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स्नेह यात्रा भाग आठ खंड पंद्रह

sneh yatra

“कायर! अकर्मण्य! छलिया! क्या पा लिया तुमने जग का छोर? आ गया अंत तुम्हारी पहाड़ जैसी महत्वाकांक्षा का? हार गए हो न तुम? सोफी का साया है जो मुझे जलील कर रहा है।

रुके कदम, टूटी आशा, घोर निराशा का अथाह समुद्र, अकेलापन और मिटने का भय – सभी को सोफी चीरती लगी है।

“मैं एक अकेली लड़की हूँ और तुम क्या हो? अपना देश छोड़ मैं विदेश तक का सफर करती हूँ और तुम ..? क्या हम दोनों विचारों की समानता के धरातल पर मिल सकेंगे?”

“हां-हां! मिलेंगे और जरूर मिलेंगे मेरी जान!” कह कर मैंने दराज से अपना लैटर पैड खींचा है।

आज चाहता हूँ कि सोफी को मन का तमाम हाल लिख कर भेज दूं। पता नहीं क्यों सोफी एक पथ प्रदर्शक लगने लगी है। मेरी प्रेरणा का स्रोत सोफी ही है – मैं जानता हूँ।

बहुत-बहुत प्यारी सोफी – तुम्हें अमर प्यार!

तुम्हें तुम्हारे पत्र के लिए धन्यवाद नहीं करूंगा क्योंकि तुमने अभी तक दूसरा पत्र नहीं लिखा है। मैं तुम्हें लिख रहा हूँ पर किसी गरज से। मन तो करता है कि तुम्हें खूब कोसूं। गालियां बकूं और अगर मिल जाओ तो दो चार झापड़ भी रसीद कर दूं। बिगड़ने का कारण पूछ रही हो तो सुनो –

तुमने प्रेरित किया था – काम करो। फिर कहा – अपना नहीं जग का हित सोचो। जब ये सब भी मान लिया तो आदेश मिला – दलीप! हमें विश्व को एक सूत्र में बांधना है। और अब मैं कहता हूँ कि सोफी तुम पागल हो। ये सब तो लिखने पढ़ने और भाषण देने तक सीमित रहना चाहिए। इन विचारों का प्रयोगात्मक रूप शायद संभव ही नहीं। जो जूझता है वही पिटता है। पत्थर बरसते हैं। लोग लातों से मारते हैं और जब बेचारा मर जाता है तब फूल मालाएं लिए लोग उसकी मजार पर जाते हैं। ये महान थे – कह कर खूब मजाक उड़ाते हैं उसका। हां सोफी लोग मेरे नए विचारों का और नए आइडियों का विरोध करते हैं और मजाक उड़ाते हैं। मैं तो उनके लिए पिस जाना चाहता हूँ और ये मुझे पीस देना चाहते हैं। फिर मैं क्यों मरूं? वैसे मैंने बहुत किया है, बहुत लड़ा हूँ पर कोई कहता है कि मैं अपने दुश्मन पैदा कर रहा हूँ। ये क्या तुक है सोफी मैं यही नहीं समझ पाता।

बुरा मत मानना स्वीट, मैं कभी-कभी थक सा जाता हूँ। मेरी प्रेरणा का स्रोत तुम भी तो कितनी दूर हो! इस माहौल में कभी-कभी तो तुम्हारी खुशबू तक चल कर नहीं पहुंच पाती। अकेले मैं कितना तरसता हूँ – तुम्हारे लिए! आदमी कितना अकेला रह जाता है और मन एक दम उदास। जब हर कोने में तुम्हारी ही परछाइयां भर जाती हैं तो मैं इनसे खेलने लगता हूँ। धूप छांव जैसी जिंदगी को जीने का विफल प्रयत्न करता हूँ पर तुम कभी बांहों के दायरों में नहीं समातीं। कब आएगा वो दिन जब हम आगोश में भरे समा जाएंगे – ठीक धरती के अंदर विलीन होते पानी की तरह।

तुम बहुत सताती हो – साली लुच्ची! बाई गॉड सोफी अब तो प्यार का अर्थ भी बदला-बदला लगता है। लेकिन हां! तुम मत पलट जाना। जग के आघात सह जाऊंगा पर तुम्हारा एक ही वार मेरी मौत ला देगा। पागल नहीं हूँ सोफी सच्चाई को उगल रहा हूँ। मैं ये भी जानता हूँ कि तुम आओगी – पर कब आओगी? डार्लिंग! चली आओ ना? देखो न – यहां मेरा कोई नहीं। अकेलापन भी कभी-कभी साथ छोड़ जाता है और काम भी खलने लगता है।

तुम्हारे प्यार में पागल तुम्हारा ही दलीप।

“सर!”

