“डाउन विद डांगरी!”
“डाउन विद डिकटेटरशिप!”
“सरमायादारी – हाय-हाय!”
पाेस्टर और नारों के साथ सुबह ही जुलूस का समागम हुआ है। स्टाफ के कुल कर्मचारियों की आधी संख्या है। उसमें भी दो-चार को छोड़ सब अधेड़ उम्र के छोकरे हैं। मैं और मुक्ति पूर्व नियोजित योजना के तहत उद्यान के नुक्कड़ पर पहुंच कर भीड़ के पहुंचने का इंतजार कर रहे हैं। हम दोनों ने डांगरी पहन रक्खी है। भीड़ अब हमें दृष्टिगोचर होती लग रही है। उन लोगों ने भी हमें देख लिया है। प्रथम प्रवाह शिथिल पड़ गया है। जैसे कोई हाका डालता आदमियों का झुंड शेर को देख कर सहम जाता है वही हाल जुलूस का हुआ है।
बहुत पास आते जुलूस को मैं और मुक्ति कनखियों से देखते रहे हैं। विचलित सा मैं उन सभी नेताओं के चेहरों पर लिखे घिसे पिटे हीन भाव देख रहा हूँ। सभी एक अजीब से कॉम्प्लेक्स को जीते लग रहे हैं। मैं जानता हूँ कि आज भी विजय मेरी ही होगी।
“साथियों! मेरी दो बात शांत हो कर सुन लो।” मैंने नुक्कड़ पर पड़े पत्थर पर चढ़ कर अपना कद और ऊंचा कर लिया है ताकि वो सभी मुझे देख सुन सकें। “मैं आपके सामने डांगरी पहने खड़ा हूँ। मुझे कोई शर्म नहीं। मैं ये तो नहीं कहता कि मैं राजवंश या महाराजा घरानों से ताल्लुक रखता हूँ। पर हां! आप जैसा ही एक उच्च खानदान मेरा भी रहा है।”
एक सन्नाटा छा गया है। कपूर खुश नजर आ रहा है। उसने दो चार को धकेल कर मेरी बात सुनने को राजी कर लिया है।
“मैं करोड़पति अगर काम करता हूँ तो आप क्यों नहीं कर सकते? मैं जानता हूं क्यों? आप को अपने काम के घंटों का मोल चाहिए – मिलेगा! मैंने कब कहा था कि आप को इन चार घंटों का फालतू पैसा नहीं मिलेगा? सीधी बात है – जब मुनाफा बढे़गा तो आप का भी भत्ता बढे़गा!”
“वैल डन सर .. वैल डन!” एक बूढ़ा व्यक्ति ताली बजा रहा है। और सब लोग उसे घूर रहे हैं।
“यही नहीं आप लोगों को डांगरी मिल की ओर से मुफ्त मिलेगी!”
अबकी बार कपूर ने उस बूढे व्यक्ति का साथ दिया है। अब सभी सहमत हो कर उगा तनाव पी गए हैं। सभी हंस रहे हैं। मुक्ति मुझे नई निगाहों से तौलता रहा है।
“समय भी घन है, इसे मत गंवाओ भाइयों! चलो, काम करो। देश उन्नति का इंतजार कर रहा है। समाज तुम्हें आशा बांधे घूर रहा है। और कुछ नहीं तो अपनी चढ़ती जवानी के नाम की दो घंटे लिख दो!”
“सब का चहेता – जिंदाबाद!”
“हम सब का मालिक – जिंदाबाद!”
तालियों की गडगड़ाहट से वातावरण गूंज उठा है। कोई सुखद अनुभव मुझे छूता लगा है। एक विजय गर्व से बंधा मैं कोई अद्भुत नशा पीता रहा हूँ। पता नहीं क्यों हर बार मुझे ये लोग अलग निकाल फेंकना चाहते हैं लेकिन मैं हर बार इन्हीं में मिलने चला आता हूँ।
“सर! एक सुझाव है ..” मुक्ति कोई गंभीर राय पेश करने को हुआ है।
“हां-हां! बोलो ..!” कह कर मैंने बजर दबा कर दो कॉफी मंगाने का ऑडर दिया है।
“सर! आप यहां – आई मीन यू आर नॉट सेफ हियर!” कह कर मुक्ति संदिग्ध दृष्टि को घुमा फिरा कर किसी खतरे को तलाश लेना चाहता है।
“क्यों?” मैंने उत्सुकता से पूछा है।
“आप के दुश्मन बढ़ रहे हैं।”
“पर दोस्त भी तो हैं?”
“मानता हूँ सर! पर दुश्मन जब वार करता है तब दोस्त सो रहे होते हैं।”
“ये दाव घात तो चलते ही रहते हैं। फिर यों ..?” मैंने बात की गंभीरता छांट कर हलका करना चाहा है।
“सर! आप इसे सीरियस मानें। विद्रोही पक्ष आप के ठिकाने तक ..”
मुक्ति की आंखों में अज्ञात भय के भाव पढ़ कर मैं तनिक सहमा हूँ। कॉफी के गर्म-गर्म भाप उगलते प्याले सामने आ गए हैं। नथुनों में कॉफी का फ्लेवर जा बिंधा है।
“मिटना किसे नहीं है, मुक्ति? मैं तो कमर बांधे लड़ रहा हूँ। अकेली जान है सो ..?”
मैंने बड़े ही दार्शनिक भाव घोल कर कहा है। वास्तव में अब मुझे डर लगता ही नहीं है।
“आप आगरा शिफ्ट कर लें। डिस्टेंस ही कितना है?” मुक्ति का सुझाव है।
“मानूंगा नहीं मुक्ति! मैदान छोड़ कर नहीं जाऊंगा! लड़ते-लड़ते गिर जाऊं तो गम न होगा!” वही मेरा जिद्दी दलीप बोल रहा है।
मुक्ति कुछ उदास सा लौट गया है। मैं जानता हूँ कि मुक्ति मेरा शुभ चिंतक है। पर वो जो चाहता है मुझसे बन नहीं पड़ेगा। मैंने अन्यमनस्क अखबार पढ़ना चाहा है। पहले ही पेज पर मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा है – प्रेसीडेंट फोर्ड पर गोली चली! अमेरिका की किसी नवयुवती ने निशाना साध कर राष्ट्रपति पर गोली दागी पर .. वो बच निकले! इसी को किस्मत कहते हैं – सोच कर मैंने अपने तनिक पस्त हुए होंसले को बुलंद किया है।
आदमी जिस समाज के लिए पिसता है बाद में वही समाज उसे दुत्कारता है। गोली मारता है, भत्सरना और उपेक्षा के समुद्र में धकेल देता है, देश द्रोही, विश्वासघाती और कलंकी आदि घातक आक्षेपों से उसके किए कराए पर पानी फेर उसे नकार देता है। लिंकन, कैनेडी, महात्मा गांधी और सुग्रीव का हुआ कांड – और बाली की मौत मुझे सभी याद आने लगते हैं। एक ओर निराशा के तिमिर में बिंधा मैं सब कुछ त्याग कर समाज कल्याण और देश कल्याण जैसी भारी भरकम बातों से कट जाना चाहता हूँ। जिन लोगों के लिए करता हूँ, जब वही विरोध करते हैं – जान लेने पर तुले हैं तो न जाने ..
मेजर कृपाल वर्मा रिटायर्ड