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स्नेह यात्रा भाग आठ खंड ग्यारह

sneh yatra

“सुनो! साले सब नेता चोर हैं!” मैंने भभक कर कहा है।

“वाह-वाह! क्या सच्चाई उगली है।” भट्ठा वाले ने ऊंचे स्वर में कहा है।

“चोर-चोर को नहीं पहचानेगा तो क्या तेरी मां को मानेगा?” जकारिया ने ढीले पाजामे को दोनों टांगों के ऊपर खिसकाते हुए कहा है।

हाहाहा! अट्टहास में मैंने अपने कहे वाक्य की गरिमा को घटते पाया है।

“मैं जितना दे सकता हूँ – दूंगा! बाकी ..” भर्राए स्वर में मैंने कुछ कहने का प्रयत्न किया है पर त्यागी ने बात बीच में काट दी है।

“दान बित्त समान! ये तो देश सेवा है। मैं तो निस्वार्थ देश सेवा में पूर्ण विश्वास रखता हूँ।”

तालियां बजी हैं। वही तालियां जो दो दिन पहले मेरे विश्वास को ऊंचा कर रही थीं आज त्यागी के पक्ष में बजती लगी हैं। तो क्या आज कल तालियां भी झूठी ध्वनि पैदा करने लगी हैं? क्या जनमत भी व्यापारिक बन गया है? अचानक मैंने चुप रहने का फैसला कर लिया है। यहां मेरी सच्ची बात या झूठे वायदे में कोई फर्क नहीं पता चलता।

“अमेरिका में जा कर कहीं टेस्ट बदली तो नहीं हो गया?” भट्ठा वाले ने पूछा है।

“हो गया है!” मैंने बहुत ही गंभीर स्वर में कहा है।

“तो हर्ज भी क्या है? यहां कौन फॉरन माल धरा है!” जकारिया ने अपना ज्ञान बघारा है।

“भाई दलीप साहब का पूरा-पूरा ध्यान रक्खा जाए!” त्यागी ने आदेश दिए हैं।

इसका अर्थ मैं ताड़ गया हूँ। अभी और फांस लेने की युक्ति में लोग आए बैठे हैं। मैं जानता हूँ कि अब सीधी उंगलियां घी नहीं निकाल पाएंगी। मैंने अभिनय करने का फैसला कर लिया है।

“एक दम प्योर अमेरिकी माल! बाई गॉड .. क्या नजरिया क्या हाई-हाई सितारे .. हां – हां-हां सितारे कहां हैं? मेरे यार .. रे मेरे यार मैं ..!” मैं भट्ठा वाले से लिपट गया हूँ।

वही तालियां, वाह-वाह! म्यूजिक .. शराब और हू-हल्ला चल पड़ा है। त्यागी कोने में बैठा आंखों से कोई अद्वितीय गौरव पिए जा रहा है। उसका चेहरा मेरी आंखों में खटकने लगा है। एक विकृत रूप, एक घिनौना सा दो कौड़ी का इंसान और कोई एक कृपण मेरे सामने घिघियाने लगता है।

“चल बे साले त्यागी!” कह कर मैंने भट्ठा वाले को घुटने में मारा है।

भट्ठा वाला फर्श पर लंबा बिछ गया है। मैं लपक कर त्यागी को बांहों में भर उठा लाया हूँ। हम दोनों फर्श पर चक्कर काट-काट कर फिरकियां लेने लगे हैं। भट्ठा वाला हाथ झाड़ कर उठ खड़ा हुआ है। कनखियों से मैंने उसके चेहरे पर एक पिटे दल्ले के भाव पढ़े हैं।

“वाह-वाह! मेरे जिगरी .. त्या .. गी ..!” कह कर मैंने त्यागी को अपनी बलिष्ठ बांहों में भर कर भींचा है, मसोसा है और लेकर फर्श पर आ गिरा हूँ! त्यागी के पेट से दुच्च की आवाज निकल कर मेरा वजन बढ़ा गई है।

“वाह अलबेले! वाह मतवाले!” मैं त्यागी के गालों पर हलकी चपत मार-मार कर कहता रहा हूँ।

भट्ठा वाला, जकारिया तथा अन्य चमचे सभी त्यागी जी को मेरे नीचे से वापस खींचने का प्रयत्न करने लगे हैं। एक सामूहिक सा उत्पन्न होता शोर विभिन्न प्रकार के मतों से प्रभावित होता लगा है।

“अरे छोड़ो यार! अबे खींच साले को! पलट दे बे, ओह तेरी तो .. अबे, भूत का भूत है – साला!” कहते-कहते सब ने मिल कर त्यागी को नीचे से खींच पैरों पर खड़ा कर दिया है। एक पल के लिए मेरा दिमाग कोई काम की बात सुझा गया है – त्यागी खुद के पैरों पर खड़ा नहीं है।

“उठ बे!” भट्ठा वाले ने मुझे ठोकर से मारा है।

मैं जानता हूँ भट्ठा वाला खाई घुटने की मार का प्रतिकार चुका रहा है। वह मुझे बहुत ज्यादा जलील करने के मूड में है पर वह अपनी लिमिट जानता है। मैं फर्श पर चित्त लेट गया हूँ। जोरों से हंसा हूँ और पता नहीं क्यों एक पंजाबी पुराना गीत गाने लगा हूँ – पीड़ .. पीड़ .. मैंनु पीड़ होंदी है .. कि मैंनु पीड़ ..

फर्श पर लेटा-लेटा मैं चारों ओर कमर को धुरी बनाए घूमता रहा हूँ। पैर पीटता रहा हूँ, ताली बजाता रहा हूँ और पीड़ शब्द को हर बार ऊंचा उछाल कर पूरे हॉल को एक अजीबोगरीब माहौल से भरता रहा हूँ। सभी तालियां पीट-पीट कर मेरे साथ गाते जा रहे हैं और हॉल की छत पर कुछ अजीब भाव छपते रहे हैं!

“साहब! टेलीफोन!” वेटर ने मेरे कान में झुक कर कहा है।

पीड़ शब्द मानो अबकी बार गले में फंसा कोई मछली का पैना कांटा हो – वास्तव में उत्पीड़ित करता लगा है। टेलीफोन की बजती घंटी की कल्पना मात्र मुझे झकझोर कर रख गई है। मैं हिम्मत करके उठा हूँ। बिना कुछ कहे सुने मैं हॉल छोड़ कर चला आया हूँ।

“हैला! दलीप स्पीकिंग …!”

“सर, गुड ईवनिंग! मैं मुक्ति। सॉरी टू डिस्टर्ब यू सर ..”

“नैवर माइंड! बोलो .. हां .. हां-हां! .. क्या?”

“स्टाफ की हड़ताल कल! कपूर का काम है!”

“कपूर ..?”

“हां सर! वैसे बड़ा शरीफ लगता है पर ..”

“ओके-ओके! मैं पहुंच जाऊंगा!” कह कर मैंने टेलीफोन रख दिया है।

पल भर के लिए दिशा विहीन बना मैं चारों ओर खड़ी दायरों में घेरती दीवारों को एक अलगाव जैसे भाव से देखता रहा हूँ। सामने एक गुत्थी है – उलझ गई गुत्थी जिसका छोर ढूंढने पर भी नहीं मिल रहा है। अनगिनत धागे में उलझे धागे अनगिनत छोर और बेशुमार रास्ते मुझे इस गुत्थी से जुड़ते लग रहे हैं। अब कहां से शुरू करूं, किसे आवाज दूं तो किसे पुकारूं – मेरी समझ नहीं आ रहा है।

मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड

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