“यस!” मैंने चौंक कर इंटरकॉम पर मुक्ति को जवाब दिया है।

“सर, मेल .. आई मीन, मेल का फाइल देख लिया?”

“क्यों? एनीथिंग सीरियस!”

“सर! वो शादी आई मीन जीत की लड़की की शादी है।”

“ओह! थैंक्स गुडनैस! मैं समझा तुम सरप्राइज दे रहे हो।” मैं हंसा हूँ।

“नहीं सर! वैसे ..”

“जल्दी ही कर रहे हो!”

“यस सर!”

“आज का क्या प्रोग्राम है?” मैंने पूछा है।

“आप ही डिसाइड करें!”

“फिर दोनों ही चलेंगे। एक चैक बना लेना।”

“हाऊ मच?”

“से .. टेन .. और वैल .. मेक इट फाइव! ओके?”

“ओके सर!” कह कर मुक्ति ने लाइन छोड़ दी है।

शहनाई की आवाज पता नहीं क्यों कच्चे-कच्चे अधकचरे से भावों को आद्र भावनाओं में बदल-बदल कर बहकाती लग रही है। शायद शहनाई का राज सिर्फ दूल्हा दुलहन पर ही जाहिर होता है। उन्हीं के मन कमल पंखुरियां खोल एक सार गर्भित जीवन का रसास्वादन करते हैं। एक सजा संवरा सा मिलन – लोगों का स्वीकारा मिलन और स्वेच्छा से लिपटते दो शरीर किस तरह शहनाई की प्रसूत मंगल ध्वनि में बंध जाते हैं? औरत और मर्द के बीच खुदी खाइयां कूद कर दोनों साथ-साथ हो लेते हैं और मान, मर्यादा, धर्म तथा वायदों में बंधे कैदी न हो कर दो स्वच्छंद परिंदे लगने लगते हैं। एक सारस का सा जोड़ा जो सुख और दुख बांट-बांट कर खाएंगे!

मुझे सोफी बेहद याद आ रही है। कई बार शहनाई के पैने बोल अंदर तक दंश दे गए हैं। कई बार कल्पना-प्रसूत मंडप में मैंने सोफी को ग्रहण किया है। वायदा लिया है और वायदा दिया है। हाथ पकड़ा है और जिम्मेदारी ओटी है। अब अपनी सुहागरात की कल्पना से बंधा फूलों से हलका लगा हूँ।

सुखों के नए आयाम मुझमें समाते लगे हैं। लेकिन सिसकते समय ने मुझे बोध शील बना कर कहा है – मुझे मत खोओ! मैं सार्थक हूँ और ये कल्पना ठगिनी है। पर कभी-कभी कल्पना भी दुलहन बनी स्त्री की तरह ही मोहक लगने लगती है।

“आ गए! बस मैं भी तैयार हूँ।” मैंने मुक्ति से पल दो पल जैसे उधार मांगे हैं।

“सर! त्यागी जी भी आए हुए हैं।” मुक्ति ने खबर दी है।

“ठीक है! थोड़ी और रौनक हो जाएगी।” कह कर मैंने त्यागी की उपस्थिति को महत्व नहीं दिया है।

मैं जानता हूँ कि जीत त्यागी का ही आदमी है। तथा मेरी मिल में प्लांट किया एक उसका अपना ठिकाना है। त्यागी अपने इन ठिकानों के साथ बहुत एहतियात बरतता है। वैसे जीत जितना त्यागी का है, उतना त्यागी जीत का नहीं है। पर मैं तो जानता हूँ कि आज त्यागी ठीक बगुले भगत की सज्जा में होगा। बेटी वालों के परिधान में सजा होगा और अति सहिष्णु स्वभाव का प्रदर्शन करता अंजाने में कोई मांग कर रहा होगा!

