हो रहा है कि सब कुछ वैसा ही होगा जैसा पहले था। हर बार नए आदमी को सिखा पढ़ा कर अपने योग्य बनाना भी मुझे अब भारी काम लगा है। मैं पता नहीं क्यों पुरानी पीढ़ियों की तरह पुराने नौकरों से चिपका रहना चाहता हूँ।

“क्या नाम है तुम्हारा?” मैंने नए नौकर से पूछा है।

“जी! मान सिंह!” उसने उत्तर दिया है।

उसके उत्तर में एक अजीब सा आत्म सम्मान का पुट मिला है। मुझे शक हुआ है कि शायद ये आदमी नौकरी नहीं कुछ और करने आया है!

“कहां रहते हो?”

“जी .. जी अपने घर!” उसने घबरा कर कोई दुराव करना चाहा है।

“हाहाहा! यू आर ए गुड कॉमेडियन!” मैंने उसकी प्रशंसा की है। “तुम बहुत अच्छे हो मान। शाबाश, ऐसा करो .. गरम पानी, घुली कमीज टाई और हां .. खाने पर ..” एक साथ मैं सब कुछ बता गया हूँ ताकि मान सिंह बुत कुछ भूल जाए और ..

मान सिंह सारे आदेश सुन कर खुश होता चला गया है। मैं उसका विश्लेषण करता रहा हूँ। मेरे अंदर एक शक भर गया है, एक अविश्वास ने गेट के अंदर आते ही मेरी बांह गह ली है और अब अपने साये से भी सजग और चौकन्ना हूँ।

“हैलो मुक्ति!”

“सर!”

“आ रहे हो न?”

“बस सर अब पहुंचा!”

“देखो! ऐसा करो कि मैं तुम्हारे बंगले पर आ जाता हूँ। वहीं खाना खा लूंगा और ..”

“ओके सर!” सहज स्वभाव में मुक्ति मान गया है।

मात्र एहसास पर कि मैं बाहर जा रहा हूँ मान सिंह उदास हो गया है। यह उदासी मुझे उसके किसी पिटी आशा का प्रतिफल लगी है। अत्यंत पैनी और विदारक निगाहों से मैंने मान सिंह को घूरा है। उसने आंखें मिलाने की बजाए आंखें चुरा ली हैं।

“कौन है जो ये विष फैला रहा है?” मैंने मुक्ति से पूछा है।

“इसमें सर एक एंटी दलीप गुट काम कर रहा है। अगुआ है – शीतल, श्याम, त्यागी जी, जीत और एक कोई महाशय हैं – नवीन। ये नवीन देहली में आपसे मिलने आए थे ..”

“फिर ..?”

“मिल कर गए शीतल से! बस फिर ..”

“लेकिन श्याम ..?” एक मानवता का प्रतीक सा प्रश्न चिन्ह लगा कर मैं मुक्ति के चेहरे को पढ़ने का प्रयत्न कर रहा हूँ।

“दुनाली बंदूक जैसा भरा रहता है!”

“इनका उद्देश्य क्या है?” मैंने आगे कुरेदा है।

“जैलिसी, ईर्ष्या सर जो अब तक आपकी अच्छाइयां निगलती रही है।”

“मुझसे ईर्ष्या ..?”

“हां-हां सर आपसे ईर्ष्या सर। उनके मन में भरे मनों लावा का सैलाब शायद आप अभी तक नहीं देख सके हैं। पर मैं ..”

“लेकिन मुक्ति, मैं तो ..!”

“देश के लिए कर रहा हूँ – समूचे जन कल्याण का ठेकेदार बनना चाहता हूँ – यही न सर? फॉरगेट इट! ये हिन्दुस्तान है जहां इन विचारों की कद्र नहीं होती। यहां तो नवीन जैसा ही चाहिए .. जो ..”

मुक्ति आवेश में वही उगल रहा है जो आज तक गले के नीचे उतारता रहा हूँ। शायद उसके भी कच्चे और कर्मशील मानस पर चोटें लगी हैं और कच्चा मन कुलबुला उठा है। आंखों में कोई सजग और विध्वंसकारी खलनायक उभर आया है जो मुझे साथ ले कर विपक्षियों पर छा जाना चाहता है। नवीन की डबल इमेज मेरे सामने घूम गई है। मैं तो जानता हूँ कि नवीन किसी का नहीं है और न ही हो सकेगा। नवीन मुझे किसी घिनौने पदार्थ का भान सा करा गया है।

“बात कहां तक पहुँची है?” मैंने और जानना चाहा है।

“सारे वर्कस मजाक करते हैं और रिमार्क पास करते हैं!”

“फॉर एग्जामपल?”

“माखन चोर! शोर मच गया शोर .. उठा ढक्कन – लगा मक्खन!”

“और ..?” तनिक मुसकुरा कर मैंने मजा लेते हुए पूछा है।

“आगरे का लाला – अंग्रेजी दुलहन लाया रे! सोफी के और आपके पोस्टर तक छपवा लिए हैं।”

“क्या ..?” मैंने गुर्रा कर पूछा है। लगा है किसी जहरीले बिच्छू ने डंक मार दिया हो।

“हां-हां सर! आपके सारे फोटो उनके पास हैं। स्नेह यात्रा के ..”

“लेकिन ..?”

“रामू काका से शीतल तड़ा ले गई थी।”

“ओह समझा! शीतल ..?” लगा है कहीं खलनायक बीच का फासला कूद मेरे अंदर प्रवेश कर गया है।

मन में आया है कि अभी इसी वक्त शीतल के ठिकाने पर पहुँचूं। उसे बालों से पकड़ कर बाहर घसीट लाऊं। तमाचे मार-मार कर अधमरा कर दूं और फिर अपनी विषैली जबान से खूब उलटी सीधी भानू – यू साली चुड़ैल .. नमक हराम .. दल्ली ..!” मैं अचानक आपे से बाहर हुआ लग रहा हूँ। एक अदम्य आक्रोश मुझमें भरता जा रहा है।

“कोई विकल्प ..?” मैंने सर्द आवाज में पूछा है।

“तीन हैं – ट्रांस्फर, रिलीज और .. और वॉशआउट!” मुक्ति का गला भर्रा गया है।

जब भी एक सज्जन दुर्जन की भूमिका बदलता है तो कोई अनाम सहम उसे खाने लगता है। मुक्ति जो पंछियों तक का प्यारा है, उनका प्रिय मित्र है और प्रकृति के हर अंश का उपासक है आज अपने मान के लिए मानव हत्या तक की बात सुनाने में नहीं चूका है! पंछियों के पीछे दौड़ते बाज की असफल भूमिका में निहत्था मुक्ति मुझे बहुत ही निरीह और विवश लगा है।

“इससे पहले कुछ तोड़ फोड़ करके देख लें?” मैंने सुझाव रक्खा है।

अंजाने में सीखे बाबा के नुक्ते याद हो आए हैं। शीतल का दुपट्टा ओढ़े बाबा का बिंब सामने खड़ा हंस रहा है। एक अदृश्य से हाथ को लपका कर वो मुझे आशीर्वाद दे रहे हैं। बंज व्यापार में धीरज जैसा मित्र और कोई नहीं – बाबा का सत्य प्रायः ऐसा कथन था जो हमेशा मुड़ कर मुझे आत्म विश्वास से भर देता!

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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