लगन मंडप को सतही ढंग से सजाया गया है। अच्छी खासी मेहमानों की भीड़ जमा हो गई है। सभी दाएं बाएं छोटे-छोटे गुटों में एकत्रित हो विवाह संपन्न होने की बाट जोह रहे हैं। लगता है समय का अभाव सभी को खल रहा है। वैसे जीत ने सिर्फ शाम का भोजन ही तय किया है और उसके बाद सभी अपने-अपने घर लौट जाएंगे। लोगों की चर्चा के विषयों में शादी विवाह के रीति रिवाजों पर टीका टिप्पणी भी बहुत चर्चित मसौदा लग रहा है। सामूहिक विवाहो की संपन्नता, सरलता और सबसे ज्यादा बचत की सराहना सभी कर रहे हैं। जिनके पास ब्याहने को बेटियां हैं और जो बेटे वाले हैं – जिन्हें लेना है वो कुछ उतरा उतरा मुंह लेकर किसी अप्रत्याशित घटना के भय से भरे हैं।

“कन्यादान का शुभ मुहूर्त है जो सज्जन पुण्य लेना चाहें अंदर चले जाएं!” पंडित जी ने बड़े ही शालीन ढंग से घोषणा की है।

मैंने मुक्ति को इशारों में ही अंदर जाने को कहा है। त्यागी मेरे पास एक लंबा भीड़ भक्कड़ का अंतराल जैसा कुछ फांद कर पहुंच गया है।

“कैसा चल रहा है दलीप?” उसने आत्मीय ढंग से पुराना प्रश्न ही दोहराया है।

“आप सुनाइए नेता जी?” मैंने भी औपचारिकता निबाही है।

“आज कल मन्दा-अकरा व्यापार को छोड़ राजनीति में धंस गया है। अब देखिए ..”

“अकरा चल रहा है?” मैंने व्यंग किया है।

“ठीक समझे!” कह कर मैं और त्यागी दोनों हंस पड़े हैं।

पंडित जी ने लोगों का ध्यान आकर्षित करके घोषणा की है – दलीप साहब ने पांच हजार का चैक दान में दिया है।

नयन विस्फरित जन समूह ने मुझे समूचे तौर पर तौल-तौल कर देखा है। सशंक आंखें बार-बार मुझसे पूछ गई हैं – ये कोई फरेब तो नहीं? मैं तनिक गर्व भावित अपनी अहमियत समझ कुछ उजले अजान आदर के भाव चुपचाप पीता रहा हूँ। इन मूक पलों में घूरती आंखों के असमंजस में और आधे नंगे भूखे लोगों के बीच मैं कोई छायादार वृक्ष लगा हूँ जो एकाध को धन अभाव की टीक दोपहरी से बचाने की क्षमता रखता है। कितनी ही निगाहें असमंजस पी कर अब लालची बनती लगी हैं। कितने ही लोग पतंगों की तरह आ आकर मुझसे चिपटने लगे हैं। कितनी झूठी सच्ची प्रशंसाएं सुनने को मिल रही हैं। पर मेरा मन उकताने लगा है। अब शहनाई की मधुर धुन भी मुझे अंदर से तोड़े दे रही है।

चलने को हुए हैं तो जीत ने कृतार्थ हो कर हमें आदर से बिठा लिया है। मैं जानता हूँ कि हर निगाह मेरा पीछा करती रही है। जैसे पूछ रही है – फिर कब लौटोगे कुबेर भंडारी? भीड़ की खुसुर-पुसुर में मैं दानी कर्ण, हरीश चंद्र और पता नहीं कितने विगत के अंतराल में हुए नाम सुन चुका हूँ। लेकिन मैं जानता हूँ कि अब ये सब सुनने – समझने तक ही सीमित रह गए हैं। दान पुण्य का युग तो कब का चुक गया है। अब तो स्वार्थपरता का घोर अंधकार छाया हुआ है। ये युग तो विमानवीयकरण का युग है। धोखे-धड़ी का युग है और त्यागी तथा नवीन जैसों का ही हो कर रहता है। लगा है मैं एक विफल प्रयत्न करके लौट आया हूँ और अब कल की चिंता में विक्षिप्त हूँ। वैसे मुझे होना तो नहीं चाहिए था। क्योंकि मैं जानता हूँ, मैंने दान नहीं कीमत दी है और अब वसूल करने की उधेड़-बुन दिमाग में जोरों से चल रही है!

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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